🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम _🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣9️⃣
भाग 1
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
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#अवधनाथचाहतचलन ……..
📙( रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏
#मै_वैदेही ! ……………._
अब रोना है ………..अब बस आँसू बहेँगेँ ……….इन नयनों से ।
ऋषि वाल्मीकि कहते हैं रामायण “करुण रस” है ………ठीक कहते हैं ।
वो तो मेरे पुत्रों को ही ये रामायण गान सिखानें के लिए , रामायण लिख रहे हैं……..और उनका कहना है कि विश्व् में मेरी महिमा उजागर होगी इससे ………..मै महिला नही …..मै महिमा हूँ ………ऐसा ऋषि वाल्मीक का कहना है………हाँ ………..सही में “महिमा” मै ही हूँ ……..।
महि यानि धरती ………और धरती ( महि ) जिसकी माँ हो वही तो महिमा है ….उसी की तो “महिमा” है ।
कैसे लिखूँ आगे के चरित्र को ? क्या लिखूँ ?
वह दृष्य, क्या मै इस लेखनी से उतार पाऊँगी ………….
अब मुझे जाना होगा अवध……….मेरे प्राण जहाँ हैं मै वहीँ तो हूँ ।
मेरी वो विदाई का करुण प्रसंग ……………….।
स्नान इत्यादि करके निवृत्त हुए …….वस्त्राभूषण धारण करके हम दोनों गए थे माता पिता के पास ……………चरणों में जाकर हम दोनों नें प्रणाम किया था चक्रवर्ती ससुर जी को …………….अखण्ड सौभाग्यवती भवः । यही आशीर्वाद दिया था उन्होंने ।
मेरे पिता महाराज विदेह खड़े थे हाथ जोड़े हुए ……….मेरी माता सुनयना आँसू बहाये जा रही थीं …………
श्रीरघुनन्दन नें जाकर मेरे पिता जी को प्रणाम किया ………….अपनें हृदय से लगा लिया था …….श्री रघुनन्दन को ।
मुझे ? मै गयी अपनें पिता जी के पास ……………थक गए हैं अब ये ………कई दिनों से सोये नही हैं ………….आँखें बता रही हैं ………।
सिया का विवाह ……मेरी लाड़ली का विवाह ……..मेरी लली का विवाह अच्छे से होना चाहिए …………….लगे रहे थे दिन रात !
मैने पास में जाकर अपनें पिता जी की आँखों में देखा ………..वो नजरें चुरानें लगे थे ………मानों ऐसा नाटक करनें लगे थे जैसे उनकी आँखों में कुछ गिर गया है ………….मै समझ गयी थी …………बादल उमड़ रहे हैं …….पानी भर गया है लवालव ………….कब बरस पड़ें कोई पता नही ………..और इस विदाई की वेला में ………….इस विरह सागर में कितनें डूबेंगे कितनें उबरेंगे पता नही ………।
अब आज्ञा दीजिये …………हम लोग जाना चाहते हैं …………..
इतना क्या कहा चक्रवर्ती सम्राट श्री दशरथ जी नें ………मेरे पिता जी बिलख उठे थे ……………अभी कुछ दिन और रुक जाते …….!
बस इतना ही बोल पाये थे ।
महाराज ! आप तो महाज्ञानी हैं ………बेटी का विवाह करके, विदा करना ही पड़ता है …..यही रीत है ………..।
मै ज्ञानी हूँ ? पर हे चक्रवर्ती महाराज ! मेरा ज्ञान पता नही आज कहाँ चला गया …………अपनी सिया पुत्री को देखकर ही मै सम्भल नही पा रहा हूँ ……………इसको मै विदा करूँ ?
अपनें कलेजे को काट कर न फेंक दूँ ……………….
मेरी धड़कन है ये सिया ……..ये अगर गयी तो कहीं मेरी धड़कन ही न रुक जाय ।
चक्रवर्ती महाराज नें जैसे तैसे मेरे पिता जी को समझाया ।
पर महल के बाहर भीड़ लग गयी थी मेरे जनकपुर वासियों की ।
मुझे जो आशंका थी वो होंनें ही वाला था …………ऐसे कैसे अपनी लाड़ली को मेरे जनकपुर वाले जानें देते ……….
एक एक बच्चा तक मेरी विदाई में उपस्थित था ……..और सब रो रहे थे …….सबके आँखों में आँसू भरे थे …………
नही नही मेरी विदाई का विरह मात्र जनकपुर के नर नारियों को ही था ऐसा नही है …….जनकपुर के पशु पक्षी भी सब व्याकुल हो उठे थे ।
“पिया के देश चली, रुला रुला के सिया”
सब यही गा रहे थे ………….
क्रमशः….
#शेषचरिञ_अगलेभागमें………._
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra
क्रमशः ………………!
[6/27, 10:16 PM] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂
श्लोक 10 . 26
🍂🍂🍂🍂
अश्र्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः |
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः || २६ ||
अश्र्वत्थः – अश्र्वत्थ वृक्ष; सर्व-वृक्षाणाम् – सारे वृक्षों में; देव-ऋषिणाम् – समस्त देवर्षियों में; च – तथा; नारदः – नारद; गन्धर्वाणाम् – गन्धर्वलोक के वासियों में; चित्ररथः – चित्ररथ; सिद्धानाम् – समस्त सिद्धि प्राप्त हुओं में; कपिलः-मुनिः – कपिल मुनि |
भावार्थ
🍂🍂🍂
मैं समस्त वृक्षों में अश्र्वत्थ हूँ और देवर्षियों में नारद हूँ | मैं गन्धर्वों में चित्ररथ हूँ और सिद्ध पुरुषों में कपिल मुनि हूँ |
तात्पर्य
🍂🍂
अश्र्वत्थ वृक्ष सबसे ऊँचा तथा सुन्दर वृक्ष है, जिसे भारत में लोग नित्यप्रति नियमपूर्वक पूजते हैं | देवताओं में नारद विश्र्वभर में सबसे बड़े भक्त माने जाते हैं और पूजित होते हैं | इस प्रकार वे भक्त के रूप में कृष्ण के स्वरूप हैं | गन्धर्वलोक ऐसे निवासियों से पूर्ण है, जो बहुत अच्छा गाते हैं, जिनमें से चित्ररथ सर्वश्रेष्ठ गायक है | सिद्ध पुरुषों में से देवहुति के पुत्र कपिल मुनि कृष्ण के प्रतिनिधि हैं | वे कृष्ण के अवतार माने जाते हैं | इसका दर्शन भागवत में उल्लिखित है | बाद में भी एक अन्य कपिल प्रसिद्द हुए, किन्तु वे नास्तिक थे, अतः इन दोनों में महान अन्तर है |
[6/27, 10:16 PM] Niru Ashra: “भागवत धर्म”
भागवत की कहानी – 55
भागवत धर्म क्या है ? ये प्रश्न महाराज विदेह ने नवयोगेश्वरों से किया था ।
ये नवयोगेश्वर भगवान ऋषभदेव के पुत्र हैं …वैराग्य इनके मन में इतना प्रवल था कि भारत वर्ष जैसी राज्यसत्ता को त्याग कर ये महात्मा बन गये थे । ये आनन्दमूर्ति थे ….ये एक जगह रुकते नही …निरन्तर भ्रमणशील थे । आज भ्रमण करते हुए ये मिथिला पुरी पहुँच गए थे …तो राजा विदेह ने उठकर इनका बहुत आदर किया …अर्घ्यपाद्य आदि से पूजन किया …..फिर हाथ जोड़कर इनसे कहने लगे थे ….”दुर्लभ तो इस जगत में ये मानव शरीर है …..और आश्चर्य ये कि दुर्लभ होने के बाद भी ये मानव शरीर क्षणभंगुर है …..लेकिन महात्मन ! सबसे दुर्लभ तो यहाँ सन्तों का संग है …आप जैसे महात्माओं के दर्शन हैं । मुस्कुराए नवयोगेश्वर ….फिर सहज बोले – आप भगवान के भक्त हैं ….इसलिए आपकी समस्त प्राणियों के प्रति श्रद्धा है …जो भगवान का भक्त होता है वो चराचर में ही भगवान का दर्शन कर लेता है ….इसी प्रकार आप भी हे विदेह ! समस्त में भगवान को देख रहे हैं ….और आपके मन में प्रकट हुई श्रद्धा भी यही भाव प्रकट कर रही है …जो भगवान को भी अत्यन्त प्रिय है । नवयोगेश्वर इतना कहकर मौन हो गये थे ….तब हाथ जोड़कर विदेहराज ने पूछा …..हे महात्मन ! अभी आपने कहा ….भक्ति समस्त में भगवान का दर्शन करा देती है …हृदय के कुभाव को सुन्दर बनाकर भगवान को आकर्षित कर लेती है ….तो भक्ति और भक्त – ये भागवत हैं । ‘भक्त’ को ही ‘भागवत’ कहा जाता है …और भक्ति के नियमों को भागवत धर्म कहने की ऋषियों की परम्परा रही है …इसलिए हे महात्मन ! ये बताइय “भागवत धर्म” का स्वरूप क्या है ? और भगवान धर्म का अधिकारी कौन है ?
“अच्युत” की ओर बढ़ना यही भागवत धर्म है ।
और “च्युत” की ओर बढ़ना सांसारिक धर्म है ।
अच्युत मानें ….जिसका कभी पतन नही होता , जो गिरता नही है ।
और च्युत मानें ….जो गिरा हुआ है , गिरेगा , और गिरा ही रहेगा उसे ही कहते हैं च्युत ….नवयोगेश्वरों ने महाराज विदेह को समझाया था ।
हे राजन ! अपना मूल्यांकन स्वयं करो ….तुम किस ओर बढ़ रहे हो ….जिसका कभी पतन होगा नही …उसकी ओर …या जिसका पतन हो रहा है …उसकी ओर ? नवयोगेश्वरों ने आगे कहा – भगवान का नाम ही है अच्युत ….इनका कभी पतन नही होता …इसलिए इनके आश्रित जो हो जाते हैं…उनका भी पतन नही होता । महाराज विदेह ये सुनकर आनंदित हो उठे थे उन्होंने आगे पूछा – निर्भयता कैसे आवे ? “भागवत धर्म से”…..नवयोगेश्वर बोले ….विश्व में दो ही तो धर्म हैं एक स्मार्त और दूसरा भागवत …..हे राजन ! स्मार्त धर्म क्रिया प्रधान है …लेकिन भागवत धर्म क्रिया प्रधान नही भाव प्रधान है…इसलिए भगवदभाव के माध्यम से साधक समस्त जागतिक भावों का अतिक्रमण करते हुये वो भगवान में ही स्थिर हो जाता है …ये विशेषता है भागवत धर्म की …..नवयोगेश्वरों ने कहा । हे महात्मन ! इस बात को स्पष्ट कीजिए …कि कैसे भाव के माध्यम से साधक उन्नत होता है भागवत धर्म में । महाराज विदेह के ये पूछने पर नवयोगेश्वर बोले ……भाव करो ….तुम्हारे सामने भगवान खड़े हैं …..तुम उनके चरणों को टकटकी लगाकर देख रहे हो ….अरुण चरण हैं …..नख से ज्योत प्रकट हो रही है …..और उन चरणों से तुलसी की सुगन्ध वातावरण को सुरभित बना रही है …..भाव करो कि – तुमने उन जगत के भय से मुक्त करने वाले चरणों का आश्रय ले लिया है ….अब भला किसका डर ? नवयोगेश्वर कहते हैं ….भगवान तो हमारे सबसे अधिक निकट हैं …इनके लिए बस भाव की आवश्यकता है ….आप भाव करो …भगवान तुरन्त तुम्हारे सामने प्रकट हो जायेंगे । नवयोगेश्वर बोले …..स्मार्त धर्म
कल की बात करती है …पुण्य करो स्वर्ग मिलेगा …यज्ञ करो पुण्य फल से सुख भोगो …लेकिन कल …..भागवत धर्म आज की बात करती है …..आज आप भाव रखो आपको आज ही उसका फल प्राप्त होगा । तत्क्षण । ये विशेषता है इस भागवत धर्म की । अब इसके बाद विदेह फिर प्रश्न करते हैं ….इस भागवत धर्म में क्या नियम हैं ? कैसे चलना पड़ता है ? विधि निषेध इस धर्म के क्या हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में नवयोगेश्वर कहते हैं – हे राजन ! कोई नियम नही हैं इस भागवत धर्म के ….जैसे भी चलना चाहो इस धर्म में चल सकते हो ? सहज बोलते हैं नवयोगेश्वर ….चाहे आँखें खोलकर चलो या आँखें बन्दकर के चलो ……आँखें खोलकर यानि वैदिक मार्ग का अनुसरण और आँखें बंद का मतलब …वैदिक मार्ग का पालन नही …..अब चाहे कुछ भी करो ….लेकिन इस मार्ग में चलो । महाराज विदेह हंसे ….आँखें मूँदकर चलेंगे तो गिरेंगे नहीं ? वैदिक मार्ग को त्याग देंगे तो पतन नही होगा ? नवयोगेश्वर कहते हैं …..कुछ नही होगा …आँखें बन्दकरके चलोगे तो गिरोगे भी तो भगवान के चरणों में ही गिरोगे । बस एक शर्त है ….क्या ? “मेरे भगवान हैं , मैं भगवान का हूँ”…..ये भाव दृढ़ हो …फिर चाहे कुछ भी करो तुम्हारा कभी पतन नही होगा ….और पतन होने वाला भी होगा तो भगवान सम्भाल लेंगे ।
भागवत धर्म ये है कि सारा कर्म एक मात्र भगवान के लिए करें …….यही शर्त है ….बाकी आप कुछ भी करें ….सब भागवत धर्म ही होगा । इसके बाद महाराज विदेह ने नवयोगेश्वरों का पूजन किया …..फिर आकाश मार्ग से नवयोगेश्वर भगवदगुणानुवाद गाते हुये चले गए थे ।
[6/27, 10:16 PM] Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (56)
विष्याशक्ति ( तृष्णा ) का समस्त जीवन में शमन नही होता
नरसीराम चंचला से कहते है –
लब्धवा कथज्चन्नरजन्म दुर्लभ
तत्रापि पुंस्तवं श्रुतिपारदर्शनम् ।
यस्तवात्ममुक्तयै न यतेत मूढधीः
स आत्महा स्वं विनिहन्तयसद्ग्रहात् ।।
अर्थात, पूर्वोपार्जित पुण्य के प्रभाव से यह दुर्लभ मनुष्य देह तथा वेद ज्ञान सम्पन्न पुरूषत्व प्राप्त होने पर भी जो मूढ़बुद्धि मनुष्य मोक्ष के लिये प्रयत्न नहीं करता, वह आत्मघाती मनुष्य असत्-संसार को ग्रहण करके स्वयं अपना नाश करता है ।
“साध्वी ! विषयों की तृष्णा, संसार के अन्य पदार्थों की तृष्णा तथा मान-कीर्ति आदि की तृष्णा मनुष्य को बलात् नरक की ओर ले जाती है । फिर यदि एक बार इन तृष्णाओं की पूर्ति भी कर दी जाय तो मनुष्य को उनसे शाश्वत सुख कदापि नहीं मिल सकता । बल्कि इन तृष्णाओं को प्रोत्साहन देने से ये और भी बढ़ती है । उम्र बीत जाती है, शरीर बूढ़ा हो जाता है, परंतु तृष्णा बूढ़ी नहीं होती । यह कामना की आग विषय रुपी इँधन से बुझती नहीं, ज्यादा धधकती है और मनुष्य की समस्त सुख -शान्ति को भस्म करके फिर से जन्म -मरण के भयानक चक्कर में डाल देती है । अतएव इस तृष्णा का नाश करना ही मोक्ष का प्रधान साधन है, भोगों की प्राप्ति से तृष्णा का नाश करना ही मोक्ष का प्रधान साधन है, भोगों की प्राप्ति से तृष्णा का शमन नहीं होता । क्युकिं—–
न जात काम कामानामुपभोगन शिकायती।
हविषा कृष्णवत्मेर्व भूय एवाभिवधर्त।।
‘घृत की आहूति से अग्नि विशेष प्रज्वलित होती है, इसी प्रकार इच्छाओं की तृप्ति करने से भयंकर रूप धारण करके मनुष्य का सत्यानाश करने में सहायता करती है ।’
संसार भी एक प्रकार का महारोग है, उसको दूर करने के लिये भगवन्नामस्वरुप दिव्य ओषधि बड़ा ही उपकार करने वाली है । परंतु उस ओषधिसेवन के साथ -साथ विषयादि रुप कुपथ्य का सेवन करते रहने से नये-नये रोग के अंकुर उत्पन्न होते रहते है और इसलिये महारोग का नष्ट होना कष्टसाध्य हो जाता है । इतना ही नही , विषयाशक्ति के बढ़ जाने से भगवन्नाम छूट जाता है और यह महारोग सन्निपात का भीषण स्वरुप धारण कर लेता है
जीहदे कॉल बेहन तो जग डर दा ओहदे घर विच रोनका तू लावे,
जह्नु औरत भी न कोई आखे माँ उस नु कहावे,
जीहदे कॉल बेहन तो जग डर दा
बोली विच जो इशनान करे,
सिर ऊंचा कर दुनिया ते फिरे,
ओह्दी जिंदगी माने खुशिया नु,
बैठे उस बुट्टे दी छावे,
जीहदे कॉल बेहन तो जग डर दा
बे आसे आस ओ ले जंडे जिद्दी झोली विच फल पे जांदे,
भवे पतझड़ छाई हॉवे खिड़ पेंदे फूल जे तू चावे ,
जीहदे कॉल बेहन तो जग डर दा
सिद्ध जोगियां दा सर मान है बावा लाल तनु वरदान है एह,
या रब या तू ही कर सकदा अनहोनी होनी हो जावे,
जीहदे कॉल बेहन तो जग डर दा
बोली दा पानी अमृत है इस दे विच तेरी रेहमत है,
सुख देव बरस ती है सबते तू देर लगाइ न नाले,
जीहदे कॉल बेहन तो जग डर दा
क्रमशः ………………!
[Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
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श्लोक 10 . 26
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अश्र्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः |
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः || २६ ||
अश्र्वत्थः – अश्र्वत्थ वृक्ष; सर्व-वृक्षाणाम् – सारे वृक्षों में; देव-ऋषिणाम् – समस्त देवर्षियों में; च – तथा; नारदः – नारद; गन्धर्वाणाम् – गन्धर्वलोक के वासियों में; चित्ररथः – चित्ररथ; सिद्धानाम् – समस्त सिद्धि प्राप्त हुओं में; कपिलः-मुनिः – कपिल मुनि |
भावार्थ
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मैं समस्त वृक्षों में अश्र्वत्थ हूँ और देवर्षियों में नारद हूँ | मैं गन्धर्वों में चित्ररथ हूँ और सिद्ध पुरुषों में कपिल मुनि हूँ |
तात्पर्य
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अश्र्वत्थ वृक्ष सबसे ऊँचा तथा सुन्दर वृक्ष है, जिसे भारत में लोग नित्यप्रति नियमपूर्वक पूजते हैं | देवताओं में नारद विश्र्वभर में सबसे बड़े भक्त माने जाते हैं और पूजित होते हैं | इस प्रकार वे भक्त के रूप में कृष्ण के स्वरूप हैं | गन्धर्वलोक ऐसे निवासियों से पूर्ण है, जो बहुत अच्छा गाते हैं, जिनमें से चित्ररथ सर्वश्रेष्ठ गायक है | सिद्ध पुरुषों में से देवहुति के पुत्र कपिल मुनि कृष्ण के प्रतिनिधि हैं | वे कृष्ण के अवतार माने जाते हैं | इसका दर्शन भागवत में उल्लिखित है | बाद में भी एक अन्य कपिल प्रसिद्द हुए, किन्तु वे नास्तिक थे, अतः इन दोनों में महान अन्तर है |।
“भागवत धर्म”
भागवत की कहानी – 55
भागवत धर्म क्या है ? ये प्रश्न महाराज विदेह ने नवयोगेश्वरों से किया था ।
ये नवयोगेश्वर भगवान ऋषभदेव के पुत्र हैं …वैराग्य इनके मन में इतना प्रवल था कि भारत वर्ष जैसी राज्यसत्ता को त्याग कर ये महात्मा बन गये थे । ये आनन्दमूर्ति थे ….ये एक जगह रुकते नही …निरन्तर भ्रमणशील थे । आज भ्रमण करते हुए ये मिथिला पुरी पहुँच गए थे …तो राजा विदेह ने उठकर इनका बहुत आदर किया …अर्घ्यपाद्य आदि से पूजन किया …..फिर हाथ जोड़कर इनसे कहने लगे थे ….”दुर्लभ तो इस जगत में ये मानव शरीर है …..और आश्चर्य ये कि दुर्लभ होने के बाद भी ये मानव शरीर क्षणभंगुर है …..लेकिन महात्मन ! सबसे दुर्लभ तो यहाँ सन्तों का संग है …आप जैसे महात्माओं के दर्शन हैं । मुस्कुराए नवयोगेश्वर ….फिर सहज बोले – आप भगवान के भक्त हैं ….इसलिए आपकी समस्त प्राणियों के प्रति श्रद्धा है …जो भगवान का भक्त होता है वो चराचर में ही भगवान का दर्शन कर लेता है ….इसी प्रकार आप भी हे विदेह ! समस्त में भगवान को देख रहे हैं ….और आपके मन में प्रकट हुई श्रद्धा भी यही भाव प्रकट कर रही है …जो भगवान को भी अत्यन्त प्रिय है । नवयोगेश्वर इतना कहकर मौन हो गये थे ….तब हाथ जोड़कर विदेहराज ने पूछा …..हे महात्मन ! अभी आपने कहा ….भक्ति समस्त में भगवान का दर्शन करा देती है …हृदय के कुभाव को सुन्दर बनाकर भगवान को आकर्षित कर लेती है ….तो भक्ति और भक्त – ये भागवत हैं । ‘भक्त’ को ही ‘भागवत’ कहा जाता है …और भक्ति के नियमों को भागवत धर्म कहने की ऋषियों की परम्परा रही है …इसलिए हे महात्मन ! ये बताइय “भागवत धर्म” का स्वरूप क्या है ? और भगवान धर्म का अधिकारी कौन है ?
“अच्युत” की ओर बढ़ना यही भागवत धर्म है ।
और “च्युत” की ओर बढ़ना सांसारिक धर्म है ।
अच्युत मानें ….जिसका कभी पतन नही होता , जो गिरता नही है ।
और च्युत मानें ….जो गिरा हुआ है , गिरेगा , और गिरा ही रहेगा उसे ही कहते हैं च्युत ….नवयोगेश्वरों ने महाराज विदेह को समझाया था ।
हे राजन ! अपना मूल्यांकन स्वयं करो ….तुम किस ओर बढ़ रहे हो ….जिसका कभी पतन होगा नही …उसकी ओर …या जिसका पतन हो रहा है …उसकी ओर ? नवयोगेश्वरों ने आगे कहा – भगवान का नाम ही है अच्युत ….इनका कभी पतन नही होता …इसलिए इनके आश्रित जो हो जाते हैं…उनका भी पतन नही होता । महाराज विदेह ये सुनकर आनंदित हो उठे थे उन्होंने आगे पूछा – निर्भयता कैसे आवे ? “भागवत धर्म से”…..नवयोगेश्वर बोले ….विश्व में दो ही तो धर्म हैं एक स्मार्त और दूसरा भागवत …..हे राजन ! स्मार्त धर्म क्रिया प्रधान है …लेकिन भागवत धर्म क्रिया प्रधान नही भाव प्रधान है…इसलिए भगवदभाव के माध्यम से साधक समस्त जागतिक भावों का अतिक्रमण करते हुये वो भगवान में ही स्थिर हो जाता है …ये विशेषता है भागवत धर्म की …..नवयोगेश्वरों ने कहा । हे महात्मन ! इस बात को स्पष्ट कीजिए …कि कैसे भाव के माध्यम से साधक उन्नत होता है भागवत धर्म में । महाराज विदेह के ये पूछने पर नवयोगेश्वर बोले ……भाव करो ….तुम्हारे सामने भगवान खड़े हैं …..तुम उनके चरणों को टकटकी लगाकर देख रहे हो ….अरुण चरण हैं …..नख से ज्योत प्रकट हो रही है …..और उन चरणों से तुलसी की सुगन्ध वातावरण को सुरभित बना रही है …..भाव करो कि – तुमने उन जगत के भय से मुक्त करने वाले चरणों का आश्रय ले लिया है ….अब भला किसका डर ? नवयोगेश्वर कहते हैं ….भगवान तो हमारे सबसे अधिक निकट हैं …इनके लिए बस भाव की आवश्यकता है ….आप भाव करो …भगवान तुरन्त तुम्हारे सामने प्रकट हो जायेंगे । नवयोगेश्वर बोले …..स्मार्त धर्म
कल की बात करती है …पुण्य करो स्वर्ग मिलेगा …यज्ञ करो पुण्य फल से सुख भोगो …लेकिन कल …..भागवत धर्म आज की बात करती है …..आज आप भाव रखो आपको आज ही उसका फल प्राप्त होगा । तत्क्षण । ये विशेषता है इस भागवत धर्म की । अब इसके बाद विदेह फिर प्रश्न करते हैं ….इस भागवत धर्म में क्या नियम हैं ? कैसे चलना पड़ता है ? विधि निषेध इस धर्म के क्या हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में नवयोगेश्वर कहते हैं – हे राजन ! कोई नियम नही हैं इस भागवत धर्म के ….जैसे भी चलना चाहो इस धर्म में चल सकते हो ? सहज बोलते हैं नवयोगेश्वर ….चाहे आँखें खोलकर चलो या आँखें बन्दकर के चलो ……आँखें खोलकर यानि वैदिक मार्ग का अनुसरण और आँखें बंद का मतलब …वैदिक मार्ग का पालन नही …..अब चाहे कुछ भी करो ….लेकिन इस मार्ग में चलो । महाराज विदेह हंसे ….आँखें मूँदकर चलेंगे तो गिरेंगे नहीं ? वैदिक मार्ग को त्याग देंगे तो पतन नही होगा ? नवयोगेश्वर कहते हैं …..कुछ नही होगा …आँखें बन्दकरके चलोगे तो गिरोगे भी तो भगवान के चरणों में ही गिरोगे । बस एक शर्त है ….क्या ? “मेरे भगवान हैं , मैं भगवान का हूँ”…..ये भाव दृढ़ हो …फिर चाहे कुछ भी करो तुम्हारा कभी पतन नही होगा ….और पतन होने वाला भी होगा तो भगवान सम्भाल लेंगे ।
भागवत धर्म ये है कि सारा कर्म एक मात्र भगवान के लिए करें …….यही शर्त है ….बाकी आप कुछ भी करें ….सब भागवत धर्म ही होगा । इसके बाद महाराज विदेह ने नवयोगेश्वरों का पूजन किया …..फिर आकाश मार्ग से नवयोगेश्वर भगवदगुणानुवाद गाते हुये चले गए थे ।
Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (56)
विष्याशक्ति ( तृष्णा ) का समस्त जीवन में शमन नही होता
नरसीराम चंचला से कहते है –
लब्धवा कथज्चन्नरजन्म दुर्लभ
तत्रापि पुंस्तवं श्रुतिपारदर्शनम् ।
यस्तवात्ममुक्तयै न यतेत मूढधीः
स आत्महा स्वं विनिहन्तयसद्ग्रहात् ।।
अर्थात, पूर्वोपार्जित पुण्य के प्रभाव से यह दुर्लभ मनुष्य देह तथा वेद ज्ञान सम्पन्न पुरूषत्व प्राप्त होने पर भी जो मूढ़बुद्धि मनुष्य मोक्ष के लिये प्रयत्न नहीं करता, वह आत्मघाती मनुष्य असत्-संसार को ग्रहण करके स्वयं अपना नाश करता है ।
“साध्वी ! विषयों की तृष्णा, संसार के अन्य पदार्थों की तृष्णा तथा मान-कीर्ति आदि की तृष्णा मनुष्य को बलात् नरक की ओर ले जाती है । फिर यदि एक बार इन तृष्णाओं की पूर्ति भी कर दी जाय तो मनुष्य को उनसे शाश्वत सुख कदापि नहीं मिल सकता । बल्कि इन तृष्णाओं को प्रोत्साहन देने से ये और भी बढ़ती है । उम्र बीत जाती है, शरीर बूढ़ा हो जाता है, परंतु तृष्णा बूढ़ी नहीं होती । यह कामना की आग विषय रुपी इँधन से बुझती नहीं, ज्यादा धधकती है और मनुष्य की समस्त सुख -शान्ति को भस्म करके फिर से जन्म -मरण के भयानक चक्कर में डाल देती है । अतएव इस तृष्णा का नाश करना ही मोक्ष का प्रधान साधन है, भोगों की प्राप्ति से तृष्णा का नाश करना ही मोक्ष का प्रधान साधन है, भोगों की प्राप्ति से तृष्णा का शमन नहीं होता । क्युकिं—–
न जात काम कामानामुपभोगन शिकायती।
हविषा कृष्णवत्मेर्व भूय एवाभिवधर्त।।
‘घृत की आहूति से अग्नि विशेष प्रज्वलित होती है, इसी प्रकार इच्छाओं की तृप्ति करने से भयंकर रूप धारण करके मनुष्य का सत्यानाश करने में सहायता करती है ।’
संसार भी एक प्रकार का महारोग है, उसको दूर करने के लिये भगवन्नामस्वरुप दिव्य ओषधि बड़ा ही उपकार करने वाली है । परंतु उस ओषधिसेवन के साथ -साथ विषयादि रुप कुपथ्य का सेवन करते रहने से नये-नये रोग के अंकुर उत्पन्न होते रहते है और इसलिये महारोग का नष्ट होना कष्टसाध्य हो जाता है । इतना ही नही , विषयाशक्ति के बढ़ जाने से भगवन्नाम छूट जाता है और यह महारोग सन्निपात का भीषण स्वरुप धारण कर लेता है
जीहदे कॉल बेहन तो जग डर दा ओहदे घर विच रोनका तू लावे,
जह्नु औरत भी न कोई आखे माँ उस नु कहावे,
जीहदे कॉल बेहन तो जग डर दा
बोली विच जो इशनान करे,
सिर ऊंचा कर दुनिया ते फिरे,
ओह्दी जिंदगी माने खुशिया नु,
बैठे उस बुट्टे दी छावे,
जीहदे कॉल बेहन तो जग डर दा
बे आसे आस ओ ले जंडे जिद्दी झोली विच फल पे जांदे,
भवे पतझड़ छाई हॉवे खिड़ पेंदे फूल जे तू चावे ,
जीहदे कॉल बेहन तो जग डर दा
सिद्ध जोगियां दा सर मान है बावा लाल तनु वरदान है एह,
या रब या तू ही कर सकदा अनहोनी होनी हो जावे,
जीहदे कॉल बेहन तो जग डर दा
बोली दा पानी अमृत है इस दे विच तेरी रेहमत है,
सुख देव बरस ती है सबते तू देर लगाइ न नाले,
जीहदे कॉल बेहन तो जग डर दा
क्रमशः ………………!
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
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श्लोक 10 . 26
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अश्र्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः |
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः || २६ ||
अश्र्वत्थः – अश्र्वत्थ वृक्ष; सर्व-वृक्षाणाम् – सारे वृक्षों में; देव-ऋषिणाम् – समस्त देवर्षियों में; च – तथा; नारदः – नारद; गन्धर्वाणाम् – गन्धर्वलोक के वासियों में; चित्ररथः – चित्ररथ; सिद्धानाम् – समस्त सिद्धि प्राप्त हुओं में; कपिलः-मुनिः – कपिल मुनि |
भावार्थ
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मैं समस्त वृक्षों में अश्र्वत्थ हूँ और देवर्षियों में नारद हूँ | मैं गन्धर्वों में चित्ररथ हूँ और सिद्ध पुरुषों में कपिल मुनि हूँ |
तात्पर्य
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अश्र्वत्थ वृक्ष सबसे ऊँचा तथा सुन्दर वृक्ष है, जिसे भारत में लोग नित्यप्रति नियमपूर्वक पूजते हैं | देवताओं में नारद विश्र्वभर में सबसे बड़े भक्त माने जाते हैं और पूजित होते हैं | इस प्रकार वे भक्त के रूप में कृष्ण के स्वरूप हैं | गन्धर्वलोक ऐसे निवासियों से पूर्ण है, जो बहुत अच्छा गाते हैं, जिनमें से चित्ररथ सर्वश्रेष्ठ गायक है | सिद्ध पुरुषों में से देवहुति के पुत्र कपिल मुनि कृष्ण के प्रतिनिधि हैं | वे कृष्ण के अवतार माने जाते हैं | इसका दर्शन भागवत में उल्लिखित है | बाद में भी एक अन्य कपिल प्रसिद्द हुए, किन्तु वे नास्तिक थे, अतः इन दोनों में महान अन्तर है |
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