🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣8️⃣
भाग 3
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
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रनिवास हास बिलास रस बस, जनम को फलु सब लहैं….
📙( #रामचरितमानस )📙
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#मैवैदेही ! ……………._
हे दूल्हा कुँवर ! अब इन दो बाती को एक करके, आप दोनों एक हो इस बात को प्रमाणित कर दो ……..
चन्द्रकला नें श्रीरघुनन्दन से कहा ।
नेग क्या दोगी सखी ! अब बारी श्रीरघुनन्दन की थी ।
मै दोनों बातीयों को एक कर दूँगा …..पर इसके बदलें मुझे भी नेग चाहिए ……बोलो ?
बैठ गयी मेरी वो चन्द्रकला हम दोनों के पांवों में …………नेत्रों से झरझर अश्रु बहनें लगे थे उसके …………….हिलकियाँ छूट पड़ी थीं ।
हम क्या देंगी आपको कुँवर ? हमारे प्राण सिया जू को आप ले जारहे हो ……..इनसे कीमती और कुछ हो सकता है क्या ?
हमारे जीवन का खजाना …….हमारे जीवन की पूंजी …….हमारे जीवन की निधि ……सब कुछ तो दे दिया हमनें आपको ……अब आपको हम क्या दें ……..हम अपनी इन सिया बहन के बिना गरीब हैं …दरिद्र हैं …… हमारे पास कुछ नही है हे रघुवर !
देखो ! अब तक तुम मांगती रहीं हम देते रहे ………बस हम नें एक बार क्या माँगा ……..तुम रोनें लगीं !
…….मेरे रघुनन्दन अभी से जनकपुर के वातावरण को विरह युक्त नही बनाना चाहते थे ।
आँसुओं को पोंछा मेरी चन्द्रकला नें ……..माँगिये कुँवर ! माँगिये !
कुछ नही ……….बस ये राम, तुम मिथिलानियों से इतना ही चाहता है कि जितना प्रेम तुम लोग अपनी बहन से करते हो ………उस प्रेम का दसवां हिस्सा इस राम से भी कर लेना ।………ओह ! कितनी प्रेमपूर्ण बात कही थी मेरी सखियों से मेरे प्राणेश नें ।
फिर प्रेम के अश्रु छलक पड़े थे ……..मेरी चन्द्रकला की अँखियों से ।
हे कुँवर ! कैसी बात कह दी आपनें ………..सिया हमारी प्राण हैं तो हे कुँवर ! आप उन प्राणों के भी प्राण हो ……….फिर आपनें कैसे कह दिया कि दसवें हिस्से का प्रेम मुझे देना ………अरे ! प्यारे कुँवर !
दसवें हिस्से का प्रेम नही ………..बल्कि सिया जू से जितना प्रेम करती हैं उससे ज्यादा ही करेंगी …..क्यों की हमारी सिया के आप प्राण हो ।
अब हम भी कुछ माँगें ………………..
सारी मेरी आठों सखियाँ हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी थीं मेरे रघुनन्दन
के आगे ……………………
हाँ हाँ …..माँगो ! क्या चाहिए ?
सबके नेत्रों से गंगा जमुना बहनें लगे थे ………………….
माँगों ना ………! मेरे रघुनन्दन बोले जा रहे थे…… माँगो ना !
पर भावातिरेक के कारण कण्ठ अवरुद्ध हो गए थे मेरी सखियों के ।
क्या चाहिए ? बोलो …………………फिर कहा रघुनन्दन नें ।
रुंधे कण्ठ से सब यही बोलीं ………………..
“”या मिथिले में तू रहिजैयो , या अपनें संग लेहुना””
यहीं रहो ना कुवँर ! हमारी किशोरी के साथ । सदैव यहीं रहो ना ……………
ऐसे ही हमें नयन भर देखनें को मिले आप दोनों की छवि ……..।
“”हे पहुना ! अब मिथिले में रहुना “”
शेष चरिञ अगले भाग में……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: “यदुवंश को शाप”
भागवत की कहानी – 54
शुकदेव कहते हैं –
सब लीला है भगवान श्रीकृष्ण की, पहले लीला का विस्तार, अब लीला को विश्राम ।
पृथ्वी का भार दूर करना ही श्रीकृष्णावतार का मुख्य हेतु है । हो गया पृथ्वी का भार दूर । और महाभारत युद्ध ने तो पृथ्वी के भार को बिल्कुल ही समाप्त कर दिया था …महाभारत का युद्ध श्रीकृष्ण ने भार दूर करने के लिए ही किया था । श्रीकृष्ण निश्चिन्त थे …उनकी पृथ्वी कितना हल्का अनुभव कर रही होगी कि – उसी समय श्रीकृष्ण का कुल ही पृथ्वी का भार बनकर प्रकट होने लगा । करोगे क्या ? अतिशक्ति जहाँ इकट्ठी होगी वहाँ अहंकार आएगा ही ..आया अहंकार । सबके अहंकार को तोड़ने वाले श्रीकृष्ण अपने ही परिवार में आरहे अहंकार से विचलित हो उठे थे । और अहंकार दिनों दिन इन यदुवंशियों का बढ़ता ही जा रहा था ।
हे परीक्षित !
भगवान श्रीकृष्ण ने अब कठोर निर्णय लिया ..ये निर्णय अपने परिवार को लेकर था ।
तभी देवताओं ने भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति की …..श्रीकृष्ण ने आकाश की ओर देखा तो बस यही बोले ….हे देवताओं ! क्या चाहते हो ? आप अपने धाम वैकुण्ठ पधारें ! क्यों कि प्रभो ! जिस लक्ष्य को लेकर आप अवतार धारण किए थे , उस पृथ्वी का भार तो दूर हो ही गया है । देवताओं के मुख से ये सुनकर भगवान श्रीकृष्ण हंसे …..फिर बोले – हे देवों ! सबसे बड़ा पृथ्वी का भार तो अब मेरा परिवार ही बन गया है …..क्यों कि अहंकार हिंसा के लिए प्रेरित करता है । और मेरे परिवारीजनों का तो अहंकार चरम में पहुँच चुका है । देवताओं ने शान्त भाव से भगवान की बात सुनी ….फिर भगवदचरणों में पुष्प अर्पित करते हुए सब लोग वहाँ से चले गए थे ।
भगवान श्रीकृष्ण इन दिनों लोगों से कम ही मिल रहे हैं …ये केवल ऋषि-मुनियों से मिलते हैं या दीन-दुखियों से ….राजाओं से और अपने परिवारी जनों से तो बिल्कुल ही नही । महाराजा उग्रसेन ने श्रीकृष्ण से पूछा था कि – मैं यदुवंश के मंगल के लिए एक यज्ञ का आयोजन करने जा रहा हूँ ……द्वारिका के निकट पिंडारक क्षेत्र में । श्रीकृष्ण ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि …..महाराज ! मैं नही आऊँगा ….इन दिनों में एकान्तवास में रह रहा हूँ ….लेकिन आप यज्ञ का आयोजन कीजिए …..मेरे पास ऋषि-मुनि विराजें हैं मैं इन सबको आपके पास भेज रहा हूँ यही आपके यज्ञ की शोभा होंगे । फिर वहाँ उपस्थित देवर्षि नारद , दुर्वासा , भृगु , अंगिरा , कश्यप , वामदेव , अत्रि आदि सबको श्रीकृष्ण ने प्रणाम करके प्रार्थना की ….आप महाराज उग्रसेन द्वारा आयोजित यज्ञ में पधारें …उन्होंने आपको निमन्त्रण दिया है । ये सुनकर ऋषिजन सब श्रीकृष्ण प्रणाम करके जहाँ यज्ञ का आयोजन होने वाला था वहीं पहुँच गये । अक्रूर आदि ने समुद्र के किनारे ही निवास की व्यवस्था बनाई है ….वहीं सन्तों को ठहराया गया था ।
ये तो श्रीकृष्ण का प्रपौत्र है, और ऐसे यज्ञ आयोजन में मदिरा का सेवन ? एक ऋषि ने देख लिया तो उन्होंने दूसरे ऋषि से कहा । जहाँ धनमद होता है वहाँ इन दुर्गुणों को देखा जा सकता है ।
छी श्रीकृष्ण के पुत्र ऐसे ? ऋषियों ने नाम भौं सिकोड़ लिए थे ….जो स्वाभाविक भी था भगवान श्रीकृष्ण की संतति ऐसी ?
ये सब देख रहा था महारानी जाम्बवती का पुत्र साम्ब । ये भी मदिरा पीया हुआ था ….इसको चिढ़ हो गयी इन ऋषियों से ….कि देखो – हमारे दक्षिणा में पलने वाले और हममें ही दोष दर्शन कर रहे हैं । उसनें अन्य बालकों को बुलाया फिर सबके कान में कुछ कुछ कहा …मत्त तो सब थे ही …मदिरा की मत्तता ही नही …मूल मत्तता थी धन की , यश की, अपराजितेय होने की । विश्व में कोई ऐसा नही था जो इन यदुवंशियों को कुछ बोल भी दे …इनके पास संख्या बल बहुत था और धन बल तो था ही …शक्ति इनके पास अपार हो गयी थी । इसलिए तो जाम्बवती का पुत्र साम्ब अहंकार से भर गया …..इन बाबाओं की ये हिम्मत कि – हम लोगों को कुछ भी बोल रहे हैं !
शुकदेव कहते हैं –
प्रमादी हो गया है यदुवंश , इस कुल के लोगों में अहंकार अत्यधिक बढ़ चुका है ।
“श्रीकृष्णनाम में बहुत सामर्थ्य है …श्रीकृष्णनाम मंगलों का भी मंगल है ….श्रीकृष्ण का वह रूप माया के झूठे रूपों से हमें बचाता है , संसार की लीलाओं में हम फंसे हैं …उलझे हैं ….इन सब प्रपंचो से बचना है तो श्रीकृष्ण की लीला का आनन्द लो” ।
आहा ! सन्ध्या की वेला थी …यज्ञ आज का हो गया था ….ऋषिगण आज देवर्षि नारद को लेकर बैठ गये थे और नारद जी से श्रीकृष्ण विषयक प्रश्न किया था जिसका उत्तर नारद जी दे रहे थे ।
तभी – महाराज ! महाराज !
श्रीकृष्ण के पुत्र पौत्र पहुँच गये थे इन्हीं ऋषियों के सत्संग में ।
साम्ब दुल्हन बना था …..नई दुल्हन । उसे साड़ी पहनाकर और गर्भवती बनाकर लाया गया था ।
महाराज ! ओ महात्मा जी ! दो तीन श्रीकृष्ण पुत्र नारद जी को ही छेड़ रहे थे किन्तु ये संत तो भगवान के गुणानुवाद में ही मग्न थे । नारद जी ने और अंगिरा जी ने एक दो बार हटाना चाहा उन लड़कों को …लेकिन ये मानने वाले कहाँ थे …मदिरा और पीये हुए थे । महाराज ! बताओ ना , ये गर्भवती है इसके पेट में लड़का है या लड़की ? झुँझला कर नारद जी बोले …तुम लोग जाओ यहाँ से …क्यों हमें परेशान कर रहे हो । किन्तु ये उद्दण्ड हो गये थे ….ये मानने वाले नही थे ….इसलिए फिर सन्तों को छेड़ने लगे …..क्या है ? झुँझला गए थे ऋषि वामदेव । इसके गर्भ में जो है वो पुत्र या पुत्री ? ये पूछते हुए सब श्रीकृष्ण पुत्र हंसते जा रहे थे ।
“न पुत्र न पुत्री , हे कृष्ण पुत्रों ! इस के गर्भ से वो लौह पिण्ड निकलेगा जो तुम्हारे यदुवंश का संहार करेगा”। इतना कहकर ऋषिगण वहाँ से उठ गये । श्रीकृष्ण पुत्रों की दशा विचित्र हो गयी थी ….वो सब डर से काँप रहे थे ….उनके समझ में नही आरहा था कि अब क्या करें ! तभी साम्ब की साड़ी हटाकर देखा गया तो सच में ही ….लौह पिण्ड निकल रहा था ….साम्ब भी दर्द से चिल्ला उठा था । शुकदेव कहते हैं – यही तो सब श्रीकृष्ण की लीला थी । आज अपने ही कुल को शाप दिला दिया था भगवान श्रीकृष्ण ने ।
Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (55)
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कैसे आऊं मैं कन्हाई,
तेरी गोकुल नगरी बड़ी दूर नगरी कान्हा दूर नगरी,
बड़ी दूर नगरी कान्हा दूर नगरी, बड़ी दूर नगरी
रात में आऊं तो कान्हा, डर मोहे लागे दिन में आऊं तो,
देखे सारी नगरी बड़ी दूर नगरी*
मनुष्य जीवन अविधाओ का नाश कर सिद्धाधाक सेवन करना है
विकारी मनुष्यों की दृष्टि में सभी मनुष्य अपने -जैसे विकारी ही दिखाई देते है। वे शूद्ध मनुष्य को भी विकारी ही मान बैठते हैं । शूद्ध मनुष्य के ज्ञान युक्त शब्द भी उनको विकार के सूचक मालूम होते है और वे उनका उलटा अर्थ लगाकर अपना अभीष्ट सिद्ध करने का प्रयत्न करते है । ‘चंचला ने भी भक्तराज के शब्दों का उलटा ही अर्थ लगाया। उसने समझा, भक्तराज ने मेरे रुप पर मोहित होकर ही मेरी याचना स्वीकार की है । ‘
भजन समाप्त होने पर सब लोग अपने -अपने आसन पर जाकर सो गये । चंचला को भी भक्तराज ने एक उपयुक्त स्थान सोने के लिये दिखा दिया । अन्त में वह भी मन्दिर के दरवाजे पर अपना आसन लगाकर सो गये । धीरे -धीरे सब लोग गहरी निद्रा में डूब गये । परंतु चंचला पर निद्रा देवी ने कृपा नहीं की, वह तो अपने स्वार्थ -साधन की चिन्ता में उपयुक्त समय की प्रतीक्षा कर रही थी ।
आधी रात बीत जाने पर जब चंचला को विश्वास हो गया कि अब कोई जगा नहीं होगा, तब उसने अपने सादे कपड़े उतार कर सुन्दर -सुन्दर वस्त्राभूषण धारण कये। उस समय उसकी मुखाकृति, शरीर की गठन और श्रृंगार देखने से वह कोई देवांगना – सी प्रतीत हो रही थी।
वह अपने आसन से उठी और मन्दगति से भक्तराज के आसन के पास आयी । उसके चरणों की नूपुर -ध्वनि सुनकर भक्तराज जग उठे ।
” कौन है, इस समय ?” भक्तराज ने प्रश्न किया।
” मैं वही हूँ जो आपके साथ भजन कर रही थी। ” चंचला ने उतर दिया ।
” फिर इस समय तुम यहाँ क्यों आयी ? ” भक्तराज ने पुणःप्रश्न किया।
“नरसि़ंहराम जी ! मैं आज आपके पास ऋतुदान लेने आयी हूँ, जिसके लिये आपसे शाम को मैंने प्रार्थना की थी । मैं अन्य किसी वस्तु की इच्छा नहीं करती आप ……*।’ चंचला ने कहा ।
चंचला की निर्लज्जता को देखकर नरसि़ंहराम अवाक हो गये । उनके मुहँ से केवल ‘ हरि-हरि ‘ शब्द निकल पड़ा ।
चंचला ने पुनः अधीर होकर कहा- “भक्तराज ! आप अब मुझे अधिक न सताइये ,शीघ्र मेरी मनोकामना पूरी करके मुझे सन्तुष्ट कीजिये । “
नरसीराम जी का सर्वस जीवन ही प्रभु चरणो में अर्पित है बोले-
*”साध्वी ! तुम यह क्या कह रही हो ? क्या मेरे पास तुम यही दान लेने के लिये आयी हो ? साधु का स्वाँग धारण कर ऐसा नीच विचार मन में भी रखने से मनुष्य पाप का भागी बनता है और अन्त में अधःपतन के गहरे गर्त में गिरता है । मनुष्य -जीवन पाप करने के लिये नहीं, अक्षय पुण्य का उपार्जन करने के लिये है, व्यभिचार के लिये नहीं , संयम के लिये है, वासना की तृप्ति के लिये नहीं, शुद्ध सात्विक प्रेम प्राप्त करने के लिए है, चरित्र का सर्वनाश करने के लिए, सच्चरित्रता का संग्रह करने के लिए है, अविधा की उपासना करना मनुष्य -जीवन का लक्ष्य नहीं है, बल्कि अविधा का नाश कर सिद्विधाक सेवन करना ह
सुनो श्याम सूंदर छमा मांगता हु,
हुई जो खतायें उन्हें मान ता हु
गलती के पुतले इंसान है हम,
भले है भूरे है तेरी संतान है हम,
दया के हो सागर मैं जानता हु,
हुई जो खतायें उन्हें मान ता हु
कश्ती को मेरी साहिल नहीं है,
तुम्हारे चरण के हम काबिल नहीं है,
काबिल बनाओ गे ये मांगता हु,
हुई जो खतायें उन्हें मान ता हु
सूरज की गलती को दिल पे ना लेना,
सजा जो भी चाहो श्याम हमे तुम देना,
करुणा निधि हो तुम पहचानता हु,
हुई जो खतायें उन्हें मान ता हु
क्रमशः ………………!
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
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श्लोक 10 . 25
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महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् |
यज्ञानां जपयज्ञोSस्मि स्थावराणां हिमालयः || २५ ||
महा-ऋषीणाम् – महर्षियों में; भृगुः – भृगु; अहम् – मैं हूँ; गिराम् – वाणी में; अस्मि – हूँ; एकम्-अक्षरम् – प्रणव; यज्ञानाम् – समस्त यज्ञों में; जप-यज्ञः – कीर्तन, जप; अस्मि – हूँ; स्थावराणाम् – जड़ पदार्थों में; हिमालयः – हिमालय पर्वत |
भावार्थ
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मैं महर्षियों में भृगु हूँ, वाणी में दिव्य ओंकार हूँ, समस्त यज्ञों में पवित्र नाम का कीर्तन (जप) तथा समस्त अचलों में हिमालय हूँ |
तात्पर्य
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ब्रह्माण्ड के प्रथम ब्रह्मा ने विभिन्न योनियों के विस्तार के लिए कई पुत्र उत्पन्न किये | इनमें से भृगु सबसे शक्तिशाली मुनि थे | समस्त दिव्य ध्वनियों में ओंकार कृष्ण का रूप है | समस्त यज्ञों में हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे | हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – का जप कृष्ण का सर्वाधिक शुद्ध रूप है | कभी-कभी पशु यज्ञ की भी संस्तुति की जाती है, किन्तु हरे कृष्ण यज्ञ में हिंसा का प्रश्न ही नहीं उठता | यह सबसे सरल तथा शुद्धतम यज्ञ है | समस्त जगत में जो कुछ शुभ है, वह कृष्ण का रूप है | अतः संसार का सबसे बड़ा पर्वत हिमालय भी उन्हीं का स्वरूप है | पिछले श्लोक में मेरु का उल्लेख हुआ है, परन्तु मेरु तो कभी-कभी सचल होता है, लेकिन हिमालय कभी चल नहीं है | अतः हिमालय मेरु से बढ़कर है |
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877