श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! “चन्द्रावली” – एक प्रेम कथा !!
भाग 1
प्रेम अद्भुत तत्व है तात ! प्रेम क्या है इसके बारे में कुछ कहा नही जा सकता …….जैसे ब्रह्म अवर्णनीय है ऐसे ही प्रेम है ।
उद्धव विदुर जी को श्रीकृष्ण लीला का गान सुना रहे हैं…….तात ! वैसे तो बृज प्रेम की ही भूमि है ……यहाँ प्रेम ही प्रेम है ……प्रेम तत्व से ही इस बृज का आन्तरिक निर्माण हुआ है…….बात गोप या गोपी की नही है…….बृज के कण कण में ही प्रेम व्याप्त है……उद्धव कह रहे हैं ।
“चन्द्रावली”
ये गोपी है ………श्रीराधारानी की बड़ी बहन लगती हैं ……..ताऊ जी की बेटी है ……..श्रीराधारानी शान्त हैं ……तो ये चंचल ……….श्रीराधारानी भोली हैं तो ये चतुर ….अत्यन्त चतुर , पर श्रीराधारानी से कम सुन्दर नही हैं ।
श्रीराधारानी बोलती नही हैं ………बहुत कम बोलती हैं …..पर ये चुप होती नही………उद्धव नें कहा ……..पर प्रेम तत्व अच्छे अच्छों को बदलनें की ताकत रखता है ।
चन्द्रावली इन प्रेम व्रेम के चक्कर में कभी पड़ी नही ……न इसके स्वभाव में है ये सब ………..पर बृज में कन्हैया से कोई बचा है ?
तात ! ये विचित्र है कन्हैया ………..अब इसनें दान ( कर ) माँगना भी शुरू कर दिया था ……….माखन बेचनें जिसे जाना हो …….वो दान दे …….नही तो मटकी फोड़ देंगे ।
बताइये ये भी कोई बात है ……….पर देना तो पड़ेगा ही ……नही तो मटकी फूटेगी ……….और वैसे भी ग्वालिन ग्वालों को माखन से ज्यादा मटकी से प्रेम होता है ………और जितनी पुरानी मटकी हो मोह उतना ही ज्यादा ।
लकुट लगा दी उस साँकरी गली में …………….पहली बार ये सुन्दरी निकली थी माखन लेकर -.चन्द्रावली ।
दान दे ! अकड़ थी आवाज में ………….
नही दूँ तो ? चन्द्रावली तेज गोपी है ………….
फिर तो मटकी से हाथ धोना पड़ेगा……कन्हैया नें मटकते हुए कहा ।
कुछ सोचकर चन्द्रावली बोली …….दान में क्या दूँ ? बोलो !
कुछ नही ………….”माखन खिला दे”…………..बोलनें में भी मधु टपक रहा था कन्हैया के ……..चन्द्रावली मुग्ध थी ।
लो ……..खाओ माखन ! बड़ी आसानी से खिलानें को तैयार हो गयी चन्द्रावली ……………..कन्हैया नें सोचा नही था कि ये सुन्दरी इतनी जल्दी मान जायेगी ।
पर – चन्द्रावली चतुर् है ………वो तुरन्त बोली ………पर तुम खाओगे कैसे माखन ?
“सखी ! हाथ में” ………कन्हैया नें हँसते हुए कहा ।
नही नही …………एक काम करो ना ………..वो रहे वट के पेड़ उसके पत्ता तोड़ लाओ ………मैं बढ़िया दोना बना दूंगी तुम खा लेना उसमें माखन ।
ठीक है ……….तू बैठ ! मैं अभी आया…………..कन्हैया दौड़े वट वृक्ष के पास और पत्ता तोड़नें लगे …….उस दिन कोई ग्वाल सखा साथ में थे नही ………गौ चरानें के लिये उन सबको छोड़कर ये इधर चले आये थे ।
चन्द्रावली नें अवसर देखा……..उसनें मन ही मन में कहा ……”मुझ चन्द्रावली से दान लेगा…….अरे ! जा तेरे जैसे बहुत देखे हैं” ………चन्द्रावली तो चली गयी …………..।
कन्हैया आये पत्ता तोड़कर ………..पर चन्द्रावली तो है ही नही ।
समझ गए कन्हैया……….मुझ को छल गयी ……….पर वो भी जानती नही है मुझे ………मैं छलूँगा ना …….तो फिर वो कहीं की नही रहेगी ।
और सच तात ! कन्हैया नें जब उसे छला तो वो कहीं की नही रही …..उसे प्रेम रोग नें ऐसा पकड़ा ……..उद्धव बता रहे हैं ।
*क्रमशः ….
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