श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! मेरे वक्ष हैं कठोर, तेरे कोमल चरण – “गोपिकागीतम्” !!
भाग 1
संयोग वियोग ये सब लीला है तात ! अगर वियोग न हो तो जगत को पता कैसे चलेगा कि ……..दिव्य प्रेम क्या है ।
अवतार लेकर आये हैं नन्दनन्दन ……गोपियां आदि समस्त परिकर ही उतरा है गोलोक धाम से ……..तब क्या श्यामसुन्दर यहाँ पृथ्वी लोक में मात्र संयोग की लीला ही करते ? मात्र महारास ही करते रहते ? क्या इससे अवतार का प्रयोजन पूर्ण हो जाता ? उद्धव कहते हैं – नही होता ……..क्यों की अवतार का प्रयोजन ये है कि ……..हे जीव ! अपनें .अनादि प्रियतम के प्रति तुम्हारी तड़फ़ है ? है तो कितनी है ? क्या प्राण तड़फ़ उठते हैं ? लगता है तुम्हे कि …..सच्चे प्रियतम को बिना पाये क्या जीना ?
तात ! नन्दनन्दन के अवतार का प्रयोजन यही है ……कि जीव अनन्त जन्मों से भटक रहा है ………वो समझ ही नही पा रहा कि मेरे अंदर जो तड़फ़ है वो किसके लिये ?
“श्रीकृष्ण के लिये”……उद्धव स्वयं ही कहते हैं ।
गोपी गीत, गोपी प्रेम के माध्यम से सबको नन्दनन्दन यही सन्देश दे रहे हैं कि ……देखो ! तड़फ़ ! देखो विरहासक्ति !
उद्धव कहते हैं......विरह हो ....और विरह तीव्र हो...उत्कंठा चरम पर पहुँचे......लगे कि ...प्राण अब निकल जायेंगे.....वो तड़फ़ !, यही सन्देश देंने के लिये अवतार हुआ है....नही तो इन गोपियों के संयोग की लीला नित्य गोलोक धाम में और नित्य निकुञ्ज में चलती ही तो रहती है ।
उद्धव रहस्य उजागर करते हैं ।
रात्रि है , यमुना मन्द मन्द बह रही है……चन्द्रमा खिले हैं पूर्णता से ।
यमुना की रेती चमक रही है चन्द्रमा की चाँदनी में ……..दिव्य छटा है यमुना तट की ………….पुष्प खिले हैं चारों ओर ………..उनमें भौरों का झुण्ड गुनगुना रहा है………सरोवरों में कमल खिले हैं …….कमल भी हर रंग के ……..अद्भुत लग रहा है वृन्दावन ।
पर गोपियाँ ? ये विरहासक्त हैं आज ……….श्यामसुन्दर नें रास करते हुये इन्हें छोड़ दिया है ……..ये विरह में इतनी डूब गयीं हैं कि ……..अब इन्हें लगता है ……प्राण निकल जाएँ …..पर ये मर भी नही सकतीं …….इसलिये नही मर सकतीं कि ” प्रियतम की बदनामी होगी” …..लोग हमारे नन्दनन्दन को दोष देंगे कि “तुम्हारे कारण ये मरीं” ।
इसलिये इनकी स्थिति तो बड़ी विचित्र बन गयी है ………जी सकती नहीं हैं अपनें प्रेमास्पद के बिना ………और मर जाएँ तो बदनामी होगी अपनें श्याम की ……..अहो ! कैसा विशुद्ध प्रेम है……..हमें कुछ भी हो जाए पर हमारे प्रियतम तक बात नही आनी चाहिये ! उफ़ !
*क्रमशः…
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