श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! प्रेमी सर्वस्व त्यागता है – “रासपञ्चाध्यायी” !!
भाग 2
गाय दुह रही थी एक गोपी ……उसका नाम गूँजा बाँसुरी के स्वर में ………वो बदहवास सी भागी उसी दिशा की ओर जिस दिशा से बाँसुरी की ध्वनि आरही थी……वस्त्र अस्तव्यस्त हो गए हैं उसके…….दोहनी फेंक दी ……दूध दुहनें वाला पात्र गिर ही गया……फ़ैल गया था दूध …..पर इसे भान कहाँ ? ये तो बस भाग रही है…..अस्त व्यस्त सी ।
कामदेव नें देखा , आश्चर्य ! अब दूसरी गोपी का नाम गूंजा बाँसुरी में ..
कामदेव नें उस गोपी को देखा – वो दूध बैठाकर आँच में आयी थी …..पर उसी समय बाँसुरी की ध्वनि……दूध उबलता रहा….फ़ैल गया…….पर वो गोपी भागी……पागल की तरह भागी…….ऐसे भागी जैसे उसका बहुत कुछ छूट रहा हो और उसे पकड़ना है ।
एक गोपी तो अपना श्रृंगार कर रही थी …..आईने के सामनें बैठकर सज रही थी ……..सजते हुए मुग्ध थी ………..कामदेव नें देखा …….वो सुन्दरी थी ………अत्यन्त सुन्दरी ……….सुन्दरी तो सब हैं यहाँ ……अद्भुत रूप लावण्य है इन सबका ……….स्वर्ग की अप्सरायें सब व्यर्थ थीं इनके आगे ।
तात ! तो कामदेव नें देखा ………वो गोपी मन्त्र मुग्ध हो अपना श्रृंगार कर रही थी ………तभी – बाँसुरी की ध्वनि गूँजी …..और बाँसुरी की ध्वनि में इसी गोपी का नाम श्यामसुन्दर पुकार रहे थे ………वो तो सब भूल गयी …..देहभान भूल गयी ……देहातीत हो गयी ………
“काजल होंठों में लगा लिये ….और लाली नयनों में लगा ली”.
वो भागी …….उसे अपना भी भान नही है ……पर बाँसुरी का स्वर जिधर से आरहा था उस ओर ही इसके कदम बढ़ रहे थे ….अपनें आप ……….आहा !
कोई गोपी अपनें पति को भोजन करा रही थी…….पास में बैठी थी अपनें पति के, पँखा लेकर पँखा कर रही थी ………पति नें कहा …..”थोडी दाल देना”……वो दाल लेनें के लिये जैसे ही उठी …….
बस उसी समय बाँसुरी बज गयी ………..और इसी गोपी का नाम ……वो तो सब कुछ भूल गयी ….हृदय में श्याम सुन्दर मुस्कुरा उठे थे ……वो भागी ………..पति कुछ समझ पाता उससे पहले ही वो वृन्दावन के घन कुञ्ज में खो गयी थी ।
उद्धव ! ये तो पति की अवहेलना है ……..स्त्री का धर्म है पति का आदर करना …….फिर ये सब क्या है ? विदुर जी नें उद्धव से पूछा ।
तात ! अभी आगे सुनो …..ये तो कुछ नही है ……….एक गोपी अपनें शिशु को दूध पिला रही थी ……….तभी बाँसुरी ! तात ! उसके गोद का शिशु गिर गया ….उसे पता भी न चला …..और वो भागी ।
ये तो कुछ ज्यादा ही हो गया उद्धव ! विदुर जी नें फिर कहा ।
“ये तो पाप है”……….विदुर जी नीतिज्ञ हैं ……..वो बोले ।
उद्धव हँसे …..क्या पाप क्या पुण्य ? पाप पुण्य का कारण मन होता है ना तात ! फिर यहाँ इन गोपियों के पास अपना मन है ही नही …….फिर कहाँ पाप कहाँ नर्क कहाँ स्वर्ग …….इनकी स्थिति स्वर्ग नर्क पाप पुण्य ही क्या इन्होनें तो मुक्ति तक को ठुकरा दिया है ।
इनका मन श्रीकृष्ण ही बन गया है तात !
ये सब सहस्रों की संख्या में थीं …….और सब वृन्दावन में दौड़ रही थीं …….और आश्चर्य ! कोई किसी को देख भी नही रही थीं ।
अस्त व्यस्त शरीर , वस्त्र आभुषण अस्तव्यस्त …….इनको और मनोहारी बना रहा था ……….।
हाँ , हाँ , अरी रुक ! किसी का पति चिल्ला रहा था , इस समय वन में मत जाओ ! किसी गोपी के पिता अपनी पुत्री को पुकार रहे थे ….कोई तो दौड़कर पकड़ना चाह रहा था ….पर ये दौड़ ऐसे रही थीं कि किसी की पकड़ में कहाँ आतीं ………हाँ किसी पति नें पकड़ लिया अपनी पत्नी को ……..पर वो तो “हा श्यामसुन्दर” कहकर चिल्लाई और गिर पड़ी धरती पर……पर यही गोपी अन्य गोपियों से पहले पहुँची श्रीकृष्ण के पास……….उसका शरीर यहीं रह गया था ……..पर आत्मा से वो श्रीकृष्ण के पास ही प्रथम पहुँची ।
कामदेव नें देखा …….जिसके गोप नें अपनी गोपी को पकड़ा था …..उस गोपी की आँखें बन्द हो गयीं थीं ……..असह्य विरह वेदना से उसका देह काला पड़नें लगा था ……….पर देखते ही देखते फिर उज्ज्वल हो गया उस गोपी का देह …………क्यों की तात ! विरह अग्नि से उसके सारे कर्म प्रारब्ध जल गए थे ………..कोई पाप या पुण्य किसी जनम के अगर शेष भी थे तो सब भस्म हो गए गोपी के ।
कामदेव देखता है – जब उस गोपी का देह उज्वल हो गया…….उस समय उस गोपी का जो तेज था वो तो स्वर्ग के किसी देव में भी नही देखा गया था…..एक योगिनी महान तपश्विनी का तेज प्रकट हो गया था उस गोपी के मुखमण्डल में………
उस गोपी का पति घबराया हुआ था …..जल के छींटे गोपी के मुख में दे रहा था …………पर वो मुस्कुरा रही थी ……..उसका ध्यान लग गया था श्यामसुन्दर में ……….और ऐसा ध्यान लगा जो बड़े बड़े योगियों का भी लग नही पाता …….मन बुद्धि चित्त अहंकार सब कुछ एक ही क्षण में जल गया था ……..आत्मा ! आत्मा तो श्री कृष्ण ही थे उसके ……..वो उसी में लग गया……गोपों के घरों में उनकी पत्नियाँ थीं ………पर मात्र देह था उनका …………मूल रूप से तो वे श्रीकृष्ण के पास चली गयीं थीं ।
पर चौंक गया कामदेव एकाएक …………गोपियां घर में भी थीं ………उनके पतियों को लगा कि मेरी पत्नी मेरे पास है …..पर वो सब श्रीकृष्ण के पास जा चुकी थीं ।
कामदेव के कुछ समझ में नही आरहा ………आहा ! इनके बराबर त्यागी कौन है इस जगत में ? विराग इसे कहते हैं ………सन्यासी सच में ये गोपियाँ हैं …….जिन्होनें सहज में संसार के मिथ्यात्व को समझ लिया …..और चल पडीं थीं अपनें सनातन प्रियतम के पास ।
कामदेव नें अपनें माथे का पसीना पोंछा ।
Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877