श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! कुब्जा की प्रतीक्षा !!
भाग 2
कुब्जा घुँघट करके बैठ गयी ……अब आएंगे ! अब आएंगे !
उसकी धड़कनें तेज हो रही हैं ।
द्वार खुला…….कुब्जा की साँसे थम सी गयीं थीं …….वो आनन्द के सागर में हिलोरें ले रही थीं……कि – नही आये आपके प्रियतम !
दासी नें कह दिया ।
कुब्जा उठकर खड़ी हो गयी………फिर झरोखे में जाकर बैठ गयी आनें जानें वालों को वहीं से देख रही है ।
शाम होनें आई ………एकाएक हंस पड़ी कुब्जा ……मैं भी कितनी पागल हूँ …….दिन में क्यों आने लगे वे ……..वे तो आएंगे रात्रि को ……..तभी हमारा मिलन होगा ……”पगली हूँ मैं भी” ….अपनें सिर में वो स्वयं ही मारती है ……….चलो अब ! रजनी के मिलन की तैयारी करते हैं………हंसती हुयी फिर तैयारी में लग जाती है ……..अंगराग लगाती है वो अपनें देह में ……….फिर फिर सजती है ……..सुन्दर वस्त्र पहनती है …….पुष्पों को बिखेर देती है सेज में ……….पुरानें पुष्पों को हटा देती है …………घी के दीये में सुगन्धित तैल डालकर जला देती है …..भीनी भीनी सुगन्ध फ़ैल रही है उसके महल में ।
“एक रथ आरहा है आपकी ओर…….सुवर्ण का रथ है ….”
कुब्जा की सेविका नें आकर सूचना दी ……..उसे अब विश्वास नही हुआ………वो स्वयं गयी देखा सामनें के महल में रथ खड़ा है ……वो महल अक्रूर जी का था…….सच में अक्रूर जी के महल में रात्रि के समय श्रीकृष्ण गए थे ……राजकीय चर्चा करनें ।
कुब्जा अपनी सेविका के गले लग जाती है……..तू बहुत अच्छी है मेरी प्यारी ! तेने सही सूचना दी मुझे……कुब्जा भीतर जाती है …..फिर इत्र आदि का छिड़काव करती है…….ये पुष्प बासी हो गए हैं ……नये पुष्पों को फिर बिखेर देती है……आईने के सामनें जाकर खड़ी है वो …….फिर सेज में आकर बैठ जाती है……….घूँघट करके ।
उसके देह में भुवन सुन्दर के स्पर्श की कल्पना से ही कम्पन हो रहा है …..वो अतिआनन्दित होकर बारबार रोमांचित हो रही है ।
अब आये ! हवा चलती है ……तो कुब्जा को लगता वे आये ! आहट आती है तो लगता है वो आये………कुछ पत्ते गिरते हैं वृक्षों से तो उसे लगता है – वो आये…………पर –
“रथ तो चला गया”………..सेविका नें अब ये सूचना दी ।
घूँघट को हटाते हुये वो भागी…….झरोखे से उसनें भी देखा ….श्रीकृष्ण सुवर्ण रथ में बैठकर वापस जा रहे हैं ।
कुब्जा से ये सब देखा नही जा रहा……वो भीतर गयी……उसनें सेज के को बिगाड़ दिया …….वो रोनें लगी …..उसकी आँखें क्रोध से लाल हो गयीं थीं …………फूलों की सारी सजावट बिगाड़ दी थी उसनें ……अपनें महल के आईने सारे तोड़ दिए थे उसनें …………केशों को बिखेर लिया था उस कुब्जा नें …….”.राधा” “राधा” वो राधा उसकी प्रेयसि है ना !
मुझ से सुन्दर होगी क्या वो राधा ?
कुब्जा धड़ाम से धरती पर गिर पड़ी थी ।
तात ! श्रीराधा के चरण रज के समान भी नही है कुब्जा ।
श्रीराधा का प्रेम उच्चतम है ……….श्रीराधा के चरण धूल की कामना शिव ब्रह्मादि करते हैं ………फिर उद्धव कहते हैं……..नही नही …..श्रीराधा के चरण धूल की कामना नही ……….गोपियों के चरण धूल की कामना…….फिर श्रीराधा कैसी होंगीं ? उनका प्रेम क्या होगा !
ये कुब्जा मात्र देह सुख चाहती है श्रीकृष्ण से…….पर चाहती तो श्रीकृष्ण से हैं ना ! इसलिये ये भी धन्य ही है …..उद्धव फिर बोले थे ।
शेष चरित्र कल –
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