🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣9️⃣
भाग 2
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
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#अवधनाथचाहतचलन ……..
📙( रामचरितमानस )📙
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#मै_वैदेही ! ……………._
मुझे जो आशंका थी वो होंनें ही वाला था …………ऐसे कैसे अपनी लाड़ली को मेरे जनकपुर वाले जानें देते ……….
एक एक बच्चा तक मेरी विदाई में उपस्थित था ……..और सब रो रहे थे …….सबके आँखों में आँसू भरे थे …………
नही नही मेरी विदाई का विरह मात्र जनकपुर के नर नारियों को ही था ऐसा नही है …….जनकपुर के पशु पक्षी भी सब व्याकुल हो उठे थे ।
“पिया के देश चली, रुला रुला के सिया”
सब यही गा रहे थे ………….
मेरे महल का एक एक सामान मेरी माँ भिजवा रही थीं ……..
रोती जा रही थीं मेरी माँ सुनयना ……..और कहारों से कहतीं एक भी वस्तु यहाँ सिया की मत रहनें दो ………….
ऐसा क्यों कह रही हो महारानी ! जब उनकी सखियाँ ऐसा कहतीं …..तो मेरी माता की हिलकियाँ छूट पड़तीं …….. याद दिलाती रहेंगीं इसकी वस्तुयें ………….इसलिये सब ले जाओ ……।
उस विरह वेदना में कोई तर्क तो होता नही है ना ।
सीते ! सीते ! सीते !
चिल्लानें लगे थे मेरे पाले हुए शुक सारिका ……………..
दौड़ पड़ी थी मेरी माता ………..
सुवर्ण के पिंजरे में रख कर मुझे ही दे दिया था …………
ये दिन रात यही बोलते रहेंगें और हमें जीनें नही देंगें ………..
मेरी माता की जो दशा थी ……….मै उसे कैसे लिखूँ ?
मेरे पिता जी ! वो तो अपनें में ही नही थे ।
ये मेरी लाड़ली है …………….इसका ख्याल रखना …………..
हे रघुनन्दन ! ये बहुत कोमल है …………..इसका ख्याल रखना ।
ये कहते हुए फिर बिलख पड़े थे मेरे पिता जी ।
फिर अपनें आँसुओं को पोंछा था …………लाल आँखें हो गयीं थी मेरे पिता की …..शायद रात भर भी रोये थे …..इस विदा के प्रसंग को सोच कर ……।
हे राम ! तुम ज्ञानियों के साध्य हो ………….हे राम ! तुम भक्तों के हृदय में विराजनें वाले भगवान हो …………मेरा ये सौभाग्य है कि तुम्हारे जैसा दामाद मुझे मिला ………मै धन्य हूँ ………..मेरा ये जनकपुर धन्य है …………..आते रहना ……………
ये कहकर अपना कर श्रीरघुनन्दन के मस्तक में रख दिया था मेरे पिता जी नें ।
तभी मेरी तीनों बहनें भी आगयीं थीं……और उनके पति भी ……
क्रमशः …
#शेषचरिञ_अगलेभागमें……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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*दत्ता त्रेय और चोबीश गुरु *
भागवत की कहानी – 56
वो महात्मा बड़े विलक्षण थे …..मुझ से बोले – अपने तुम ही गुरु हो …मैंने कहा कैसे ? तो वो बोले – “गुरु करो जान के” ये कहा जाता है हम लोगों में …तो इसका मतलब , हमारे लिए ये गुरु ठीक हैं या नही ..ये जाँचने वाले कौन हुये ? तुम ही हुए ना ? तुम गुरु बनाते हो…गुरु जान कर , समझ कर बनाते हो …इसका मतलब गुरुतत्त्व तुम्हारे भीतर ही है ….फिर क्यों इधर उधर गुरु बनाने के चक्कर में डोलते रहते हो ….सर्वत्र तुम्हारा “गुरुतत्व” विराजमान हैं तो ।
अब भागवत में स्वयं जगदगुरु श्रीकृष्ण कहते है अपने प्रिय भक्त उद्धव को ….कि हे उद्धव ! अपना कल्याण स्वयं करो ….कोई और तुम्हारा कल्याण करने नही आयेगा । शुकदेव कहते हैं -परीक्षित ! कितनी अद्भुत बात कही है भगवान श्रीकृष्ण ने – अपना गुरु तो स्वयं ही बनना पड़ता है …बाहर का गुरु कितना भी शक्तिशाली हो …परम सिद्ध हो …किन्तु तुम ही अपने कल्याण पर गम्भीर नही हो तो वो बाहरी गुरु क्या करेगा …तुम्हारा कुछ नही सकता । हे उद्धव ! भगवान ही सर्वत्र विराजमान हैं …वही गुरुतत्व के रूप में भी हैं …इस तरह समझकर भगवद भाव करते हुये चलो और अपना उद्धार स्वयं करो । श्रीकृष्ण यही समझा रहे हैं उद्धव को ।
हे उद्धव – हमारे पूर्वज यदु महाराज एक दिन वन में गए हुए थे तो वहाँ पर उन्होंने देखा एक महात्मा बैठे हुए हैं …शरीर उनका हृष्ट पुष्ट था । वो अपनी मस्ती में बैठे हुए थे ….महाराज यदु पास में गए और उनको प्रणाम किया ….श्रीकृष्ण उद्धव को बता रहे हैं ।
हे महाराज ! मुझे बताइये कि आपके इस आनन्द का कारण क्या है ? आप प्रसन्न हैं ….क्यों ? आप धरती पर सोते हैं ..आकाश ओढ़े हुए हैं …हाथों का तकिया है …फिर भी इतनी प्रसन्नता कैसे ? मुझे देखिए – मैं राजा हूँ ….खूब छप्पन भोग खाता हूँ …..रेशम के गद्दे में सोता हूँ …रथ आदि में चलता हूँ ….फिर भी वो प्रसन्नता मुझ में नही है जो आपमें है …..क्यों ?
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – उद्धव ! राजा यदु के इस प्रश्न पर महात्मा दत्तात्रेय बोले – मनुष्य को सदा सावधान रहना चाहिए यही सावधानी उसे गुरुतत्त्व का साक्षात्कार करा देगी । फिर गुरु और गोविन्द में भेद कहाँ ? इसी सिद्धांत के चलते मैंने अपने जीवन में चौबीस गुरु बनाए हैं …और सबसे मैंने शिक्षा ली है …महात्मा दत्तात्रेय कहते हैं ।
यदु महाराज बोले – आपका तो लोग अपमान भी करते होंगे ना ? तो महात्मा दत्तात्रेय बोले …हाँ करते हैं लेकिन मुझे कोई फर्क नही पड़ता …क्यों कि मैंने पृथ्वी को गुरु बनाया है । दत्तात्रेय महात्मा कहते हैं …पृथ्वी में कितनी सहनशीलता भरी हुई है देखो ….मल मूत्र आदि सबका त्याग हम पृथ्वी में ही करते हैं ..फिर भी वो सदा वात्सल्य ही प्रदान करती रहती है …यही शिक्षा पृथ्वी से मैंने ली । तो मेरी पहली गुरु हैं …पृथ्वी ।
आपके दूसरे गुरु कौन हैं ? यदु राजा के इस प्रश्न पर दत्तात्रेय महाराज कहते हैं – मेरे दूसरे गुरु हैं …वायु । वायु ? आपने वायु से क्या शिक्षा ली ? दत्तात्रेय प्रभु ने कहा –
“भेद दृष्टि नही होनी चाहिए” । सब कुछ उन्हीं का है …और उन्हीं में हैं । ये बात मैंने वायु से सीखी ….कि वायु कहीं भी बहती है ….उसकी दृष्टि में भेद कहाँ । पवित्र अपवित्र वायु कहाँ देखती हैं ।
आपके तीसरे गुरु कौन हैं ? मेरे तीसरे गुरु हैं …आकाश । दत्तात्रेय कहते हैं – आकाश से मैंने शिक्षा ली ….आकाश एक हमारे भीतर भी है और बाहर भी है ….दोनों आकाश में कोई भेद है ? ऐसे ही आत्मा और परमात्मा में भी कोई भेद नही है , यही बात मैंने आकाश से सीखी ।
हे राजन ! मेरे चौथे गुरु हैं …..जल । जल से आपने क्या सीखा ? इस प्रश्न पर दत्त महाराज कहते हैं – जल से मैंने सीखा । जल का स्वभाव शीतल होता है …उसे कितना भी गर्म करो , लेकिन फिर शीतल हो जाएगा , ऐसे ही साधकों को रहना चाहिए ….हमारा स्वरूप शीतल है …शांत है …इस बात को न भूलें …मैंने ये शिक्षा जल से ली ।
आपके पाँचवे गुरु ? राजा यदु के पूछने पर उत्तर दिया महात्मा दत्त ने …मेरे पाँचवे गुरु हैं ….अग्नि । अग्नि ? अग्नि से आपने क्या सीखा ? यदु महाराज ने पूछा तो महात्मा दत्तात्रेय का उत्तर था …जैसे अग्नि में कुछ भी डालो वो सबको भस्म कर देती है …ऐसे ही अपने स्वरूप में अवस्थित होकर साधक सुख दुःख को भस्म करता चले । वो न सुख से विचलित हो न दुःख से ।ये सुनकर यदु महाराज बहुत आनंदित हुए ।
मेरे छठे गुरु हैं , दत्तात्रेय जी बोले – चन्द्रमा । मैंने चन्द्रमा से शिक्षा ली ….उसकी कलाओं में पन्द्रह दिन वृद्धि होती है और पन्द्रह दिन ह्रास …लेकिन चन्द्रमा तो एक समान ही रहता है ….ऐसे ही
शरीर ही घटता बढ़ता रहता है …आत्मा न कभी घटती है न बढ़ती है । यदु महाराज को समझाया दत्तात्रेय जी ने ।
फिर आगे अपने आप ही बोले ….सातवें मेरे गुरु हैं – सूर्य । सूर्य समुद्र से जल लेता है और फिर पृथ्वी में छोड़ देता है …सूर्य की आसक्ति जल में दिखाई नही देती ….ऐसे ही साधक जन अपनी इंद्रियों से विषयों के रस को ले …लेकिन फिर छोड़ दे ….आसक्त ना रहे ….सम रहे ।
आठवें मेरे गुरु हैं ….कबुतर । कबुतर ? यदु महाराज हंसे …बोले ..कबूतर को भी कोई गुरु बनाता है क्या ? महात्मा दत्त बोले ….शिक्षा तो कहीं से भी ली जा सकती है …मैंने कबूतर को गुरु बनाया और उससे शिक्षा ली ……
एक कबूतर था ….महात्मा दत्त तो कहानी सुनाने लगे थे – उसने कबूतरी से विवाह किया …फिर चार पाँच अंडे दिए ….उनमें से बच्चे निकले ….कबूतर और कबूतरी अपने बच्चों के लिए दाने लेने दूर दूर जाते थे ….लेकिन एक दिन एक बहेलिया ने जाल फैलाया ….दाने बिखेरे …कबूतर के बच्चे दाने चुगने के लिए आए ….जाल में फंस गए …कबूतरी आयी ….उसनें देखा मेरे बच्चे जाल में फंस गए हैं …मोहवश जान बूझकर वो भी फंस गयी ….अब कबूतर आया …उसने देखा बच्चे फंसे हैं पत्नी फंस गयी है अब मैं रहकर क्या करूँगा ….वो भी फंस गया …बहेलिया अत्यंत खुश हो गया ….जाल उठाकर सबको लेकर चल दिया ।
ये कहानी सुनाकर महात्मा दत्तात्रेय बहुत हंसे …..उनकी हंसी निश्छल थी । फिर बोले …हम संसारियों की भी यही स्थिति है ….हमारा जन्म संसारी सम्बन्धों में बद्ध होने के लिए नही है …मुक्त होने के लिए हैं …किन्तु हम तो फंसे जा रहे हैं । और जब जानबूझकर भी फंस जाते हैं तो फिर काल रूप बहेलिया तो तैयार है ही ।
आपके नौवें गुरु कौन हैं ?
यदु महाराज को आनन्द आरहा है इन अवधूत दत्तात्रेय जी के सत्संग में ।
मेरे नौवें गुरु हैं ….अजगर । इस बार और विचित्र लगा यदु महाराज को ।
अजगर ? इससे क्या शिक्षा ली आपने ?
गुरु दत्तात्रेय बोले – अजगर से शिक्षा ली …..वो किसी की चाकरी नही करता …उसे जो मिल जाए खा लेता है …ऐसे ही साधक को अजगर की तरह रहना चाहिए …खाने पीने से उदासीन ….जो मिल जाए खा लिया न मिले तो पानी पीकर सो गये ….ये होना चाहिए । हे राजन ! बाहर की वस्तुओं में कुछ नही रखा ….सब मन की तुष्टि और पुष्टि है …बाकी कुछ नही है ।
मेरे दसवें गुरु हैं ….सागर – समुद्र । मैंने सागर से सीखा वो गम्भीर है …वो वर्षा काल में भी सम है और ग्रीष्मकाल में भी सम है …..वो नदियों की तरह बढ़ना घटना नही करता …ऐसे ही सुख आए तो फूल जायें …दुख आए तो सूख जाएँ …साधक को ऐसा नही होना चाहिए ….वो सागर की तरह सम रहे । दत्त प्रभु यही बोले थे ।
ग्यारहवें गुरु मेरे …..पतंगा हैं । पतंगा वो है जो दीपक को देखकर उस पर मंडराता रहता है …उसे लगता है ये दीपक कितना सुन्दर चमक रहा है ….कितना अच्छा है ये ….लेकिन वही दीपक इसका काल बन जाता है ….साधक कामिनी के रूप में आसक्त न हो …..वरना पतंगे की हालत हो जाएगी ……महात्मा दत्तात्रेय बोले ।
बारहवें गुरु मेरे हैं …..भँवरे । हे यदु ! भँवरा रस का लोभी होता है …वो रस के कारण ही कमल में फंस जाता है और रात भर में मारा जाता है …..लोभ से साधक बचे । सहज भाव से गुरु दत्तात्रेय बोल रहे हैं ।
मेरी तेरहवीं गुरु है…मधुमक्खी । मधुमक्खी से मैंने सीखा कि साधकों को अधिक संग्रह नही करनी चाहिए ….जितनी आवश्यकता हो उतना ही । अब मधुमक्खी शहद इकट्ठा करती है लेकिन कोई और आकर उसका शहद ले जाता है ….इसलिए संग्रह से बचे साधक । गुरु दत्तात्रेय
आगे कहते हैं …….चौदहवें गुरु मेरे …..हाथी हैं । हाथी से मैंने सीखा ….नक़ली हथनी बनाकर हाथी को फाँस लिया जाता है …ऐसे ही कामिनी स्त्रियों से साधक बचे …स्त्रियों से ही नही …चित्र में छपी कामिनी स्त्रियों को देखने से भी साधक अपने पतन का मार्ग खोल लेता है ।
मेरा पन्द्रहवां गुरु है……शहद निकालने वाला । इससे मैंने शिक्षा ली कि साधक को संग्रह तो करना ही नही चाहिए …नही तो शहद निकालने वाला ….बहुत हंसे ये कहते हुए दत्तात्रेय प्रभु ।
सोलहवें गुरु हैं मेरे ….हिरण । हिरण से मैंने सीखा ….जिस संगीत में काम चर्चा हो उस संगीत को नही सुननी चाहिए ….क्यों की कान के माध्यम से आपके मन में काम प्रवेश कर जाएगा …हिरण कान का कमजोर होता है …इसलिए फँसता है । गुरु दत्तात्रेय यही बोले थे ।
सत्रहवीं गुरु है मेरी …मछली । मछली जिह्वा के वश में है …इसलिए तो फंसती है …साधक जिह्वा के वश में न हो…..अगर जिह्वा के वश में हुआ तो फँसेगा ही ।
अठारहवीं गुरु मेरी …..पिंगला वेश्या । वेश्या ? इस बात पर यदु महाराज चौंक गये ।
अरे ! महाराज ! वेश्या भी गुरु बनाने लायक है क्या ? तब सहज भाव से दत्तात्रेय महात्मा बोले ….एक वेश्या थी …उसका नाम था पिंगला ….वो सज धज कर बैठती और धनियों के आने की प्रतीक्षा करती …..ये उसका नित्य का नियम था । आज प्रतीक्षा करते करते रात हो गयी और दिन भी होने को आया ….तब इसे बड़ा बुरा लगा …हीनता आयी मन में …अपने आपको धिक्कारने लगी वो वेश्या । कि इतनी प्रतीक्षा अगर मैंने भगवान की कि होती तो आज मेरे सामने भगवान होते ……गुरु दत्तात्रेय कहते हैं …..उस वेश्या के आँसु गिरे और उसनें कहा ….आशा दुःख का कारण है …और निराशा परम सुख है । दत्तात्रेय महात्मा कहते हैं यही शिक्षा मैंने उस वेश्या से ली कि …संसार से आशा मत करो ।
उन्नीसवाँ गुरु है मेरा …वो चील पक्षी । हे राजा यदु …एक चील था उसके मुख में मांस का एक टुकड़ा था ….वो उड़ रहा था आकाश में …उसके पीछे हजारों पक्षी लग गये ….वो समझ नही पा रहा कि मेरे पीछे ये पक्षी क्यों हैं ….तभी उस चील के मुख से मांस का टुकड़ा गिर गया तो आश्चर्य ! सारे पक्षी मांस के पीछे ही भाग गए थे । ये मैंने शिक्षा ली ….सांसारिक लोगों को लगता है ….लोग हमारे पीछे हैं …नहीं , तुम्हारे पैसे के पीछे हैं ।
बीसवाँ गुरु है मेरा ……बालक …बालक की तरह मान अपमान से साधक दूर रहे …मान तो ठीक ..अपमान में भी ठीक ।
इक्कीसवीं गुरु है….एक कुमारी कन्या । उसकी चूड़ियाँ बज रहीं थीं …कन्या ने चूड़ियाँ उतार कर दो ही हाथ में रखी …किन्तु दो भी बज रही थी …जब एक ही बची तब बजनी बंद हुई …ऐसे ही साधक एकान्त और अकेले रहे …दो भी रहेंगे तो बजेंगे यानि सांसारिक चर्चा होगी ही होगी ।
बाइसवां गुरु है मेरा ….बाण बनाने वाला । गुरु दत्तात्रेय कहते हैं …..एकाग्रता की शिक्षा मैंने बाण बनाने वाले से ली । साधक को एकाग्र रहना चाहिए ।
तेइसवाँ गुरु मेरा है ….सर्प । सर्प कभी घर नही बनाता , वो चुप रहता है , वो किसी के सामने ज़्यादा नही जाता …बस साधक को ऐसे ही रहना चाहिए ।
और मेरी अंतिम चौबीसवी गुरु है …..मकड़ी । आहा ! मकड़ी जाल बनाती है ..फैलाती है …फिर अपने जाल में घूमती है …खेलती है अपने ही बनाए जाल में ….फिर अपने जाल को ही खा जाती है …और आनन्द से अकेले रहती है …..गुरु दत्तात्रेय मुस्कुराए बोले …भगवान भी ऐसे ही करते हैं …संसार का जाल बनाते हैं ….फिर उसमें स्वयं ही खेलते हैं ….फिर सबको समेट कर एकान्त का आनंद लेते हैं ….है ना ? ये कहते हुए गुरु दत्तात्रेय वहाँ से उठ गए थे ….साष्टांग प्रणाम किया था राजा यदु ने ….भगवान श्रीकृष्ण बोले ….हे उद्धव ! अपना कल्याण स्वयं करो ….हाँ , अपने गुरु स्वयं बनो …ये देह भी तो गुरु है ….जो हमें उद्धव! शिक्षा दे रहा है कि …मैं नही रहूँगा …मैं पल पल मर रहा हूँ …फिर भी हम समझ नही रहे ….भगवान श्रीकृष्ण हंसते हैं ।
Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (57)
देना हो तो दीजिए जनम जनम का साथ
मेरे सर पर रख दो बाबा अपने दोनों यह हाथ
देने वाले श्याम प्रभु से धन और दौलत क्या मांगे
श्याम प्रभु से मांगे तो फिर नाम और इज्ज़त क्या मांगे
मेरे जीवन में अब कर दे तू कृपा की बरसात🙏
नरसी आस्था व् भक्ति महिमा चंचला सदुपदेश सुनकर विकार निर्मूल और भक्तराज को गुरु स्वीकार
भक्तराज नरसीराम का चंचला को उपदेश –
यह जीव अनेक ‘ जन्मों से संसार के इन्द्रियजनित विषय सुख का अनुभव करता आ रहा है, परंतु फिर भी उसको तनिक भी सन्तोष का अनुभव नहीं हुआ है ।’
अतः शास्त्रकारों ने तथा अनुभवी महात्माओं ने यह निश्चय किया है कि यह संसार अनित्य और सुखहीन ही है । भगवान ने कहा है —-
अनित्यमसुखं लोकामिमं प्राप्य भजस्व माम ।।
‘इस अनित्य और सुखहीन संसार को पाकर मुझको भजो । अतएव केवल आत्मचिन्तन और भजन का दिव्य आनन्द ही सच्चा सुख है । विषयों का आनन्द तो मूर्खता -से प्रतीत होता है ।
‘भक्तराज के इस विस्तृत विवेचन ने चंचला के हृदय को एकदम पलट दिया । उसके जन्म-जन्मान्तर के कुसंस्कारों पर मानों जादू का-सा असर हो गया और वे उसके हृदय -पटल पर से अपने-आप खिसकने लगे । विषय गन्ध से अपवित्र बना हुआ उसका तमोमय स्वरुप सत्संगकारी पूर्णिमा के संसर्ग निर्मल चन्द्रमा की भाँति विकसित होने लगा । उसके सौन्दर्य में सात्विक शान्ति का सम्मिश्रण हो गया !’
चंचला ने कहा – ” क्षमा कीजिये भक्तराज ! आज आपने मुझे प्रगाढ़ अन्धकार से निकाल कर परम प्रकाश में पहुँचा दिया । आज से ‘आप ही मेरे सच्चे सदगुरु है । आपके सदुपदेश ने मेरे विकारों को निर्मूल कर दिया ।’ परंतु मैंने आजतक पाप कमाने में कोई कसर नहीं रखी है । मेरे दुःसंग से अनेक सुशील युवक पथभ्रष्ट होकर नष्ट-भ्रष्ट हो चूके हैं ।
आज अपने कुकृत्यों का स्मरण कर मेरा कलेजा काँप उठता है । उन्हें देखते हुए तो ऐसा मालूम होता है कि मुझे रौरव नरक में भी स्थान मिलना कठिन है । आप मेरे कल्याण मार्ग के निर्देशक बनकर मुझे उचित शिक्षा दीजिये ।.”* गदगद कण्ठ से यों कहती हुई चंचला भक्तराज के चरणों में गिर पड़ी।
नरसीराम कहते है – पुत्री ! अनेक प्रकार के पाप करने पर भी यदि मनुष्य सच्चे हृदय से पश्चाताप करे तो वह उन पापों से मुक्त हो जाता है। फिर भगवान का अनन्य चिन्तन तो पतित मनुष्यों को भी पावन बनाने के लिये प्रसिद्ध ही है। —–
न देहं न प्राणान्न चसुखमशेषाभिलषितं,
न चात्मानंनान्यत्किमपि तव शेषत्वविभवात् ।
बहिर्भूतं नाथ !क्षणमपि सहे यातु शतधा ,
विनाशं तत्सत्यं मधुमथन!विज्ञापनमिदम् ।।
हे नाथ ! एकमात्र भगवान के शेष रहना ही जीव का स्वरुपहै । अतएव इस भगवत्कैँकर्य रुप ऐश्वर्य से अलग रहने वाले अर्थात् आपके दास्य (शेषत्व) के वैभव से बर्हिभूत अपने शरीर ,प्राण , आत्मा ,तथा समस्त प्राणियो से अभिलषित सुख एवं दूसरी जो भी वस्तु हो , मै एक क्षण के लिए भी सहन नहीँ कर सकता ।
…हे नाथ ! आपकी सेवा केअयोग्य अर्थात् आपके दासत्व से रहित पूर्वोक्त शारीरिकादिक पदार्थ के सैकडोँ टुकडे क्यो न हो जाएँ पर उनसे मेरा कोई प्रयोजन नही है ।
… हे मधु दैत्य संहारक !आपकी सेवा में यह मेरी सच्ची विज्ञप्ति (प्रतिज्ञा) है ।
मुझे श्याम तेरी शरण चाहिए,
मुझे एक पल न भुलाना प्रभु मैं तेरा सेवक तुम्हारा रहुगा सदा के लिए,
मुझे श्याम तेरी शरण चाहिए
मैं उजला रहा जग के जंजाल में कभी ध्यान में तुमको ला न स्का,
भटकता रहा जिस की खातिर सदा वो क्या चीज है जो मैंपा ना स्का,
तुम्ही से ये उल्जन सुलझ पायेगी,
ये नैया भवर से निकल जाएगी,
मुझे एक पल न भुलाना प्रभु मैं तेरा सेवक तुम्हारा रहुगा सदा के लिए,
मुझे श्याम तेरी शरण चाहिए
तुम्हे छोड़ अब किसको जा कर कहु,
तुम्हारे सिवा कोई सुनता नहीं,
ज़माना कहे कुछ भी कहता रहे तेरी बेरुखी श्याम कैसे साहू,
संभालोगे तुम तो सब जाउगा,
जो ठुकरायगये तुम कहा जाउगा,
मुझे एक पल न भुलाना प्रभु मैं तेरा सेवक तुम्हारा रहुगा सदा के लिए,
मुझे श्याम तेरी शरण चाहिए
है मंदिर तुम्हारा सभी के लिए ,
जो आया मुकदर सवार जायेगा,
पड़ा ही रहु एक कोने में मैं ये जीवन ख़ुशी से गुजर जायेगा,
ना बेठू प्रभु मुझसे मुख मोड़ कर ये पंकज न जाये तुम्हे छोड़ कर,
क्रमशः ………………!
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
श्रीमद्भगवद्गीता*
*अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य*
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*श्लोक 10 . 27*
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उच्चै:श्रवसमश्रवानां विद्धि माममृतोद्भवम् |
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम् || २७ ||
उच्चैःश्रवसम् – उच्चैःश्रवा; अश्र्वानाम् – घोड़ो में; विद्धि – जानो; माम् – मुझको; अमृत-उद्भवम् – समुद्र मन्थन से उत्पन्न; ऐरावतम् – ऐरावत; गज-इन्द्राणाम् – मुख्य हाथियों में; नाराणाम् – मनुष्यों में; च – तथा; नर-अधिपम् – राजा |
भावार्थ
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घोड़ो में मुझे उच्चैःश्रवा जानो, जो अमृत के लिए समुद्र मन्थन के समय उत्पन्न हुआ था | गजराजों में मैं ऐरावत हूँ तथा मनुष्यों में राजा हूँ |
तात्पर्य
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एक बार देवों तथा असुरों ने समुद्र-मन्थन में भाग लिया | इस मन्थन से अमृत तथा विष प्राप्त हुए | विष को तो शिवजी ने पी लिया, किन्तु अमृत के साथ अनेक जीव उत्पन्न हुए, जिनमें उच्चैःश्रवा नामक घोडा भी था | इसी अमृत के साथ एक अन्य पशु ऐरावत नामक हाथी भी उत्पन्न हुआ था | चूँकि ये दोनों पशु अमृत के साथ उत्पन्न हुए थे, अतः इनका विशेष महत्त्व है और ये कृष्ण के प्रतिनिधि हैं |
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मनुष्यों में राजा कृष्ण का प्रतिनिधि है, क्योंकि कृष्ण ब्रह्माण्ड के पालक हैं और अपने दैवी गुणों के कारण नियुक्त किये गये राजा भी अपने राज्यों के पालनकरता होते हैं | महाराज युधिष्ठिर, महाराज परीक्षित तथा भगवान् राम जैसे राजा अत्यन्त धर्मात्मा थे, जिन्होंने अपनी प्रजा का सदैव कल्याण सोचा | वैदिक साहित्य में राजा को ईश्र्वर का प्रतिनिधि माना गया है | किन्तु इस युग में धर्म के ह्रास होने से राजतन्त्र का पतन हुआ और अन्ततः विनाश हो गया है | किन्तु यह समझना चाहिए कि भूतकाल में लोग धर्मात्मा राजाओं के अधीन रहकर अधिक सुखी थे |
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