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July 6, 2025 7:57 am

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श्री जगन्नाथ मंदिर सेवा संस्थान दुनेठा दमण ने जगन्नाथ भगवान की रथ यात्रा दुनेठा मंदिर से गुंडीचा मंदिर अमर कॉम्प्लेक्स तक किया था यात्रा 27 जुन को शुरु हुई थी, 5 जुलाई तक गुंडीचा मंदिर मे पुजा अर्चना तथा भजन कीर्तन होते रहे यात्रा की शुरुआत से लेकर सभी भक्तजनों ने सहयोग दिया था संस्थान के मुख्या श्रीमति अंजलि नंदा के मार्गदर्शन से सम्पन्न हुआ

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#श्रीसीतारामशरणम्मम /(28-2),भक्त नरसी मेहता चरित (54),महान कौन ?भागवत की कहानी – 53 & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

#श्रीसीतारामशरणम्मम /(28-2),भक्त नरसी मेहता चरित (54),महान कौन ?भागवत की कहानी – 53 & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣8️⃣
भाग 2

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

रनिवास हास बिलास रस बस, जनम को फलु सब लहैं….
📙( #रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏

#मैवैदेही ! ……………._

ये कहकर सारी सखियाँ कोहवर में ताली बजा बजा कर हँसनें लगीं ।

फिर तुरन्त दूसरी सखी बोली …………..इनकी माता भी ऐसे ही गर्भवती हुयी थीं…………….ये ऐसे ही खीर से पैदा हुए हैं ………..

तो चक्रवर्ती जी का कोई काम नही ………………..

तीसरी सखी पेट पकड़ कर हँसते हुए पूछ रही थी ।

ना जी ! चक्रवर्ती जी का कोई काम नही….ये तो खीर खानें से हुए हैं ।

पर सखियों की बातें सुनकर …………

मेरे रघुनन्दन मुस्कुरा रहे थे…….और मुझे खीर खिला रहे थे ।


अब चलो ! अब चलो सखियों इनको विध्न न करो ……….

मेरी सबसे चंचल सखी चन्द्रकला ही सबको पकड़ कर बोली ।

हाँ हाँ …..सही कह रही हो …….रात भी बीती जा रही है ………..सुबह इन्हें जल्दी उठना भी है ……..फिर इनकी आँखें लोग देखेंगें तो कहेंगें रात भर क्या करते रहे जी ! उनींदी आँखें हैं !

ये कहते हुए सारी सखियाँ फिर हँस पडीं ………………….

चलो अब निकलो…..नही तो हमारी सिया सुकुमारी रिसाय जाएँगी ।

सब जानें लगीं ………..मैने लम्बी साँस ली …………राहत की ।

पर ………..

……..सिया जू ! एक विधि तो अंतिम रह ही गयी …………

चन्द्रकला फिर बाहर से आयी ।

अब कौन सी विधि रह गयी है ? मुझे हँसी आयी …..ये बात मेरे श्रीरघुनंदन बोले थे ….सारी विवाह की विधि तो हो गयीं ना !

बड़ी जल्दी मिलनें की पड़ी है…….मिल लेना ….पूरी रात बाकी है…….अब तुम्हारी ही है, हमारी ये बहन सिया सुकुमारी ।

मुझे हँसी आरही थी……….मै अंदर ही अंदर हँसे जा रही थी ।

विधि रह गयी है अब अंतिम, और इस विवाह विधि का नाम है –

“बाती जुड़ावन”

ये कहते हुये चन्द्रकला एक थाल में दो बाती जलाकर मंगवाती है ।

हे दूल्हा कुँवर ! अब इन दो बाती को एक करके, आप दोनों एक हो इस बात को प्रमाणित कर दो ……..

चन्द्रकला नें श्रीरघुनन्दन से कहा ।

नेग क्या दोगी सखी ! अब बारी श्रीरघुनन्दन की थी ।

मै दोनों बातीयों को एक कर दूँगा …..पर इसके बदलें मुझे भी नेग चाहिए ……बोलो ?

क्रमशः ….
शेष चरिञ अगले भाग में……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱

Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (54)


🕉🌌🙏🙏🌌🕉🙇‍♀👏
हे बाँके बिहारी मुझे देना सहारा,
कही छुट जाए ना दामन तुम्हारा
तेरे सिवा दिल मैं समाए ना कोई
,लगन का यह दीपक बुझाये ना
कोई,तू ही मेरी कस्ती तू ही है किनारा,
कही छुट जाए ना दामन तुम्हारा👏🙇‍♀*

॥द्वेषका प्रतिकार ॥

मनुष्य के जीवन में कोई एक बात भी विचित्र हो जाती है तो उसकी ख्याति सर्वत्र फैल जाती है, फिर जिसका सारा जीवन ही रहस्यमय हो, अपूर्व हो, वह भला कबतक संसार की आँखों से अपने को छिपा सकता है ? भक्तश्रेष्ठ नरसि़ंहराम जबसे बड़े भाई से अलग हुए थे तभी से उनका जीवन दुनिया की दृष्टि में रहस्यमय हो रहा था । रोजगार कुछ भी नहीं, दिन -रात भजन-कीर्तन में लगे रहते थे, वेष गरीबों-सा था, परंतु अवसर आने पर उनका खर्च देखते ही बनता था, बड़े -बङ़े श्रीमन्तों के यहाँ भी सम्भवतः उस ढ़ग से कार्य नहीं होता था । सब लोग इस बात पर हैरान थे कि आखिर यह मामला क्या है ।

*”जब पुत्री का सीमन्त सम्पन्न कराके नरसि़ंहजी लौटे तब उनका यश और भी अधिक बढ़ गया । सर्वत्र उन्हीं की चर्चा होने लगी । किन्तु इस सुयश को उनकी जाति के ईषर्यालु लोग कैसे सह सकते थे ? नरसि़ंहराम की बड़ाई सुनकर उन्हें मानो जूड़ी चढ़ आयी और वे इस रोग की जड़ ही काटने की चिन्ता में लग गये । उच्च मनुष्य की बराबरी न कर सकने पर दुष्ट मनुष्य ईषर्यावश उसे किसी भाँति नीचे गिराकर भी अपनी बङ़ाई बचाने की व्यर्थ चेष्टा किया करते है ।

‘*परंतु ऐसे लोगों के कारण ‘ सत्यपुरुषों की कभी तनिक भी हानि नही होती, वरं उनकी प्रतिष्ठा और भी बढ़ जाती है ‘ और ऐसा प्रत्यन करने वालों को ही उलटे मुँह की खानी पङ़ती है । फिर भी दुर्जन अपनी मूढ़तावश बाज नहीं आते ।
*’नागर – जाति के कुछ लोगों ने एक षड्यन्त्र रचा, जिसमें सारंगधर और नरसि़ंहराम के बड़े भाई वंशीधर भी शामिल थे । उन लोगों ने शहर की सबसे मशहूर और सुन्दरी वेश्या चंचला को रुपयों का लालच देकर भक्तराज के पास उन्हें अपने मोहपाश में फंसाने के लिये भेजा।’

  • सायंकाल का समय था । संध्याकाल की पूजा ,आरती इत्यादि समाप्त करके साधु – मण्डली के बीच में उपस्थित होकर भक्तराज हरि-कीर्तन करने की तैयारी कर रहे थे । धूप -पुष्प की सुवास और भगवान के सान्निध्य के कारण वहाँ का वातावरण बड़ा ही पवित्र और आनन्दमय हो रहा था ।

ठीक इसी समय श्वेत वस्त्र धारण किये, ‘गोपीचन्दन का तिलक किये और गले में तुलसी की माला पहने चंचला ने भक्तराज के घर में प्रवेश किया । उस समय वह एक भक्तिमती साध्वी की तरह शोभा दे रही थी । उपस्थित सन्तों को ‘ जय श्रीकृष्ण ‘ करके वह एक और बैठ गयी और बड़े भाव के साथ सबके संग मिलकर हरि-कीर्तन करने लगी । सभी साधु, यहाँ तक कि स्वंय भक्तराज भी मन्त्रमुग्ध की तरह उसकी तन्मयता देखने लगे ।’

मिल जय गो सावंरिया तू राधे राधे राधे गाये जा,

जिसने राधे नाम लियो मेरा श्याम उसे मिल जाये,
अरे जन्म जन्म के पाप कटे जो सच्ची प्रीत लगाए,
तेरी पार करे नैया तू राधे राधे गाये जा,

राधे जी को देख श्याम वो बन बैठा था ग्वाला,
राधा जी के पीछे पीछे रहता बंसी वाला,
बड़ी श्याम से राधे मैया तू राधे राधे गाये जा,

मनिहारी का बेष बना कर श्याम गए बरसाने,
चूड़ी लेलो चूड़ी लेलो ऐसे बने दीवाने,
ये सच है टाबरिया तू राधे राधे गाये जा,

राधे के बिन श्याम मिले न सुन लो बात हमारी,
श्याम शरण में जाना है तो जप लो राधे प्यारी,
ये सितारा कहे भाइयाँ तू राधे राधे गाये जा,

भजन समाप्त होने पर भक्तराज ने चंचला से प्रश्न किया – “बहन ! आपका शुभ निवास कहाँ है ?”

चंचला ने अपना मिथ्या परिचय दिया- “मेरा निवास प्रभास-क्षेत्र में है, मैं द्वारिकाजी जा रही हूँ । आपका नाम सुनकर एक कार्य के लिये मैं आपके पास आयी हूँ ।”

‘ऐसा कौन-सा कार्य है जिसके लिये आपको मेरे पास आने की जरूरत पङ़ी ?’ भक्तराज ने विस्मय के साथ प्रश्न किया ? । चंचला ने उत्तर दिया -” मैं एक दान लेने की इच्छा से यहाँ आयी हूँ ।”

भक्तराज ने सरलता पूर्वक खा -” साध्वी ! यदि तुम्हें किसी तरह का दान लेने की इच्छा है तो तुम किसी श्रीमन्त के घर पर जाओ । मेरे पास तो इस करताल, मृदंग और गोपीचन्दन के अतिरिक्त और कोई भी वस्तु नहीं है ।” चंचला ने विनय दिखाते हुये कहा –

*”भक्तराज ! जो वस्तु मैं आपसे लेना चाहती हूँ , उसे मैं और किसी से लेना नहीं चाहती । यदि आप मेरे ऊपर कृपा करें तो मैं कृतकृत्य हो जाऊँगी । भक्तराज नरसीराम ने उदासीनता पूर्वक कहा –

“अच्छा बोलो, तुम्हें किस वस्तु की चाह है ? यदि भगवान की इच्छा हुई तो मिल जायगी ।” चंचला ने कहा – “आपकी आज्ञा हो गयी बस, इस समय इतना ही पर्याप्त है । पीछे समय आने पर मैं आपसे माँग लूँगी ।”

क्रमशः ……]

Niru Ashra: महान कौन ?

भागवत की कहानी – 53


महान कौन ?

ये प्रश्न उठा था सतयुग में । बड़े बड़े ऋषियों की सभा लगी थी उस काल में , सतयुग का वह पावन काल था ..निसर्ग पूर्ण शुद्धता में स्थित था …सरस्वती नदी का पवित्र तट …वहाँ ऋषियों की सभा लगी थी ….और वहाँ प्रश्न ये उठा था कि तीनों देवों में महान कौन ? क्या सृष्टिकर्ता महान ? संहार कर्ता महान ? या पालन करने वाला ? लेकिन इसका उत्तर कौन देगा ? ऋषियों ने ये भी पूछा ।

बिना शोध किए किसी भी निर्णय पर नही पहुँचा जा सकता । ये बात वशिष्ठ ऋषि ने कही थी ।

तो शोध करने के लिए कौन जाएगा ? शोध नही परीक्षा ही होगी उन तीनों देवों की …ये बात ऋषि भृगु ने कही थी । “तो ऋषि भृगु ही जायें”…ऋषि अंगिरा ने कहा ….ऋषि अंगिरा की बात सबने स्वीकार करी …..ऋषि भृगु निर्भय हैं , ये किसी से डरते नही ।

“ये सभा यहीं स्थगित कर दी जाती है, क्यों की ऋषि भृगु आकर अब जो निर्णय देंगे वही हम सबको मान्य होगा”….ऋषि वशिष्ठ ने ये कहकर सभा स्थगित करी थी ।

ऋषि भृगु वहाँ से चल दिये थे ….तीनों देवों की परीक्षा लेने ।


हे ऋषियों ! श्रेष्ठत्व केवल शक्ति में नही हैं …किसी का संहार कर देना ये श्रेष्ठ होने के लक्षण नही हैं…न सृष्टि उत्पन्न करना ही है । ऋषि भृगु तीनों देवों की परीक्षा करके लौटे थे …और वो अपना निर्णय सुना रहे थे …..ये मेरा निर्णय नही है …ये तो अनादि सत्य है …..श्रेष्ठ तो वो है जो पालन कर रहा है ….क्यों कि पालन में – जीवन की सुव्यवस्था में ….क्षमा सबसे पहली जरुरत होती है ….दूसरी आवश्यकता है – नम्रता …ऋषि भृगु कहते हैं अगर नम्रता नही है ….तो जीवन की सुव्यवस्था आपसे सम्भव नही है । और इसके बाद आवश्यकता होती है उदारता की ….आपके भीतर उदारता के गुण हैं ? ऋषि कहते हैं …जिनमें उदारता हों , जिनमें क्षमा हो और जिनमें नम्रता भरी हुई हो ….परम श्रेष्ठ वही हैं …किन्तु ऋषि भृगु ! आपने परीक्षा कैसे ली ? ऋषि अंगिरा ने पूछा था ।


ऋषि भृगु ब्रह्मा के पुत्र हैं …इसलिए त्रिदेवों में उनकी ही परीक्षा लेने की ऋषि ने पहले सोची और चले गये सभा से सीधे ब्रह्मलोक । सृष्टिकर्ता ब्रह्मा सृष्टिकार्य में व्यस्त थे ….किन्तु अपने पुत्र भृगु को आते हुए उन्होंने देख लिया था …इसलिए वो प्रसन्न थे ….पुत्र भृगु अपने पिता ब्रह्मा के चरण छुऐंगे और पिता आशीर्वाद देंगे ….ब्रह्मा आशीर्वाद देने को तैयार ही थे ….लेकिन पुत्र भृगु ने तो हाथ भी न जोड़े ….न किंचित भी सिर अपना झुकाया ….

इतना अहंकार अपने तप का !

ब्रह्मा का क्रोध से मुखमण्डल अरुण हो गया था …कोई और होता तो शायद शाप भी दे देते ब्रह्मा , लेकिन ये तो अपना ही पुत्र भृगु है …बेचारे ब्रह्मा शाप भी न दे सके । ऋषि भृगु सब कुछ समझ गए कि …पिता ब्रह्मा तो क्रोध के कारण अपने स्वरूप से विचलित हो गए हैं …..इसलिए वहाँ से चलना ही उचित समझा ऋषि ने । ये अब सीधे पहुँचे थे कैलाश में …भगवान शंकर के यहाँ ।

“ना , मुझे स्पर्श मत करना मैं अपवित्र हो जाऊँगा”….कैलाश में पहुँचते ही भगवान शंकर ने ऋषि भृगु को देखा था तो वो आनंदित होते हुए उठे थे और ऋषि को जैसे ही अपने हृदय से लगाने के लिए आगे बढ़े …….ना , मुझे स्पर्श मत करना ! तुम गंदे हो , शमशान में रहते हो …मुंड माल गले में धारण करते हो …..इसलिए मुझे स्पर्श भी मत करना । ऋषि भृगु के ये कहते ही ….भगवान रूद्र तो क्रोधित हो उठे , उनके हाथों में त्रिशूल आगया उन्होंने त्रिशूल जैसे ही घुमाई …ऋषि भृगु तो वहाँ से भाग गये , लेकिन माता पार्वती ने शिव को सम्भाला था ।

साँस फूल गयी थी ऋषि की ….कैलाश से भागना जो पड़ा था ऋषि को …..

अब कहाँ जायें ? अब तो बस नारायण ही बचे हैं ….ऋषि विचार करने लगे …ये दोनों देव तो क्रोध के वश में हैं …चलो अब देखते हैं नारायण को …चल दिए भृगु ऋषि क्षीरसागर की ओर ।

कौन रोकेगा ऋषि को ..जय विजय ने भी द्वार पर भृगु ऋषि का अभिनन्दन किया था ….ये भीतर चले गये …तो भीतर जाकर ऋषि ने देखा …..नारायण भगवान शयन कर रहे हैं क्षीरसागर में ….चरण महालक्ष्मी दबा रही हैं ….परम शान्त भगवान नारायण के अर्ध नेत्र खुले हैं ।

ऋषि ने इधर देखा न उधर , सीधे जाकर अपने चरण का प्रहार भगवान नारायण के वक्षस्थल में किया था …..अब ऋषि को प्रतीक्षा थी कि – ये अब क्या करेंगे ?

भगवान नारायण उठे ……ऋषि भृगु की ओर देखा ….फिर उनके चरण की ओर …..नेत्रों में करुणा भर आये करुणा निधान के ….तात ! आपके चरण बड़े कोमल हैं …और मेरा हृदय बड़ा ही कठोर ….मेरे कठोर हृदय के कारण आपके चरणों में चोट लगी होगी ना ! हाथ जोड़कर क्षमा माँगने लगे भगवान नारायण …..आपके चरण बड़े ही दुर्लभ हैं ….ये तो आपकी कृपा है कि मुझे ये चरण मिले …..किन्तु हे ऋषि ! अपराध मुझ से हुआ कि इन कोमल चरणों को हृदय कोमल नही मिला ….इसलिए मुझे क्षमा कीजिएगा ।

ओह ! भगवान नारायण के मुखारविंद से ये सब सुनकर ऋषि भृगु का हृदय भर आया ….उन्होंने साष्टांग प्रणाम किया …..और श्रीहरि के गुणों को गाते हुए ये लौट कर उसी सरस्वती के तट पर आगये थे ।

तो कौन है त्रिदेवों में श्रेष्ठ ?

सभी ऋषियों ने पूछा …..ऋषि भृगु बोले ….भगवान नारायण ! क्यों ? समस्त ऋषियों का एक स्वर में ये प्रश्न था ।

क्यों कि हे ऋषियों ! श्रेष्ठत्व शक्ति में नही है …न जीवन के सृष्टि करने में है …न जीवन के संहार में ….श्रेष्ठत्व तो है जीवन की सुव्यवस्था में …और वो सुव्यवस्था आती है “क्षमा” से ….ऋषि भृगु भगवान नारायण का स्मरण करके आनंदित हैं …उनका रोम रोम नारायण भगवान के “क्षमा”को स्मरण करके आनंदित हो रहा है …”उदारता” श्रेष्ठ बनाती है जीवन को । मुस्कुराए ऋषि भृगु …”नम्रता” के बिना आप श्रेष्ठ बनने से बहुत दूर होते हैं …और हे ऋषियों ! ये सारे गुण भगवान नारायण में हैं …उनमें क्षमा है …मेरे चरण प्रहार को भी उन्होंने अपना अपराध बताया …और नम्रता इतनी कि मेरे चरणों को पकड़ कर वो बिलख उठे कि …चोट तो नही लगी ! और उदारता तो इतनी कि स्नेह पूरा मुझ पर ही उढ़ेल दिया था ।

अब सारे ऋषियों ने भगवान नारायण को वहीं से प्रणाम किया और ऋषि भृगु का आभार जताया । ऋषि भृगु तो गदगद हैं …भगवान नारायण का स्मरण करके …..शुकदेव कहते हैं ……….
[

Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
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श्लोक 10 . 24
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पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् |
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः || २४ ||

पुरोधसाम् – समस्त पुरोहितों में; च – भी; मुख्यम् – प्रमुख; माम् – मुझको; विद्धि – जानो; पार्थ – हे पृथापुत्र; ब्रहस्पतिम् – ब्रहस्पति; सेनानीनाम् – समस्त सेनानायकों में से; अहम् – मैं हूँ; स्कन्दः – कार्तिकेय; सरसाम् – समस्त जलाशयों में; अस्मि – मैं हूँ; सागरः – समुद्र |

भावार्थ
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हे अर्जुन! मुझे समस्त पुरोहितों में मुख्य पुरोहित ब्रहस्पति जानो | मैं ही समस्त सेनानायकों में कार्तिकेय हूँ और समस्त जलाशयों में समुद्र हूँ |

तात्पर्य
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इन्द्र स्वर्ग का प्रमुख देवता है और स्वर्ग का राजा कहलाता है | जिस लोक में उसका शासन है वह इन्द्रलोक कहलाता है | ब्रहस्पति राजा इन्द्र के पुरोहित हैं और चूँकि इन्द्र समस्त राजाओं का प्रधान है, इसीलिए ब्रहस्पति समस्त पुरोहितों में मुख्य हैं | जैसे इन्द्र सभी राजाओं के प्रमुख हैं, इसी प्रकार पार्वती तथा शिव के पुत्र स्कन्द या कार्तिकेय समस्त सेनापतियों के प्रधान हैं | समस्त जलाशयों में समुद्र सबसे बड़ा है | कृष्ण के ये स्वरूप उनकी महानता के ही सूचक हैं |


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