🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣8️⃣
भाग 1
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
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रनिवास हास बिलास रस बस, जनम को फलु सब लहैं….
📙( #रामचरितमानस )📙
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#मैवैदेही ! ……………._
कोहवर में अब हमें प्रवेश करनें दिया था सखियों नें ……….
वह कोहवर दिव्य था ………….नाना प्रकार के मोतियों मणियों की लड़ियाँ लगी हुयी थीं ……..कोहवर के खम्भो में दीये झिलमिला रहे थे ….वो कोई तेल बाती का दीया थोड़े ही था ……….मणियों का दीपक था ….जिसमें से स्वयं प्रकाश फैल रहा था ………….।
लाल अनुराग का रँग होता है ……………मेरे कोहवर में लाल रँग का ही ज्यादा से ज्यादा प्रयोग था ……….।
पर चित्रकारी बहुत सुन्दर थी ………दीवारों में …………..लाल , हरे, पीले नीले रँग के नाना प्रकार के चित्र अंकित किये गए थे ।
और हाँ दीवारों पर लताओं के चित्र इतनें जीवन्त काढ़े गए थे कि देखनें वालों को लगे कि हम लताओं के नीचे ही बैठे हैं ।
कुछ दीये जल रहे थे ……..उनमें सुगन्धित तैल डाला गया था …जिससे कोहवर महक रहा था …………।
वैसे श्रीरघुनंदन के कोहवर में आते ही कोहवर महक उठा था ।
पर दुष्ट हैं मेरी सखियाँ भी ……………..मैने तो सोचा था ……..हम दोनों युगल को कोहवर में बिठा कर चली जायेगीं …….पर ।
देखो ! कैसे देख रहे हैं ये कुँवर हमारी किशोरी को ………
फिर शुरू हो गयी थीं सखियाँ ।
मैने तो सिर झुका लिया ……………….और सिर झुकाये ही रही ।
हमारी सिया जू को देखो ……..इनकी और देख भी नही रहीं …….पर ये अवध के दूल्हा …………………
दूसरी सखी नें तुरन्त कहा ………….इतनी सुन्दर दुल्हन इन्होनें देखि कहाँ होगी !………….
पर सिया जू ! तुम एक बार तो इन्हें देख लो ………..
पर मैने अपना सिर ऊपर नही किया ……………
मेरी सखी चन्द्रकला नें ………मेरी चोरी पकड़ ली ………….
बात ये थी कि मेरे कँगन मणियों के थे ……….और अँगूठी हीरों की थी ………मेरे कँगन में श्रीरघुनन्दन का प्रतिविंव स्पष्ट पड़ रहा था …..मै वहीँ से उन्हें देख रही थी ……………….चन्द्रकला समझ गयी ……और वो बातूनी चन्द्रकला इस रहस्य को खोलनें लगी ……..तो मैने ही उसे तुरन्त कह दिया ………………चुप !
सारी सखियाँ हँस पड़ी थीं ………………।
दूध भात, चाँदी के कटोरे में लाकर सखियों नें मेरे हाथों में दिया था………..और रघुनन्दन को खिलानें के लिये कहा ………
मै खिलानें लगी ……………रघुनन्दन खानें लगे ………….
ये अवध वासी भूखे होते हैं क्या ? देखो ! कैसे गपागप खाये जा रहे हैं……अजी ! इतनी समझ भी नही है इनको कि हमारी कोमल किशोरी जी नें, सुबह से कुछ खाया ही नही है …………
बिना कुछ कहे मेरे रघुनन्दन नें मेरे हाथों से वह दूध भात का कटोरा लिया ………….और मुझे खिलानें लगे थे ।
देखा ! खीर केवल एक बार ही खाया है …………..डरते हैं खीर खानें से ये अवध वासी !………..दूसरी सखी कहाँ चुप रहनें वाली थी ……
क्यों डरते हैं सखी ? ये प्रश्न और उठा बैठी ।
इनके यहाँ खीर खानें से गर्भवती हो जाते हैं ……………
ये कहकर सारी सखियाँ कोहवर में ताली बजा बजा कर हँसनें लगीं ।
फिर तुरन्त दूसरी सखी बोली …………..इनकी माता भी ऐसे ही गर्भवती हुयी थीं…………….ये ऐसे ही खीर से पैदा हुए हैं ………..
क्रमशः …..
शेष चरिञ अगले भाग में……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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] Niru Ashra: “अर्जुन द्वारा सुभद्रा हरण”
भागवत की कहानी – 52
कृष्ण ! मुझे तुमसे एकान्त में कुछ बात कहनी है ….श्रीबलभद्र ने अपने भाई श्रीकृष्ण से कहा तो श्रीकृष्ण बोले …हाँ , भैया ! कहिए ना ! ये एकान्त ही तो है , कौन है यहाँ जो दूसरा हो ।
अर्जुन वहीं थे …..अर्जुन की ओर संकेत किया श्रीबलभद्र ने तो श्रीकृष्ण बोले …ये अपना ही है …ये पराया नही है । ‘फिर भी’……अर्जुन की ओर देखते हुए मुस्कुराकर श्रीबलभद्र श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ कर ले गए अपने महल में, अर्जुन मुस्कुराते हुए वहीं खड़ा रहा …अर्जुन को इस बात का बुरा नही लगा किन्तु श्रीकृष्ण को बुरा लगा था ।
किन्तु बड़े भैया ! दुर्योधन को हम अपनी बहन नही दे सकते ।
अपने बड़े भाई की बात सुनकर श्रीकृष्ण ने साफ़ साफ़ मना कर दिया था ।
आपका शिष्य है दुर्योधन जगत को पता है किन्तु अपनी बहन सुभद्रा उसे हम नही दे सकते । तो किसे दोगे ? वो बड़ी हो रही है …युवा हो रही है ….हम उसके भाई हैं उसके विवाह की चिंता हम नही करेंगे तो फिर कौन करेगा ? अर्जुन ! श्रीकृष्ण ने बस ये नाम लिया । अर्जुन ? श्रीबलभद्र कुछ बोले नही …लेकिन रोष में अपने पाँव पटकते हुये वो चले गये थे …..”लेकिन ये हो नही सकता”……जाते जाते ये भी कह गये थे ।
अर्जुन बाहर था …..उसनें भीतर की सारी बातें सुन लीं थीं ……बाकी बची बातें श्रीकृष्ण ने सुना दीं थीं …..ये श्रीकृष्ण का अच्छा सखा भी तो है ।
तुम्हें सुभद्रा पसंद है ? ये क्या प्रश्न था श्रीकृष्ण का ….अर्जुन शरमा गये ….अरे शरमाने का समय नही है भाई ! बताओ जल्दी …नही तो बड़े भैया दुर्योधन को हमारा जमाई बना देंगे ।
हाँ , सिर झुकाकर शरमाते हुए अर्जुन बोला था ।
तो एक काम करो ….कल तुम ऐसे ऐसे आ जाना …..और मेरी बहन का हरण कर लेना ……शुकदेव कहते हैं …विचित्र हैं श्रीकृष्ण भी ….प्रेमी अद्भुत हैं ….प्रेम के लिए अपनी बहन तक को भगवा दिया ।
बड़े भैया ! पास में बड़े सिद्ध सन्यासी पधारे हैं ….दर्शन करने नही चलोगे ? श्रीकृष्ण ने अपने बड़े भ्राता श्रीबलराम जी को कहा था ।
हाँ , हाँ ……सन्यासी सिद्ध ….ये सुनकर तो श्रीबलराम जी तुरन्त तैयार हो गये …और फल फूल आदि लेकर ये चल पड़े थे …….स्वामी अर्जुनानन्द तीर्थ जी महाराज …..ये उनका नाम है …श्रीकृष्ण मन ही मन हंस रहे हैं …..फिर सोचते हैं – अर्जुन सब कुछ सम्भाल लेगा ना ! श्रीबलराम जी पहुँच गये थे ……उन सन्यासी को देखा तो श्रीबलराम ने कहा ….इनको तो कहीं देखा है ! अरे कहाँ देखा होगा भैया ! ये तो सीधे हिमालय से उतरे हैं …..आपको दृष्टि भ्रम हो गया होगा ….और सन्यासी लोग एक तरह के वस्त्र पहनते हैं ना , इसलिए भी लगा हो ।
महाराज ! आशीर्वाद दो …..चरण वंदन करते हुए श्रीबलराम बोले थे ।
ये मौन हैं ……ये मौन ही रहते हैं …..श्रीकृष्ण बीच में ही बोल उठे ।
अच्छा , मौन हैं ! कब से मौन हैं ? श्रीकृष्ण बोले …जब से पैदा हुये हैं तब से मौन ही हैं ।
श्रीबलराम जी बड़े प्रभावित हुए …श्रीकृष्ण से बोले ….इनको अगर अपने महल में बुलाकर भोजन कराया जाए तो ? श्रीकृष्ण बोले …ये तो हम लोगों का महत् पुण्य होगा ।
स्वामी जी ! कल भिक्षा हमारे यहाँ लीजिए ! उन स्वामी जी ने श्रीकृष्ण की ओर देखा …..मान गए स्वामी जी ….भैया ! कल दोपहर में आजायेंगे और भिक्षा स्वीकार करेंगे …श्रीकृष्ण ही बोले ….और प्रणाम करके जैसे ही जाने लगे …..कृष्ण ! इन्हें मैंने कहीं देखा है …..अरे चलो भैया ! कहाँ देखा होगा ….आज कल आपकी स्मरणशक्ति कुछ क्षीण सी लग रही है ….कुछ भी …इनको कहाँ से देखा होगा ….भैया ! ऐसे कुछ भी मत बोला करो ……अच्छा अच्छा , गलती होगी …अब तो क्षमा कर दे ……दाऊ भैया की बात पर कन्हैया खूब हंसे थे ।
स्वामी जी पहुँच चुके हैं भिक्षा लेने को ……श्रीकृष्ण ने खबर पहुँचाई । श्रीबलभद्र दौड़े हुए आए ….साष्टांग प्रणाम किया ….फिर चरण धोए ….आचमन कराया । पात्र दिया ….उसमें पूड़ी , साग खीर देने लगे …..तभी श्रीकृष्ण ने उद्धव को संकेत किया …उद्धव आए ….बलभद्र भैया ! कोई हस्तिनापुर से आया है …आपसे मिलना चाह रहा है । कृष्ण ! भिक्षा तुम देखना …मैं अभी आया ….श्रीबलराम चले गये ……ओह ! उद्धव ! मुझे भी आना पड़ेगा क्या ? उद्धव मुस्कुराए ……सन्तों की सेवा का अवसर ही नही मिलता …..बहन ! ओ बहन सुभद्रा ! सुभद्रा आयी …..तुम इन स्वामी जी को भिक्षा देना और क्या चाहिए इसका ध्यान रखना मैं अभी आया । श्रीकृष्ण ये कहकर चले गये ….अब सुभद्रा जब आयी ….तो अर्जुन खड़े हो गये कुछ नही बोले ….सुभद्रा ने देखा …..अर्जुन मुस्कुराए तो सुभद्रा ने भी पहचान लिया था …बस अवसर अच्छा जानकर अर्जुन ने सुभद्रा का हाथ पकड़ा और दोनों बाहर भागे …..बाहर रथ खड़ा था उसी में सुभद्रा को बिठाकर अर्जुन हरण करके ले गये ।
अरे ! स्वामी जी कहाँ गये ? श्रीबलराम जी लौट कर आए तो देखा वहाँ कोई स्वामी है ही नही ….कहाँ गए स्वामी जी ? श्रीकृष्ण आ रहे थे उनसे पूछा …तो श्रीकृष्ण का उत्तर था ….मैं तो सुभद्रा को यहाँ छोड़कर गया था ….सुभद्रा ! सुभद्रा ! श्रीकृष्ण आवाज लगाते हैं लेकिन सुभद्रा वहाँ है नही । उद्धव ! सुभद्रा भी नही है और वो स्वामी जी । ये उद्धव से श्रीबलराम ने पूछा था ।
सुभद्रा बहन को तो वो स्वामी हरण करके ले गये ….उद्धव ने कहा ।
क्या ! उद्धव ! तुमने रोका नही ? रोषपूर्ण वाणी में श्रीबलभद्र बोले थे । वो अर्जुन है …उद्धव ने स्पष्ट किया ….श्रीबलभद्र का रोष और ज़्यादा बढ़ गया ….उद्धव श्रीकृष्ण की ओर देख रहे हैं …और श्रीकृष्ण मंद मंद मुस्कुरा रहे हैं । मेरा रथ तैयार करो ….मैं अर्जुन को आज छोड़ूँगा नही । श्रीकृष्ण उद्धव को संकेत में कहते हैं ….कह दो , आपका ही रथ अर्जुन ले गया …उसी में सुभद्रा को ले गया है । श्रीबलभद्र ने श्रीकृष्ण को देखा ….वो अब सब समझ गये थे …सच बता कृष्ण ! सब तेरा किया है ना ? श्रीकृष्ण ने कहा …बड़े भैया ! अर्जुन ठीक है …अपनी बहन भी उसे चाहती है ….दिक्कत कहाँ है ? दिक्कत तुझ से है …..चल ! दाऊ भैया अपने साथ श्रीकृष्ण को लेकर अर्जुन के पास गए तो अर्जुन डर गया ….भैया ! मेरी गलती नही है …मुझे श्रीकृष्ण ने कहा था ….श्रीबलराम हंसे ….मुझे पता है ये श्रीकृष्ण का किया न होता तो अर्जुन आज तुम मेरे हाथों से बचते नही । शुकदेव कहते हैं ….फिर अपनी बहन का इन दोनों भाइयों ने अर्जुन के साथ विवाह करवाया ।
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Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
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श्लोक 10 . 23
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रुद्राणां शङ्करश्र्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् |
वसूनां पावकश्र्चास्मि मेरू: शिखरिणामहम् || २३ ||
रुद्राणाम् – समस्त रुद्रों में; शङकरः – शिवजी; च – भी; अस्मि – हूँ; वित्त-ईशः – देवताओं का कोषाध्यक्ष; यक्ष-रक्षसाम् – यक्षों तथा राक्षसों में; वसूनाम् – वसुओं में; पावकः – अग्नि; च – भी; अस्मि – हूँ; मेरुः – मेरु; शिखरिणाम् – समस्त पर्वतों में; अहम् – मैं हूँ |
भावार्थ
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मैं समस्त रुद्रों में शिव हूँ, यक्षों तथा राक्षसों में सम्पत्ति का देवता (कुबेर) हूँ, वसुओं में अग्नि हूँ और समस्त पर्वतों में मेरु हूँ |
तात्पर्य
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ग्यारह रुद्रों में शंकर या शिव प्रमुख हैं | वे भगवान् के अवतार हैं, जिन पर ब्रह्माण्ड के तमोगुण का भार है | यक्षों तथा राक्षसों के नायक कुबेर हैं जो देवताओं के कोषाध्यक्ष तथा भगवान् के प्रतिनिधि हैं | मेरु पर्वत अपनी समृद्ध सम्पदा के लिए विख्यात है |
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] Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (53)
तेरी किरपा से संवारे सब कुछ है मैंने पा लिया,
जब से मिला है दर तेरा जीना है मुझको आ गया
तेरी किरपा से संवारे सब कुछ है मैंने पा लिया,
मैं तो गमो की धुप में बेखोफ चल रहा,
पल पल में मेरा संवारा किस्मत बदल रहा,
तेरी किरपा ने संवारे,मेरा हर डर मिटा दियां,
तेरी किरपा से संवारे सब कुछ है मैंने पा लिया,
मैंने तो अपनी जीवन नैया कर दी तेरे हवाले,
अब तो तेरी है मर्जी तू दोबरा पार लगा दे,
मेरा खोया भरोसा तूने पल में जगा दियां ,
तेरी किरपा से संवारे सब कुछ है मैंने पा लिया,
मैंने तो जब भी संवारे तुम को है पुकारा,
आके मेरे श्याम ने मुझको दिया सहारा,
मेरे उदास मन को तूने पल में हसा दियां ,
तेरी किरपा से संवारे सब कुछ है मैंने पा लिया,
आँखों में आंसू भगतो के नही देखता बिहारी,
भगतो का मान रखते है मेरे मोहन बिहारी,
मैंने तो श्याम चरणों में मन को लगा लिया,
तेरी किरपा से संवारे सब कुछ है मैंने पा लिया,
भक्तसुता का सीमन्त ( नरसीजी रो भात )
इस प्रकार भजन करते-करते भक्तराज तन्मय हो गये । उधर उपस्थित स्त्रियों में भक्त राज के इस कार्य के विषय में चर्चा होने लगी । एक स्त्री ने कहा- “आप देखो, इस वैरागियों को । क्या यही चीर देने का ढंग है ? इस प्रकार गाने – नाच से भला भगवान आकर चीर दे जायँगे ? ‘
‘तुम्हें इतना भी मालूम नहीं ? अरे, पास में रखा हुआ शंख और गोपीचन्दन तो हमें मिल ही जाएगा।’ दूसरी ने हंसते हुए कहा ।
यह सुनकर सभी स्त्रियाँ हँस पङ़ी । ‘कुँवरबाई लज्जा और अपमान के मारे सिकुङ़ गयी, सोचने लगी धरती फटे तो उसमें समा जाऊँ । परंतु बेचारी मौन रहने के सिवा और इस समय कर ही क्या सकती थी ? ‘एक धर्मपरायणा
अनुभवी वृद्धा स्त्री ने सबको मना करते हुए कहा- “भगवान के ऐस एकान्तिक भक्त की हँसी नहीं उङ़ानी चाहिये । मालूम नही वे क्या लीला कर डाले । भगवान की सच्ची भक्ति के बल पर क्या नहीं हो सकता ? क्या तुम लोगों ने द्रोपदी के चीर बढ़ने की बात नही सुनी है ? “
जगत में समलोचकों की कोई कमी नहीं । प्रत्येक मनुष्य चाहे उसे कुछ जानकारी हो या ना हो अपनी बुद्धि के अनुसार दूसरे की समालोचना करता ही रहता है । समालोचना की इतनी प्रबल बाढ़ चला करती है कि यदि साधक अस्थिर चितवाला हो तो उसे पथभ्रष्ट होते भी देर नहीं लगती ।
भक्तराज नरसि़ंहराम तो ऐसी सांसारिक बाधाओं से एकदम परे थे, उन्हें इतनी कहाँ फुर्सत थी कि वह दूसरों की समालोचना सुनते ? वह तो तन्मय होकर बस भगवान का आवाहन कर रहे थे । आखिर उनकी एकमुखी दीन पुकार सात लोकों को भेदकर दिव्य भगवदधाम में पहुँच ही गयी और भक्तवत्सल भगवान तत्काल भक्त का कार्य करन, के लिये तीव्र गति से चल पड़े ।
सच कहता हु मैं कसम से,
सोने चांदी न धन से करलो सेवा तन मन से,
मिलते है श्याम भजन से,
कन्हैया तो प्रेम का भूखा है,
जो प्रेम है ये उसका है,
दुनिया की दौलत से कान्हा खुश नहीं होते,
वरना ये पैसे वाले इसको खरीद ही लेते,
इसे अपने घर ले जाके जो चाहते सो करवाते,
कन्हैया तो प्रेम का भूखा है,
जो प्रेम है ये उसका है,
नरसी करमा मीरा ने दौलत नहीं दिखाई,
इसी लिये तो उनको देते श्याम दिखाई,
सूखे टंगुल भी चबाये प्रभु साग विधुर घर आये ,
कन्हैया तो प्रेम का भूखा है,
जो प्रेम है ये उसका है,
झूठा प्रेम किया तो चौक श्याम को लगती,
रूठ गये अगर बाबा बिक जाये ये हस्ती,
संजू करले तू भक्ति लुटे गा हर पल मस्ती,
कन्हैया तो प्रेम का भूखा है,
जो प्रेम है ये उसका है,
‘ भक्तराज का कीर्तन समाप्त होते ही मंगल गीत गाती हुई अनेकों दिव्य वस्त्रा भूषणों से सुसज्जित दिव्य तेजोमयी सुन्दरियों के साथ के सेठ के रूप में स्वंय भगवान ने संस्कार-मण्डल में प्रवेश किया । इस रहस्य को दूसरा कोई नहीं जान सका । जानता भी कैसे ? इन चर्म चक्षुओं के द्वारा योगमाया समावृत भगवान के दिव्य विग्रह के दिव्य दर्शन दूसरों को कैसे हो सकते थे ? ‘
भक्तराज भगवान को पहचान कर उनके चरणों पर लौट गये । सेठ रूपी भगवान ने अपना परिचय देते हुए श्रीरंगधर मेहता से कहा – “श्रीरंगधर जी ! नरसि़ंहजी मेरे अभिन्न सखा है । मैं द्वारिका में रहकर इनके साझे में व्यापार करता हूँ । मेरी सारी सम्पति इन्हीं की कृपा का फल है। “
इतना कहकर सेठ जी ने अपने ही हाथों समस्त सम्बन्धियों को अमूल्य वस्त्राभूषण प्रदान किये । जाति-प्रथा से बहुत अधिक ढ़ेर-के -ढेर चीर प्रदान करके उन्होंने सबको सन्तुष्ट किया । सभी उपस्थित लोगों ने विस्मय के साथ इस लीला को देखा और सबने भक्तराज की भूरि-भूरि प्रशंसा की ।
( बोलों लीलाधर भगवान श्रीकृष्ण की जय )
भक्तराज ने गदगद कण्ठ से भगवान का हार्दिक स्वागत किया । श्रीरंगधर के आग्रह करने पर भगवान ने उस दिन उनका -आतिथ्य स्वीकार किया और दूसरे दिन वहाँ से विदा होकर अन्तर्हित हो गये। साधु-मण्डली के साथ भक्तराज भी जूनागढ़़ लौट आये ।
क्रमशः ………………!


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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877