Explore

Search

July 6, 2025 6:33 am

लेटेस्ट न्यूज़
Advertisements

श्रीसीतारामशरणम्मम/(29-3),“उद्धव गीता”(57),भक्त नरसी मेहता चरित (58) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम/(29-3),“उद्धव गीता”(57),भक्त नरसी मेहता चरित (58) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣9️⃣
भाग 3

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#अवधनाथचाहतचलन ……..
📙( रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏

#मै_वैदेही ! ……………._

ये कहते हुए फिर बिलख पड़े थे मेरे पिता जी ।

फिर अपनें आँसुओं को पोंछा था …………लाल आँखें हो गयीं थी मेरे पिता की …..शायद रात भर भी रोये थे …..इस विदा के प्रसंग को सोच कर ……।

हे राम ! तुम ज्ञानियों के साध्य हो ………….हे राम ! तुम भक्तों के हृदय में विराजनें वाले भगवान हो …………मेरा ये सौभाग्य है कि तुम्हारे जैसा दामाद मुझे मिला ………मै धन्य हूँ ………..मेरा ये जनकपुर धन्य है …………..आते रहना ……………

ये कहकर अपना कर श्रीरघुनन्दन के मस्तक में रख दिया था मेरे पिता जी नें ।

तभी मेरी तीनों बहनें भी आगयीं थीं……और उनके पति भी ……

उर्मिला के साथ लक्ष्मण , भरत के साथ माण्डवी, और शत्रुघ्न के साथ श्रुतकीर्ति ………..।


मेरी सखियाँ खड़ी हैं …………..पँक्तिबद्ध खड़ी हैं ……….

जबरदस्ती मुस्कुरा रही हैं …………पर इनकी आँखें भरी हुयी हैं ।

मै जैसे ही इनके पास गयी ……चारुशीला……….

वो तो मुझे देख भी न सकी………..मैने ही उसे जब अपनें हृदय से लगाया …….तो फूट पड़ी…….हिलकियाँ उसकी रुक ही नही रही थीं ।

बस इतना ही बोले जा रही थी …………..अब हम किसे सखी कहेंगें ?

अब हम क्या करेंगीं ? हमें किसके भरोसे छोड़े जा रही हो ?

हम तुम्हारे बिना नही जी सकेंगीं ………..।

तभी आगे आयी “सिद्धि” नामकी मेरी सखी …………

हमें विष दे दो …………सिया बहन ! हमें विष दे दो ………..हम मर जायेंगी ……….पर आपका वियोग ! हम नही सह पाएंगी ।

मेरी सखियों नें वहाँ ऐसा विरह का दृश्य उत्पन्न कर दिया था ।

पर मेरी वह सखी …प्यारी सखी चन्द्रकला ………….

मै स्वयं को सम्भाल नही पा रही थी …….तो इन बाबरियों को क्या सम्भालती………….

मेरी सखी चन्द्रकला आगे आयी ……….उसनें कहा ………हम लोग ऐसे रोयेगीं……..तो हमारी बहन को कितना कष्ट होगा ……..विचार तो करो……..हाँ सहज बात है ये कि हम अंत्यंत दुःख सागर में डूबनें वाले हैं …………क्यों की हमारी जनक सुता इस जनकपुर को छोड़ कर जा रही हैं ………..पर इनके सामनें ज्यादा अपना दुःख मत दिखाओ …………हम प्रेम करती हैं अपनी सिया बहन से ………..इसलिये इनके सामनें नही रोओ ………अकेले में खूब रोयेंगीं ……रोना ……पर जाते हुए विदा करते हुये मत रोओ ………..।

चन्द्रकला ये सब बोल तो रही थी……..पर एकाएक रुक गयी ……..

सब लोग देखनें लगे थे …………चन्द्रकला को …….

कहना अलग बात होती है ………………..मुझे एकटक देखनें लगी थी मेरी चन्द्रकला………..और दौड़ पड़ी मेरे पास ……….मुझे अपनें हृदय से लगा लिया ……………..फिर तो जो ये रोई है ……..।

हे किशोरी जू ! हमें मत भूलना ……….हे सिया जू ! हमें अपनें हृदय में बसाये रखना …………….हम भी आपकी यादों को लिए जीती रहेंगीं जैसे तैसे ………ये आप याद रखना कि मेरी सखियाँ जनकपुर में हैं …..जो मेरी यादों के सहारे जीवन को चला रही हैं …..ये बात आप मत भूलना …….हे सिया जू ! हे किशोरी जू !

ये कहते हुए मेरी अष्ट सखियाँ और उनकी भी अष्ट सखियाँ …….अन्य नर नारी …… सब विलख उठे ।

चक्रवर्ती श्री दशरथ जी इस दृश्य को देख नही सके थे …….गुरु वशिष्ठ जी की भी आँखें गीली हो गयी थीं …………..

( आगे मै आज लिख नही पाऊँगी )

#शेषचरिञ_अगलेभागमें……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱


Niru Ashra: “उद्धव गीता”

भागवत की कहानी – 57


भगवान श्रीकृष्ण अब अपनी लीलाओं को समेट कर परमधाम जाने की तैयारी में हैं ….ये पता जब उद्धव को चला तो वो विकल हो उठे ….और श्रीकृष्ण चरणों में पहुँच गये ।

नाथ ! आप जा रहे हैं ? आप अपनी लीलाओं को समेट कर अपने धाम जा रहे हैं ?

हाँ , हाँ उद्धव ! पृथ्वी का भार तो दूर हो चुका है ना ? । गम्भीर स्वर में भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धव को कहा था । हिलकियों से उद्धव रो पड़े …..श्रीकृष्ण ने अपने सखा के आँसुओं को पोंछ , बड़े प्रेम से कहा ….मैं कहीं नही जा रहा ..मैं तुम्हारे पास ही हूँ उद्धव ! श्रीकृष्ण आश्वासन दे रहे हैं । कुछ देर में उद्धव शांत होते हैं ….उनकी दृष्टि श्रीकृष्ण चरणों में ही है । योगियों की तरह त्राटक लगा लिया है उद्धव ने ।

उद्धव ! मैं कहीं नही जा रहा ….मैं यहीं हूँ ….मैं ही हूँ ….मेरे सिवाय यहाँ और कुछ है नही ।

श्रीकृष्ण उद्धव को अब सहज भाव से मुस्कुराते हुये बता रहे थे ।

हे उद्धव ! यहाँ सबसे विलक्षण अगर कुछ है तो वो है आत्मा । आत्मा सर्वत्र है और अद्वय है .आत्मा के सिवाय और कुछ है नही । भगवान श्रीकृष्ण उद्धव के सिर में हाथ रखते हैं ….फिर सहज बोलते हैं ….ये जो त्रिगुण प्रकृतिमय जगत दिखाई दे रहा है ….यह सब निर्मूल है …माया की रचना है ….इसलिए ये मिथ्या है । सत्य सिर्फ़ आत्म तत्व है …और वो मैं ही हूँ ।

मैं क्या करूँ ? मेरे लिए कुछ बताइये । नाथ ! आपके जाने के बाद मैं जी नही पाऊँगा । उद्धव फिर अश्रु बहाने लगे थे ।

उद्धव ! मैं कहीं नही जा रहा …यही बात तो मैं तुम्हें समझा रहा हूँ ….मैं यहीं हूँ …सर्वत्र हूँ ….आत्मतत्व की तरह । श्रीकृष्ण समझाते हुये बोले थे ।

नाथ ! ये यदुवंशी आपको समझ न सके …उद्धव आगे भी कुछ बोलने जा रहे थे कि श्रीकृष्ण ने उन्हें रोक दिया …नही उद्धव ! किसी की निंदा स्तुति मत करो …इससे तुम्हारा ही नुक़सान होगा ।

हे उद्धव ! हमें और कुछ नही करना …बस अपने सुन्दर मन का निर्माण करना है ….मन को बिगड़ने नही देना है …..मन के बिगड़ने पर फिर भगवान कहाँ विराजेंगे । मन भगवान को बैठाने की जगह है ….उसे साफ़ रखो ….उसकी स्वच्छता का विशेष ध्यान रखो । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं …दूसरों में दोष और गुण देखने से हमारा मन दूषित हो जाता है ….फिर ऐसे दूषित मन में भगवान कहाँ से आयेंगे । श्रीकृष्ण कहते हैं ….हे उद्धव ! क्या तुमको ये अनुभव नही है , जब हमारा मन बिगड़ जाता है तो पूरा जगत ही बिगड़ा हुआ दिखाई देता है ….और मन अगर शांत प्रसन्न है ….तो पूरा जगत तुम्हें प्रसन्न लगेगा । इसका मतलब ये हुआ कि दुनिया सही गलत नही है …सारा खेल तो मन ही कर रहा है ….क्या ये बात सही नही है ?
श्रीकृष्ण उद्धव से पूछते हैं ।


नाथ ! आपकी बात सत्य है किन्तु ..आपके परमधाम गमन की बात पर मैं विकल हो उठा था ।
उद्धव अपनी बात बता रहे हैं ।

फिर भगवान श्रीकृष्ण से शांत होकर पूछते हैं ….नाथ ! एक बात तो बताइए ….ये सृष्टि किसके लिए है , शरीर के लिए या आत्मा के लिए ? इस प्रश्न पर भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ….न शरीर के लिए ये सृष्टि है न आत्मा के लिए । ये सृष्टि है सम्बन्ध के लिए …सम्बन्ध बनते जाते हैं और सृष्टि आगे बढ़ती जाती है …अगर सांसारिक सम्बन्धों को ही तुम तोड़ते चले जाओ तो तुम्हारे लिए कोई सृष्टि नही बचती । श्रीकृष्ण के ये कहने पर उद्धव पूछते हैं …….फिर ये संसार दुःख क्यों देता है ? नही उद्धव ! संसार दुःख नही देता …सोये हुए लोग ही स्वप्न से दुखी होते हैं ….बाकी जागे लोग तो सुखी हैं …..जागृत साधक को न सृष्टि दुःख देती है न कोई और ।

उद्धव को अब कुछ शांति मिल रही है ।

नाथ ! आरम्भ में भगवान हैं …अंत में भगवान हैं …फिर मध्य में ही ये संसार क्यों है ?

श्रीकृष्ण बोले – उद्धव ! जो आदि में है वही अंत में भी है …..संसार जो दिखाई दे रहा है ये दिखाई दे रहा है ..बस …है नही । है वही …जो पहले है और अंत में रहता है ।

उद्धव का दुःख अब कुछ कम हो रहा है ….वैसे इनको क्या दुःख होगा किन्तु ये दुःख …कि श्रीकृष्ण मुझे छोड़कर चले जायेंगे ।

अज्ञान निद्रा से जागो उद्धव ! वास्तविकता पर ध्यान दो …जो नही है उसको मानते ही क्यों हो …मानों उनको जो आदि अंत और मध्य में भी समान रूप से उपस्थित हो । श्रीकृष्ण बोले ।
जो वस्तु पहले नही है और बाद में भी नही है …वो मध्य में भी नही हो सकती ।

तुम कौन हो ? श्रीकृष्ण उद्धव से पूछते हैं ।

तुम मिट्टी हो ? या तुम हवा हो ? या पानी हो या आग या आकाश हो ? ये सब तुम हो ? श्रीकृष्ण गम्भीर हो उठे हैं ।

उद्धव बोले ….मिट्टी मैं कैसे हो सकता हूँ ….मैं न हवा हूँ , न पानी न आकाश न अग्नि ….मैं इनमें से कुछ नही हूँ । तो इसका मतलब तुम शरीर नही हो ? ना , मैं शरीर कहाँ हूँ …उद्धव बोले ।

फिर तुम अन्त:करण हो । उद्धव ! तुम मन हो ? तुम या बुद्धि हो ? चित्त या अहंकार ?

नही , नाथ ! मन मेरा है ..बुद्धि मेरी है , चित्त या अहंकार मेरा है …मैं इनमें से कुछ भी नही हूँ ….उद्धव ने मना कर दिया ।

अब भगवान श्रीकृष्ण बड़े प्रसन्न हुए और बोले …बिल्कुल सत्य बात कही है तुमने उद्धव ! तुम शरीर नही हो ….तो तुम सूक्ष्म शरीर भी नही हो । सूक्ष्म शरीर में …मन , बुद्धि चित्त और अहंकार आता है । इसी को अन्तकरण चतुष्टय कहते हैं । यही मुख्य है …इस बात का विशेष ध्यान रखो ….इस को गंदा मत होने देना ।

हे नाथ ! जब अन्तकरण मैं हूँ ही नहीं तो क्या फर्क पड़ता है वो गंदा हो या स्वच्छ हो ?

उद्धव ने प्रश्न किया तो श्रीकृष्ण का उत्तर था ….ज्ञान की ज्योत पूरी तरह प्रज्वलित है तब तो कोई फर्क नही पड़ता कि अन्तकरण गंदा हो या स्वच्छ हो । लेकिन उस ज्ञान की उच्च स्थिति में पहुँचने तक अपने अन्तकरण को शुद्ध रखना अत्यंत आवश्यक है …..नही तो अन्तकरण में कोई रोग अगर रह गया तो वो फिर कभी भी उठ सकता है …इसलिए सावधानी पूर्वक अपनी स्वच्छता का ध्यान स्वयं रखें ।

तो आवश्यकता ज्ञान की है ? उद्धव ने श्रीकृष्ण से पूछा ।

नही उद्धव ! ज्ञान तो मात्र हमारे बुद्धि के अभ्यास को मिटाता है ….आत्मा तो स्वयं ज्ञान स्वरूप है ….जिस दिन अपने आपको पहचान जाओगे उस दिन तुम स्वयं ज्ञान रूप आत्मा में स्थित हो जाओगे ….क्यों की तुम स्वयं आत्मा हो । अपने इसी आत्मरूप में अवस्थित होकर अपने स्वरूप का ही चिंतन करो ….अपने उस अविनाशी स्वरूप का चिंतन करो ….जो सदैव था …सदैव है ….और सदैव रहेगा । बाकी उद्धव ! सब कुछ मिथ्या है ….झूठ है । इतना कहकर श्रीकृष्ण मौन हो जाते हैं ….लेकिन उद्धव को और भी प्रश्न करने हैं ।

Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (58)


🌸🌿🌿🌸

चंचला वेश्या वृति छोड़ भगवद भजन में लीन

सारंगधर को सर्प काटना, भक्तराज का द्वेष के बदले विश्व प्रेम

भक्तराज नर्सिरंजी चंचला से कह रहे है कि भगवान ने स्वयं कहा है-

अपि चेत्सूदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्वयवसितो ही सः।।,
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तय प्रतिजानीहि न मे भक्तःप्रणश्यति।।

अतः तुम अपने घर पर जाकर ‘भगवान का अध्ययन से प्रेम पूर्वक स्मरण करो, तुम्हारे लिये यही सच्ची शिक्षा है । मैं गुरु बनना नहीं चाहता , क्योंकि मुझमें ऐसी योग्यता ही नहीं है ।’

चंचला भक्तराज की आज्ञा शिरोधार्य कर अपने घर चली गयी । ‘उसने उसी दिन से अपनी वेश्या वृति छोड़ दी और बहुत सादगी के साथ रहकर मगवद्धजन तथा साधु सेवा में जीवन बिताने लगी ।’

आठ-दस दिन बाद सारंगधर चंचला के घर गया । वहाँ का नया रंग-ढंग देखकर वह तो दंग रह गया । चंचला उस समय साधु -मण्डली में बैठ कर भजन कर रही थी । उसके चेहरे पर एक अलौकिक तेज खेल रहा था।

‘क्यों चंचले ! उस विषय में क्या हुआ ? सारंगधर ने पूछा –
क्यों चंचले ! उस विषय में क्या हुआ ?

चंचला बोली – “सारंगधर जी ! आप निरपराध भक्तराज को व्यर्थ ही दोष लगाकर महान पाप के भागी बनना चाहते हैं । परंतु याद रखिये दूसरे के लिये जमीन में गड्ढा खोदने वाला मनुष्य खुद ही उसमें गिर पड़ता है । आपलोगों का द्वेष उनके ऊपर कोई प्रभाव नहीं डाल सकता । मुझे तो घृणा होती है कि आपलोग जाति के अग्रगण्य, कर्णधार होते हुए भी दूसरे मनुषय का उत्कर्ष नहीं सह सकते । मैं इससे अधिक आप से बात करना नहीं चाहती, आप जाने और आपका काम जाने ।” इतना कहकर चंचला पुनः भगवद भजन में लीन हो गयी ।

परमात्मा की कला अचल है । चंचला के यहाँ से तिरस्कृत होकर जब ‘सारंगधर वापस लौटा तो मार्ग में एक भयंकर सर्प ने उसे डँस लिया । पलभर में सर्प का विष उसके रोम-रोम में फैल गया । वह मार्ग में ही बेहोश होकर गिर पड़ा ।’ देखते -देखते वहाँ बहुत से लौग एकत्रित हो गये । नाना प्रकार के उपचार किये गये, परंतु विष नहीं उतरा । लोग उसके जीवन से निराश हो गये और उसके परिवार के लोग रोने लगे । समस्त नागर जाति के लोग एकत्रित होकर शोक में डूबेहुए थे।

अन्त में एक नागर ने कहा- भाइयों ! ‘एक उपाय है, उसे भी करके देख लेना चाहिए । आजकल नरसि़ंहराम जादूगर बना हुआ है । कदाचित् उसके हाथ से सारंगधर जी का सर्प विष उतर जाय । सब लोग सहमत हो गये और सारंगधर को भक्तराज के मन्दिर में उठा लाये । ‘

जब भक्तराज से सारा हाल कहा गया तो उन्होंने कहा-

“भाइयों ! मैं कोई तन्त्र-मन्त्र तो जानता नहीं । हाँ, भगवान की कृपा से उनके चरणों दक से कदाचित् मृत्यु का भय दूर हो जाय । इतना कहकर भक्तराज ने भगवान का स्मरण किया और भगवान का चरणामृत लेकर सारंगधर के मुहँ पर मार्जन किया । भगवान की कृपा से सारंगधर का विष उतर गया और वह सचेत होकर उठ बैठा ।’ परंतु वह सामने नरसि़ंहराम को देखते ही भीतर-ही-भीतर क्रोध से जल उठा । वह वहाँ से उठ कर चुपचाप घर चला आया ।

इस प्रकार- ‘भक्तराज ने द्वेष का बदला प्रेम से देकर अपने विश्व प्रेम का आदर्श लोगों के सामने प्रकट कर दिया।’

तेरा दास करे अरदास सँवारे,
तू रहना सदा मेरे पास सँवारे,

दिल की हर धड़कन में प्यारे तेरा नाम समाया,
भीड़ पड़ी जब भी मुझपर तू पल में दौड़ा आया,
तू करना ना मुझको निराश सँवारे,
तू रहना सदा मेरे पास सँवारे,

खुद पर हक भी नहीं है बाबा तन मन सब है तुम्हारा,
जिस पर हक़ है मेरा प्यारे वो तो श्याम हमारा,
मेरे जीवन का हिस्सा तू ख़ास सँवारे,
तू रहना सदा मेरे पास सँवारे,

अब तुझ बिन इक पल भी बाबा न रह पाऊंगा,
नजर कर्म की नहीं करोगी तो मैं मर जाऊँगा,
तुझे सौंप दी हमने हर सांस सँवारे,
तू रहना सदा मेरे पास सँवारे,

दास विनायक लिख कर बाबा अर्जी तुझे लगाए,
सास बिना रह सकते बाबा तुझबीण रह न पाए,
मुझे तुझपे है पूरा विस्वाश सँवारे,
तू रहना सदा मेरे पास सँवारे,

क्रमशः ………………!


[] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
🌹🌹🌹🌹🌹🌹
श्लोक 10 . 28
🌹🌹🌹🌹
आयुधानामहं वज्रं धेनुनामस्मि कामधुक् |
प्रजनश्र्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः || २८ ||

आयुधानाम् – हथियारों में; अहम् – मैं हूँ; वज्रम् – वज्र; धेनूनाम् – गायों में; अस्मि – मैं हूँ; काम-धुक् – सुरभि गाय; प्रजनः – संतान, उत्पत्ति का कारण; च – तथा; कन्दर्पः – कामदेव; सर्पाणाम् – सर्पों में; अस्मि – हूँ; वासुकिः – वासुकि |

भावार्थ
🌹🌹🌹
मैं हथियारों में वज्र हूँ, गायों में सुरभि, सन्तति उत्पत्ति के कारणों में प्रेम के देवता कामदेव तथा सर्पों में वासुकि हूँ |

तात्पर्य
🌹🌹🌹
वज्र सचमुच अत्यन्त शक्तिशाली हथियार है और यह कृष्ण की शक्ति का प्रतिक है | वैकुण्ठलोक में स्थित कृष्णलोक की गाएँ किसी भी समय दुही जा सकती हैं और उनसे जो जितना चाहे उतना दूध प्राप्त कर सकता है | निस्सन्देह इस जगत् में ऐसी गाएँ नहीं मिलती, किन्तु कृष्णलोक में इनके होने का उल्लेख है | भगवान् ऐसी अनेक गाएँ रखते हैं, जिन्हें सुरभि कहा जाता है | कहा जाता है कि भगवान् ऐसी गायों के चराने में व्यस्त रहते हैं | कंदर्प काम वासना है, जिससे अच्छे पुत्र उत्पन्न होते हैं | कभी-कभी केवल इन्द्रियतृप्ति के लिए सम्भोग किया जाता है, किन्तु ऐसा संभोग कृष्ण का प्रतिक नहीं है | अच्छी सन्तान की उत्पत्ति के लिए किया गया संभोग कंदर्प कहलाता है और वह कृष्ण का प्रतिनिधि होता है |

admin
Author: admin

Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877

Leave a Comment

Advertisement
Advertisements
लाइव क्रिकेट स्कोर
कोरोना अपडेट
पंचांग
Advertisements