श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! श्रीकृष्ण द्वारा हाथी का वध !!
भाग 2
बस फिर क्या था वाद्य बजनें लगे ……….वीर रस को घोलनें वाला स्वर छेड़ दिया था इन संगीतज्ञों नें ।
जल्दी कर कन्हैया ! जल्दी कर ! देरी हो गयी तो हमें रंगशाला में जानें भी नही देंगे……..बलभद्र नें अपनें अनुज को कहा था ।
बस मैं तो तैयार हूँ ……ये मोर मुकुट आज ठीक से लग नही रहा ।
श्रीकृष्ण नें कहा ।
रुक मैं लगा देता हूँ ……….श्रीदामा आगे आया ……..और उसनें मोर मुकुट ठीक ठीक लगा दिया ……फिर दूर जाकर देखनें लगा ……हाँ , अब ठीक है ………….पीताम्बरी धारण की ………मोतियों की माला , गुंजा की माला ………..
मथुरा से अपनी मैया के लिये क्या ले जायेगा ? मनसुख नें ऐसे ही पूछ लिया ……….कन्हैया नें मनसुख के मुख की ओर देखा ……..चौंक कर देखा था ……ये पूछ क्या रहा है ! क्यों, तेरी मैया तुझ से इतना प्रेम करती है ….उसके लिये इस महानगर से कुछ नही ले जाएगा ? ………ले जाऊँगा ना ! देखता हूँ वहाँ शायद कुछ मिल जाये ………..ये कहते हुये अपनें सजल नयनों को छुपा लिया था कन्हैया नें ।
अब चलो दाऊ भैया ! श्रीकृष्ण चल दिए दाऊ भैया के साथ ….उनके साथ सब ग्वाल बाल सजे धजे चल रहे हैं ……….आज मथुरा के मार्ग में भीड़ नही है………क्यों की सब कंस की रंगशाला में जा चुके हैं ।
तेज चाल से चलते हुये ये सब पहुँचे थे रंगशाला के द्वार पर ……….
” ये पर्वत जैसा हाथी ! ” सफेद हाथी था वो ……….पर बहुत बड़ा विशाल उसका देह था ।
उद्धव बोले …..कुबलियापीढ़ नाम था इसका ।
मगध नरेश जरासन्ध का हाथी था वो. …..इसमें शक्ति बहुत थी ……
तात ! कहते हैं …..जब कंस आठ वर्ष का था …..तब मथुरा में आक्रमण करनें आया था जरासन्ध ……..और यमुना के किनारे ये अपनी सेना को लेकर रुका था……तब कंस खेलते हुये वहाँ पहुँचा ……हाथी सफेद था…….बड़ा पर्वताकार …….इसे अच्छा लगा…….
उसी समय जरासन्ध वहाँ आगया था ….कंस को देखकर समझ गया ये मथुरा का युवराज है ………….बोला ……….तुझे कुचल देगा ये हाथी ……तू कुछ नही कर सकता ………जरासन्ध ये कहते हुये हंसा ……पर कंस सहज ही रहा ।……….उद्धव कहते हैं – कुबलियापीढ़ आगे बढ़ा ……और कंस को अपनी सूंढ़ से उठाकर फेंकनें ही वाला था कि …..कंस नें फुर्ती से उस हाथी का सूंढ़ पकड़ कर घुमाकर दूर फेंक दिया ।
जरासन्ध चकित था ……ये हाथी कोई साधारण नही …….इन्द्र के हाथी .एहरावत का रक्त इसमें था………पर कंस नें इसे पराजित किया ।
जरासन्ध नें कंस को अपना जमाई बना लिया और अपनी दो बेटियां इसको दे भी दीं …….कंस की वीरता से ये बहुत प्रसन्न था ।
उद्धव नें विदुर जी को ये बात कुबलियापिढ़ के सम्बन्ध में बताई ।
हजार हाथियों का बल इस अकेले हाथी में है…..बलभद्र भैया नें कहा ।
ए हटो ! हटो ! महावत हाथी में बैठा है और इन ग्वालों को भगा रहा है …….”.हमारे मामा जी को हाथी है छु लीयो तो तुम्हारौ का भयो”…..मनसुख हंसते हुये बोला ।
इस हाथी को सम्भालना भी मुश्किल था……ये प्रायः मतवाला ही बना रहता……मद इससे चुचाता रहता…….कब किसको कुचल देगा कोई पता नही……ये युद्ध के काम का हाथी था, कोई सवारी के मतलब का नही ।
कितना अच्छा श्रृंगार किया है इस हाथी नें भी …………श्रीकृष्ण हाथी से दूर जा ही नही रहे …………देखो इसके मस्तक में सिन्दूर लगा दिया है ……..इसके सूंढ़ में पत्रावली की गयी है ………ये कहते हुये हाथी के सूंढ़ को भी छूते हैं श्रीकृष्ण……..अब हाथी को चिढ होनें लगी थी ।
मनसुख ! ये दाँत …….हाथी के ये सफेद दाँत ……..मैं ये दाँत अपनी मैया को दूँगा ……वो चूड़ी बना लेगी ……..बहुत प्रसन्न होगी ना !
कन्हैया बोले ।
तभी सूंढ़ से हाथी नें श्रीकृष्ण को दूर फेंक दिया……..
श्रीकृष्ण गिरे……..पर हंसते हुये उठे…..अपनें वस्त्रों को झाड़ा …….और दौड़े हाथी के पास ………तेज दौड़े …………हाथी के पास आकर सबसे पहले उसके सूंढ़ को पकड़ा……..और घुमाया……..आश्चर्य ! हाथी दूर जाकर गिरा था…….महावत की तो हड्डी टूट गयी थी ।
अब हाथी का क्रोध देखनें जैसा था …….वो उठा ……..और पहले तो जोर से चिंघाड़ा ……….ग्वाल बाल बोले …..”.लाला सम्भलियो………हाथी गुस्से में है” …………
कन्हैया तैयार थे ………..हाथी जैसे ही आया पास में ………..फिर सूंढ़ पकड़ कर कन्हैया नें उसे घुमाया ………घुमाया …………बस घुमाते ही चले गए ………..और फिर फेंक दिया हाथी को ………बड़ी तेज आवाज में चिंघाड़ते हुये वो हाथी गिरा और मर ही गया ।
पास में गए कन्हैया ………….हाथी मृत पड़ा है ………उसके दाँत को पूरी ताकत से खींचा कन्हैया नें ………….दाँत उखड़ कर हाथ में आगये थे ……..बस , दांतों को अपनें हाथों में पकड़ कर ……..रंगशाला में प्रवेश करनें लगे कन्हैया ।
अद्भुत दृश्य था………..हाथी को मार दिया ये सूचना रंगशाला में बैठे प्रत्येक नर नारी को मिल गयी थी……..एक अलग उत्साह का संचार हो गया था मथुरा की प्रजा में……..अब प्रवेश करते हैं श्रीकृष्ण रंगशाला में………उद्धव नें विदुर जी को ये प्रसंग बड़े प्रसन्न होकर सुनाया था ।
शेष चरित्र कल –
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