श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! अब गुरु दक्षिणा की बारी थी !!
भाग 1
चौंसठ दिन आज पूरे हो गए थे……सम्पूर्ण विद्या इन अल्पकाल में ही श्रीकृष्ण और बलभद्र नें प्राप्त कर ली थी ।
हे कृष्ण ! हे बलभद्र ! तुम्हारी शिक्षा पूरी हुयी….अब तुम जा सकते हो ! ऋषि सान्दीपनि नें भावुक स्वर में कहा ।
तुम सब जानते हो……”विद्यानिधि” हो तुम फिर भी तुमनें मुझे गौरव प्रदान किया हे कृष्ण ! तुम्हारी जय हो …सर्वत्र जय हो …..ये कहते हुये श्रीकृष्ण के मस्तक में सान्दीपनि नें अपनें हाथ रखे थे ।
गुरुदेव ! आप परमत्यागी हैं ….पूर्ण अकिंचन हैं ……..किन्तु शिष्य की प्रसन्नता के लिये आपको दक्षिणा स्वीकार करनी चाहिये ….ये आपका अधिकार है गुरुदेव ! श्रीकृष्ण सान्दीपनि के चरणों में अपना मस्तक रखते हुये बोले थे ।
भाव सिन्धु में अवगाहन करनें लगे सान्दीपनि …….अहो ! कृष्ण जैसा शिष्य मुझे प्राप्त हुआ अब मुझे क्या चाहिये ! …..हे कृष्ण ! मेरे मन में पूर्व में भी कोई कामना नही थी …..और फिर तुम्हारी ये साँवरी सूरत देखकर तो मैं पूर्ण निष्काम ही हो गया …….आयुष्मान् भवः …..अब सेवार्थ जाओ तुम इस गुरुकुल से……..सान्दीपनि नें विदा दी ।
श्रीकृष्ण उठे ………….पीछे मुड़कर देखा तो …….गुरुमाता रो रही थीं …..श्रीकृष्ण नें जाकर गुरुमाता के चरणों में भी वन्दन किया ……….
मथुरा से रथ आचुका था ………जो सामनें ही खड़ा था ।
गुरुमाता को प्रणाम करते हुए श्रीकृष्ण बोल उठे ……….माते ! गुरुदेव दक्षिणा नही लेते पर आपका स्वत्व है ……..आप माता हैं इस पुत्र से जो चाहें आप माँगे …………श्रीकृष्ण की वो मधुर मूरत देखकर माता रो पडीं । ……..कृष्ण ! मेरा एक पुत्र था ! तुम्हारे वय का था ……पर !
हिलकियाँ शुरू हो गयीं थीं गुरुमाता की ।
पर क्या माता ! श्रीकृष्ण के पूछनें पर गुरुमाता नें सब कुछ बता दिया था ………।
समुद्र के तट प्रभास क्षेत्र में सूर्य ग्रहण के समय हम लोग स्नान करनें के लिये गए थे ………..वहाँ हम लोग बैठे थे तभी एक भयानक लहर आयी और मेरे बालक को बहा कर ले गयी ……..इतना कहते हुये गुरुमाता फिर रोनें लगीं थीं ।
हम कुछ दिन तक प्रतीक्षा करते रहे वहाँ …….पर ……………।
वत्स ! तुम्हारी गुरुमाता तुमसे अपना पुत्र चाहती हैं !
सान्दीपनि नें बात को स्पष्ट किया था ।
सुदामा ! क्या प्रभास क्षेत्र का मार्ग तुम जानते हो ? श्रीकृष्ण नें पूछा ।
हाँ …..सुदामा नें कहा । ………शीघ्र श्रीकृष्ण बलराम और सुदामा होकर रथ में बैठे ………रथ चल पड़ा …….वायु की गति से रथ चल रहा था ………कुछ ही समय में प्रभास क्षेत्र के समुद्र किनारे ये सब थे ।
धनुष साथ में था श्रीकृष्ण के ……अपार जल राशि लहरा रही थी सामनें ……..सागर को देखकर जैसे ही धनुष को खींचा …..सागर तो भयभीत हो गया ……..त्रेतायुग को भूला नही है अभी तक ……श्रीरघुनाथ जी का वो बाण …………..इसलिये सागर अधिदैव रूप से प्रकट हुआ था वहाँ पर ।
“मेरे गुरुपुत्र को वापस करो”…….आदेश था श्रीकृष्ण का ।
मेरे पास नही है भगवन् ! आपके गुरुपुत्र । हाँ आज से कुछ वर्ष पहले एक शंख रूप असुर नें आपके गुरुपुत्र का हरण किया था …….वो शंख के रूप में रहता है ………मैं स्वयं उससे आतंकित हूँ । सागर के मुख से इतना सुनते ही सुदामा और बलभद्र को वहीं बैठाकर…..श्रीकृष्ण अपार जल राशि में कूद गए ……….वो नीचे जा रहे हैं समुद्र के तल पर …….तभी वो शंख रूप असुर मिला ………….श्रीकृष्ण के लिये ये क्या था ………असुर का तो वध किया पर वहाँ गुरुपुत्र नही मिला ….पर हाँ ….एक शंख अवश्य मिल गया ……..पाञ्चजन्य शंख ।
क्षणों में ही ऊपर आगये श्रीकृष्ण ………..सुदामा नें पूछा …….गुरुपुत्र मिला ? नही सुदामा ! फिर क्या करोगे कृष्ण ! सुदामा सचिन्त बोला था ………..मैं अब यमपुरी जा रहा हूँ ………क्यों की गुरुपुत्र अब स्थूल देह को त्याग चुका है ……….वो वहीं होगा ।
बलभद्र नें कहा …..मैं भी चलूँ ? नही भैया ! आप और सुदामा यहीं रहो !
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –
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