श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! ओ कपटी ! – “गोपिकागीतम्” !!
भाग 2
“मैं” आगया ……तो प्रियतम का वियोग हो गया ………”मैं” गया तो प्रियतम का प्राकट्य हो गया……..ये लीला है ……..यही रस है ……इसी रस के समूह को रास कहा जाता है ।
तात ! कितना बड़ा दुर्भाग्य है ना हम लोगों का …………जो हमारे निकट है ………अत्यन्त निकट ……जो अपना है …….शायद इससे ज्यादा अपना और कौन होगा ……..पर वही हमें पराया लगता है …..और जो पराये हैं …………वो अपनें लगते हैं ।
अपना एक मात्र नन्दनन्दन है…….इस सच्चाई को गोपियों नें अच्छे से समझा है………माना है……….प्रेम परवान चढ़ा है इनका ………तब क्या मान, क्या मर्यादा ?
तू कहाँ है ? ओ कपटी ! आ ! हमें दर्शन दे !
गोपियाँ चिल्ला उठती हैं कालिन्दी के तट पर……….ओहो !
ओ कपटी ! हमनें तेरे लिये क्या नही किया ?
पतियों को त्यागा , ये साधारण बात है ? अरे ! कोई मनचली स्त्री पति को त्यागे तो साधारण ही बात है ….पर हम तो ऐसी नही थीं …..हम तो धर्म के मार्ग में चलनें वाली स्त्री थीं ……धर्म, मान, मर्यादा शील सबका पालन करना हमारा व्यसन था ………..पर तुमनें हमारे साथ जो किया वो बहुत गलत है …………हमनें अपनें पति को त्यागा …….अपनें पुत्र को त्यागा ……भाई, पिता , माता सबको त्याग कर, कल को हमारा क्या होगा ये भी बिना विचारे तुम्हारे पीछे चली आईँ ……..पर तुम ! बड़े धूर्त हो ……..कपटी हो …………हमारे प्रेम का ये परिणाम ?
गोपियाँ सब एक साथ बोल रही थीं ये सारी बातें ।
अज़ीब हो ! ऐसे अपनी त्याग की महिमा कौन सुनाता है गोपियों !
और वैसे भी जो त्यागा जाता है …..उसका बखान करना उचित नही है ।
हृदय में विराजमान नन्दनन्दन मानों गोपियों से फिर सम्वाद कर रहे हैं ।
इतना सुनते ही सारी गोपियाँ रो पडीं ………….धरती में बैठ गयीं ……अब उनके देह में इतना सामर्थ्य भी नही रह गया कि वे खड़ी भी हो सकें ……….अविरल अश्रु की धार से बृजभूमि भींग रही थी ।
हाथ जोड़नें लगीं गोपियाँ …………हमें गलत मत समझो ……..हम तो ये सब इसलिये कह रही हैं , ताकि तुम यहाँ आजाओ ।
गोपियों ! तुम्हारे इस त्याग की चर्चा से मैं आजाऊँगा ?
प्रियतम ! हमनें महर्षि शाण्डिल्य से सुना था कि ईश्वर त्याग से मिलता है …..जब “वो” ईश्वर त्याग से मिल सकता है ….तो हमारा ईश्वर त्याग से क्यों नही मिलेगा ……….हमारे ईश्वर तो तुम हो न प्यारे !
क्या मुझे पता नही है …….फिर ढिढ़ोरा क्यों पीटती हो अपनें त्याग का ?
हे प्यारे ! बुरा मत मानों ………..हमें लगा कि तुम भूल गए होगे हमारे त्याग को ………..हमें लगा कि तुम्हे स्मरण करा दें कि ………हम सब त्याग कर आईँ हैं तेरे पास …..अब हम कहाँ जाएँ ।
ओहो ! तो अब समझा में ……..तुम्हे डर है कि ……तुम्हारे पति तुम्हे घर में अब घुसनें नही देंगे ? तो सुनो …….तुम जाओ घर अपनें …….तुम्हारे पति तुम्हारा सम्मान करेंगे ………..आदर करेंगे ।
गोपियों को लग रहा है कि ….उसके प्रियतम श्यामसुन्दर बोल रहे हैं ।
इस बात पर गोपियों को फिर गुस्सा आजाता है …………..
हम सही कहती हैं …….तुम धूर्त ही हो …….कपटी हो !
हद्द है – हमनें सबको छोड़ा तुम्हारे लिये ….और तुम कह रहे हो …जाओ !
अब कहाँ जाएँ ? अगर ऐसे ही करना था तो क्यों प्रेम की इतनी बड़ी बड़ी बातें करी …….क्यों ?
याद रखो ! अगर इसी तरह हमें तुम वियोग में तड़फ़ाते रहे …..तो यहीं यमुना में कूद कर हम अपनें प्राण त्याग देंगी……..फिर तुम्हे पाप लगेगा……..ये कहते हुये गोपियों का मुख मण्डल लाल हो गया था ………वो काँप रही थीं ……….उनकी साँस अत्यन्त गर्म गर्म चल रही थीं……….ओ कपटी ! ओ धूर्त ! ये कहती हुयीं गोपियाँ तो क्षण में ही मूर्छित हो गयीं थीं ।
*शेष चरित्र कल –
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