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November 21, 2024 1:20 pm

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श्रीसीतारामशरणम्मम/(30-1), भक्त नरसी मेहता चरित (59),“उद्धव गीता- भक्तियोग”(58) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम/(30-1), भक्त नरसी मेहता चरित (59),“उद्धव गीता- भक्तियोग”(58) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम _🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 3️⃣0️⃣
भाग 1

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#उद्भवस्थितिसंहारकारिणीम्……._
📙( #रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏

#मै_वैदेही ! …………….

हे ब्रह्माल्हादिनी ! हे रामहृदय रमणी ! हे रामप्रिया ! हे साकेतबिहारिणी ! हे जनककिशोरी ! ………

मै आश्चर्यचकित थी ………..मेरे सामनें हाथ जोड़े खड़े थे …….और ये सब बोले जा रहे थे ………रघुकुल के कुल गुरु वशिष्ठ जी ।

उनके साथ थे मेरे प्राण श्रीरघुनन्दन ……पर वह शान्त थे ।

मै क्या कहती …………..मेरे कुछ समझ में ही नही आरहा था ।

तब रघुकुल के कुल गुरु वशिष्ठ जी नें अपना इतिहास सुनाना शुरू कर दिया था ।


हे रामबल्लभा ! बात उस समय की है जब सृष्टि का प्रारम्भ ही होनें जा रहा था ……..विधाता ब्रह्मा सृष्टि कार्य में व्यस्त थे ।

उस समय मुझे बुलाया ब्रह्मा नें ………..सनकादि ऋषि मुझे बुलाकर लाये थे ………।

मुझे देखते ही ब्रह्मा नें कहा ………….हे वशिष्ठ ! मेरी आज्ञा है तुम्हे पुरोहित की पदवी स्वीकार करनी होगी ।

मै शान्त भाव से सुन रही थी गुरु वशिष्ठ जी की बातें ।

हे विदेह नन्दिनी ! मुझे ये पुरोहित की पदवी प्रिय नही थी …….और मुझे ही क्यों जो तत्वज्ञान का पथिक है उन्हें ये पुरोहित जैसी कर्मकाण्ड प्रधान क्रिया पसन्द हो भी नही सकती ।

मैनें स्पष्ट मना कर दिया ………..हे विधाता ! मुझे क्षमा करें ।

मुझे अपनें तत्वज्ञान के अनुसन्धान से अलग न करें …….न भटकाएं ।

क्या तुम ये जानना भी नही चाहोगे कि किस कुल के कुलपुरोहित बननें की बात मै कर रहा हूँ ……………ब्रह्मा नें मुझे समझाना चाहा …..और उस कुल का नाम भी बता दिया ……..सूर्यवंश ……..रघुकुल ।

मैने हाथ जोड़कर ब्रह्म लोक से प्रस्थान करना ही उचित समझा ।

पूर्णब्रह्म परमात्मा स्वयं अवतरित होनें वाले हैं ……..इस कुल में ।

जब मै जानें लगा था तब पीछे से ये कहा था ब्रह्मा नें ।

और तुम्हे ब्रह्म के गुरु बननें का सौभाग्य प्राप्त होगा ……क्या इस लाभ से वंचित रहना चाहोगे ?

मै लौटा ब्रह्मा के पास …………..क्या आप सच कह रहे हैं !

क्या सच में मेरे ईश्वर साकार रूप से अवतरित होनें वाले हैं ..?

हाँ ऋषि वशिष्ठ ! स्वयं निराकार ब्रह्म साकार होकर आरहे हैं …..और इसी कुल में रघुकुल में ….सूर्यवंश में ……..दशरथ के पुत्र श्रीराम के रूप में ………….मुझे ब्रह्मा नें कहा ।

ओह ! हे वैदेही ! उस समय मेरे नेत्रों से आनन्दाश्रु बहनें लगे थे ।

मुझे स्वीकार है ब्रह्मदेव ! मै पुरोहित की पदवी स्वीकार करता हूँ ।

पर ……………..मै रुक गया था उस समय ।

क्या ….पर ? बोलो वशिष्ठ ! क्या पर ?

क्रमशः …
#शेषचरिञ_अगलेभागमें………._


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱

Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (59)


🕉🌌🙏 🙏🌌🕉🙇‍♀👏

तुम्हें छोड़ सुन नन्द दुलारे कोई न मीत हमारो
किसके द्वारे जाएँ पुकारूँ और न कोई सहारो
अब तो आके बाहाँ पकड़ लो, ओ मेरे प्रीतम👏🙇‍

♀नरसी भक्तराज से सारंगधर की द्वेषभावना

कहावत है कि सर्प को दूध पिलाने से उसका विष ही बढ़ता है ‘

यधपि भक्तराज नरसि़ंहराम ने स्वाभाविक दया से ही सारंगधर को जीवनदान किया था , फिर भी उसपर उसका उल्टा ही प्रभाव पड़ा । उसने समझा नरसि़ंहराम जादूगर है और यह सब उसी की दुष्टता का फल था, अतएव भक्तराज के प्रति उसके मन में द्वेषग्नि और भी अधिक भभक उठी ! ‘

जिस समय यह प्रसंग चल रहा था , उस समय जूनागढ़़ के राज्याशन पर रावमाण्डलीक नामक क्षत्रिय राजा विराजमान था । सारंगधर भी राज्य के एक प्रतिष्ठित पद पर नियुक्त था । जब सारंगधर चंचला द्वारा भक्तराज का मान भंग करने में समर्थ न हुआ तो उसने राजा से उनकी निन्दा करना शुरु कर दिया । परंतु राजा उसकी बात पर विशेष ध्यान नहीं देता था ।

किन्तु सारंगधर अपनी धुन का बड़ा पक्का था । भक्तराज को प्राण दण्ड या कारावास दिलाये बिना उसे चैन नहीं थी । राजा के ध्यान न देने पर भी वह बराबर भक्तराज की कोई-न-कोई शिकायत सुनता ही रहा ।
अन्त में एक दिन राजा से उसने यह भी कह दिया कि रात्रि में भजन के बहाने नरसि़ंहराम अनाचार का प्रचार कर रहा है । ऐसे ढोंगी को दण्ड देना अत्यन्त आवश्यक है ।

‘कहावत है कि बड़े लोगों को कान होते है, नेत्र नहीं होते ।’

नित्य शिकायत सुनने के कारण एक दिन राजा ने भक्तराज को राजसभा में बुलाने की आज्ञा दे ही दी और दूसरे दिन उनका न्याय करने का निश्चय किया गया।

उसी दिन भक्तराज जब भगवान की सेवा -पूजा समाप्त करके भगवन्नाम का जप कर रहे थे, तब वहाँ एक वृद्ध ब्राह्मण आया ब्राह्मण को आसन, जल पानादि देकर उन्होंने विनय पूर्वक आगमन का कारण पूछा —

ब्राह्मण ने उतर दिया-‘ भक्तराज ! वृद्धावस्था के कारण मैं द्रव्य कमाने में अशक्त हो गया हूँ और इस कारण मेरी कन्या के विवाह योग्या हो जाने पर भी मैं कन्यादान करने में असमर्थ हो रहा हूँ । यदि आप मुझे साठ रुपये की सहायता कर देंगे तो आपका बड़ा कल्याण होगा ।

क्यों घबराता है पल पल मन बावरे
चल श्याम शरण में मिलेगी सुख की छाँव रे
जीवन की राह में थक गए हो तेरे पाँव रे
ओ बावरे…..ओ बावरे

जो शरण श्याम की लेले वो फिर क्यों संकट झेले
जो श्याम भरोसे रहकर जीवन की बाज़ी खेले
जीत जायेगा हर एक हारा दाव रे
ओ बावरे……ओ बावरे

जो भी इस दुनिया में है श्री श्याम भरोसे चलता
परिवार सदा ही जिसका बाबा की कृपा से पलता
कभी न रहता खुशियों का अभाव रे
ओ बावरे…….ओ बावरे

ये सारे जग का दाता है सबका भाग्य विधाता
प्रेमी के हर आंसू का सावरिया मोल चुकता
हर प्रेमी के संग है इसको लगाव रे
ओ बावरे………ओ बावरे

सुख दुःख हंस हंस कर सहना पर दूर न प्रभु से रहना
ये तेरे संग रहेगा मानो रोमी का कहना
इसको प्यारा है भक्त भजन और भाव रे
ओ बावरे……..ओ बावरे

क्रमशः ………………!


Niru Ashra: “उद्धव गीता- भक्तियोग”

भागवत की कहानी – 58


हे साधकों ! “उद्धव गीता” श्रीकृष्ण के द्वारा गायी गयी है …जिसमें अद्भुत ज्ञान और विलक्षण तत्त्व का प्रतिपादन हुआ है….भागवत के एकादश स्कन्ध में इसका वर्णन है । इस उद्धव गीता में … वेदान्त है , इसमें वेद है …और इसमें भक्ति की सुवास है …ये अपने आप में पूर्ण है । श्रीधरस्वामी तो अपनी भागवत टीका “श्रीधरी” में लिखते हैं कि …अर्जुन को जो बात न बता सके थे श्रीकृष्ण गीता में …वो बात यहाँ उद्धव को बताई है । ये बड़ा गहन और गम्भीर विषय है …मेरा प्रयास है कि इस विषय को सरल बनाकर सामान्य लोगों के समझ में आवे ऐसा लिखूँ । वैसे मेरे साधक-पाठक बहुत विवेकवान हैं …वो सब समझते हैं ।


हे प्रभु ! महात्मा लोग कहते हैं ..कि मनुष्य के पास अनेक श्रेय यानि कल्याण के मार्ग हैं …जैसे ! भक्ति योग ,ज्ञान योग या कर्म योग आदि …लेकिन नाथ ! इनमें सभी योग श्रेष्ठ हैं या किसी एक की प्रधानता है ? उद्धव ने भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में वन्दन करते हुए ये पूछा था ।

इस प्रश्न को सुनकर श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए …..और वो उद्धव की ओर देखते हुये बोले …योग तो सभी श्रेष्ठ हैं …किन्तु सर्वश्रेष्ठ तो हे उद्धव ! भक्तियोग ही है ….क्यों कि भक्ति स्वतन्त्र है ….ज्ञान में अधिकारी आदि का भेद पाया जाता है …अगर आप अधिकारी नही हो …तो ज्ञान आपको नही मिल सकता । लेकिन भक्तियोग अधिकारी नही देखता …वो तो हृदय की प्यास देखता है …..यहाँ कुछ देर के लिए मौन हो जाते हैं श्रीकृष्ण …..फिर कहते हैं …..कोई मात्र मनुष्य हो …और विशेष बात उसमें कुछ भी न हो …..तो भी वो भक्ति के माध्यम से अपना कल्याण कर जायेगा । जाति कोई हो …..उच्च या निम्न ….विद्वान हो या मूर्ख …..पुण्यात्मा हो या महापापी …लेकिन भगवान को अपना मान लिया तो हो गयी भक्ति …..उसका भी कल्याण हो जाता है । इसलिए हे उद्धव ! भगवान की भक्ति करो ….भक्ति सबके लिए है …सुगम और सहज है ……श्रीकृष्ण आगे कहते हैं …..योगी लोग शम दम आदि को ही श्रेष्ठ मानते हैं …कोई त्याग को श्रेष्ठ मानते हैं …..कोई यज्ञ दान की महिमा गाकर प्रसन्न होते हैं ….लेकिन उद्धव ! ये सब तो नाश होने वाले हैं ना ! तुच्छ हैं ….इनका फल भी तुच्छ है …..दान पुण्य त्याग आदि का फल क्या है ? स्वर्ग ? स्वर्ग कहाँ सत्य हुआ ? अब प्रसन्नता फैल गयी थी श्रीकृष्ण के मुखमण्डल में …..असल आनन्द तो भक्ति में ही है उद्धव ! भक्त आज में खुश है ….भक्त को कल की परवाह ही नही है …..इसलिए वो सदा आनन्द में ही रहता है । भगवान श्रीकृष्ण कहते ….भक्त ने अपना मन मुझे सौंप दिया है ….जब मन ही उसके पास नही है तो पाप नही है पुण्य नही …पुण्य नही है तो स्वर्ग नही है और पाप नही है तो नर्क नही है …..भक्त कुछ नही करता वो बस अपना मन मुझ में लगाकर निश्चिंत हो जाता है । वो भक्त सबमें मुझे देखना आरम्भ कर देता है …फिर उसकी दृष्टि में प्रपंच नही ….मैं ही होता हूँ । वो भक्त संसार को और मुझे अलग अलग नही देखता मैं ही संसार में उसे दिखाई देता हूँ …जिसके कारण वो निरपेक्ष होकर घूमता है ….निरपेक्ष का अर्थ है ….किसी से कोई अपेक्षा नही । उद्धव आनन्द से सुन रहे हैं ….हे उद्धव ! जो किसी से कोई अपेक्षा नही रखता , जो शांत है , जिसकी दृष्टि में कोई शत्रु नही है , जिसकी दृष्टि ही सम है …..ये कहते हुए श्रीकृष्ण के नेत्र सजल हो गये थे ….ऐसे भक्तों के पीछे पीछे मैं चलता हूँ ताकि उनकी पद धूल उड़कर मेरे माथे में पड़े और मैं धन्य हो जाऊँ । ये बात भगवान श्रीकृष्ण मुख से सुनकर उद्धव चकित हो गए थे ।


हे प्रभु ! आपने भक्तियोग की महिमा गाई ….अब मुझे ये बताइये कि भक्ति करते हुए भक्त के मन में अगर विषय वासना जाग जाए तो क्या होगा ? क्या उस भक्त का पतन नही होगा ?
उद्धव का प्रश्न है ये ।

नही उद्धव ! भक्ति करते रहने के कारण विषय वासना के चिंतन का समय ही भक्त के पास नही है …..श्रीकृष्ण उत्तर दे रहे हैं । हे उद्धव ! तुमने प्रश्न किया कि कभी विषय वासना भक्त के मन में जाग जाए तो भक्त का पतन तो नही होगा ? नही होगा ….वैसे विषय चिंतन के बिना वासना जागती नही है …और कभी संस्कार वश जाग भी गये विषय-वासना , तो मेरी भक्ति उन्हें तत्काल नष्ट कर देगी ….क्यों कि उद्धव ! मेरी भक्ति अन्य विषयों को टिकने ही नही देती ….वो तो बस मेरे में ही भक्त का चित्त लगा देती है …..और उद्धव ! एक बात ध्यान से सुनो ….सत्य-दया से युक्त धर्म हो …लेकिन भगवान की भक्ति न हो तो वो धर्म व्यर्थ है क्यों की बिना भक्ति के वो धर्म मात्र तुम्हारे अंदर अहंकार को ही बढ़ाने वाली है …ऐसे ही तप से युक्त विद्या हो ….महान विद्वान हो …किन्तु भक्ति नही है भगवान की …तो वो विद्या भी व्यर्थ है …..वो भक्ति से शून्य धर्म और भक्ति से शून्य विद्या तुम्हारा ही कल्याण नही कर पाएगी फिर औरों की बात ही क्या करें । लेकिन उद्धव ! भक्ति तो महान है …भक्ति करने वाला अपना कल्याण तो करता ही है ….वो जहाँ जहां से होकर गुजरता है …उन सारे स्थानों को भी पवित्र बना देता है । वो विश्व को भी पवित्र बनाने का सामर्थ्य रखता है ….ये कोई ज्ञानी या योगी के द्वारा सम्भव नही है ।

उद्धव बोले …….हे भगवन्! कैसी भक्ति ? भक्त कैसे जगत को पावन करता है ?

हे उद्धव ! जिसकी वाणी प्रेम के कारण गदगद हो रही है ….जिसका चित्त प्रेम के कारण पिघल रहा है ….कभी प्रेमवश रो रहा है तो कभी हंस रहा है । कभी नाचता है ….श्रीकृष्ण कहते हैं …ऐसे मेरे भक्त पूरे जगत को पावन करने वाले होते हैं …उन्हें उपदेश देने की आवश्यकता ही नही है …भक्त के दर्शन ही हो जायें ….तो सब कुछ विश्व प्रपंच पवित्र हो गया । उद्धव चकित हैं – श्रीकृष्ण की भक्ति परवशता देखकर । योग से , ज्ञान से , धर्म से मनुष्य स्वयं पवित्र होता है किन्तु भक्ति से स्वयं तो पवित्र होता ही होता है …वो जगत को भी …वो जहाँ जहाँ जाए वहीं पवित्रता का संचार करता जाता है । इसके बाद श्रीकृष्ण कुछ देर के लिए यहाँ मौन हो जाते हैं ।
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Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
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श्लोक 10 . 29
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अनन्तश्र्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् |
पितृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् || २९ ||

अनन्तः – अनन्त; च – भी; अस्मि – हूँ; नागानाम् – फणों वाले सापों में; वरुणः – जल के अधिष्ठाता देवता; यादसाम् – समस्त जलचरों में; अहम् – मैं हूँ; पितृृणाम् – पितरों में; अर्यमा – अर्यमा; च – भी; अस्मि – हूँ; यमः – मृत्यु का नियामक; संयमताम् – समस्त नियमनकर्ताओं में; अहम् – मैं हूँ |

भावार्थ
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अनेक फणों वाले नागों में मैं अनन्त हूँ और जलचरों में वरुणदेव हूँ | मैं पितरों में अर्यमा हूँ तथा नियमों के निर्वाहकों में मैं मृत्युराज यम हूँ |

तात्पर्य
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अनेक फणों वाले नागों में अनन्त सबसे प्रधान हैं और इसी प्रकार जलचरों में वरुण देव प्रधान हैं | ये दोनों कृष्ण का प्रतिनिधित्व करते हैं | इसी प्रकार पितृलोक के अधिष्ठाता अर्यमा हैं जो कृष्ण के प्रतिनिधि हैं | ऐसे अनेक जीव हैं जो दुष्टों को दण्ड देते हैं, किन्तु इनमें यम प्रमुख हैं | यम पृथ्वीलोक के निकटवर्ती लोक में रहते हैं | मृत्यु के बाद पापी लोगों को वहाँ ले जाया जाता है और यम उन्हें तरह-तरह का दण्ड देने की व्यवस्था करते हैं |


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