श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! “वसन रूप भए श्याम” – उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 56 !!
भाग 1
ऐसे ही नही कहा गया कि जुआ में कलि का वास होता है , उन्मादग्रस्त बुद्धि हित अनहित का विवेक करने में समर्थ नही होती , और कलि को प्रिय है उन्माद और फिर जुआ बिना उन्माद के सम्भव भी तो नही है । तात ! युधिष्ठिर आज पक्के जुआरी बन गए हैं , सब कुछ हार बैठे हैं अब कुछ नही है इनके पास दाँव में लगाने के लिए ।
द्रौपदी है ना ! दुशासन ने सभा में नाम लिया था ।
दुर्योधन के एक छोटे भाई विकर्ण ने द्रौपदी के नाम का विरोध किया ।
वो हमारी भाभी हैं , विकर्ण की बातें सुनकर दुर्योधन हंसा , ये भी तो हमारे पूज्य भाई हैं पर हार गए हैं , अब ये हमारे दास हैं । और विकर्ण ! तू इतना क्यों अकुला रहा है इन पाण्डवों के दुःख में , और ज़्यादा ही अकुलाहट हो रही है तो जा अपने महल में बैठ कर रो ले , दुर्योधन ने विकर्ण का भी अपमान कर दिया था , वो और कुछ बोलने जा रहा था पर दुर्योधन ने उसे डाँट कर सभा से बाहर कर दिया ।
बोलो द्रौपदी को लगाओगे दाँव में ? युधिष्ठिर से शकुनि ने पूछा ।
युधिष्ठिर कुछ नही बोल रहे हैं, भैया ! अब चलिए , अर्जुन ने कहा ।
कहाँ ? दुर्योधन ने क्रूरता पूर्वक हंसते हुए पूछा ।
ओए गाण्डीव धारी ! तुम लोग मेरे दास हो , ये बात मत भूलो , दुर्योधन की इस बात पर अर्जुन क्रोध को पीकर बैठे रहे ।
देखो युधिष्ठिर ! अगर तुम द्रौपदी को दाँव में लगाते हो और जीत गए तो जो हारे हो तुम, राज पाठ सम्पदा , सब कुछ तुम्हारा । शकुनि बोला ।
ये अनीति बन्द करवाइए महाराज !
तात ! सभा में खड़े होकर आप धृतराष्ट्र से बारम्बार विनती कर रहे थे ।
खेल में अनीति कहाँ हैं ? और हार जीत तो खेल का अंग ही है , पाण्डव नही तो मेरे कौरव हारते , पर तुम क्यों परेशान हो रहे हो महामन्त्री ! धृतराष्ट्र ने आपसे कहा था । उद्धव की बातों से उस काल की घटनाओं का स्मरण कर गम्भीर हो उठे थे विदुर जी ।
“ठीक है , मैं अंतिम दाँव – द्रौपदी का लगाता हूँ” । सिर झुकाकर लडखडाई आवाज़ में युधिष्ठिर बोले ।
पूरी सभा स्तब्ध हो गयी थी , दुर्योधन प्रसन्न था, शकुनि के आनन्द का आज कोई ठिकाना न था।
कर्ण अर्जुन को दुखी देखकर अति प्रसन्न था ।
दुशासन मामा शकुनि को पीछे से उकसा रहा था । पूरी सभा की दृष्टि चौसर पर लगी हुई थी अब ।
“आठ” अंक माँगा था युधिष्ठिर ने , पर पासे तो शकुनि के थे वो युधिष्ठिर की बात भला क्यों मानते । “दो” अंक शकुनि ने कहा था । ओह विधाता , ये क्या समय दिखा रहे हो इन कुन्ती पुत्रों को , भीष्म पितामह रो उठे , कृपाचार्य , द्रोणाचार्य अन्य सभा में बैठे सज्जन वृन्द अब काँप गए , क्यों कि युधिष्ठिर द्रौपदी को भी हार गए थे ।
अब क्या करें मामा ! वो साँवरी द्रौपदी !
करना क्या है मित्र बुलाओ उस अभिमानी नारी को इस सभा में । कर्ण बोला ।
पर वो तो मासिक धर्म में है ? दुर्योधन ने नाटकीय स्वर से पूछा ।
वेश्या का क्या धर्म ! कर्ण ने अर्जुन को सुनाने के लिए ही द्रौपदी के लिए ये शब्द बोले थे ।
अर्जुन क्रोध से काँपने लगा , तुझे काट दूँगा कर्ण , चिल्लाया अर्जुन ।
लाओ उस वेश्या को इस सभा में , क्या लगता है द्रौपदी को वेश्या कहने में , अरे , पाँच पति जिसके हों उसे क्या कहोगे !
आपकी कुल वधू का ऐसा अपमान ! और आप सब सुन रहे हैं ,
विदुर जी आप फिर बोले थे महाराज धृतराष्ट्र को ।
पर उद्धव ! मेरी महाराज ने नही सुनी , मैंने भीष्म पितामह से भी प्रार्थना की किन्तु वो भी असहाय से दीखे , इस अधर्म को , इस अत्याचार को रोकने वाला मुझे वहाँ कोई दिखाई नही दिया ।
दुशासन ! जाओ द्रौपदी को ले कर आओ , और अगर वो आने को नही मानती तो केश पकड़ कर घसीटते हुए लाओ ! जाओ ! । दुर्योधन ने अपने भाई दुशासन को आज्ञा दे दी थी ।
दन्तवक्र, शाल्व, इन्होंने आक्रमण कर दिया था द्वारिका में , श्रीकृष्णचन्द्र ने बड़ा घमासान युद्ध किया , दन्तवक्र और शाल्व का वहीं वध कर दिया था । दन्तवक्र, शिशुपाल के वध से श्रीकृष्ण के प्रति अत्यन्त आक्रोशित था । उसने श्रीकृष्ण के इंद्रप्रस्थ में रहते ही इधर द्वारिका में आक्रमण की भूमिका बना ली थी । इधर श्रीकृष्ण पहुँचे द्वारिका उधर से दन्तवक्र और शाल्व ने आक्रमण कर दिया था । श्रीकृष्ण ही पर्याप्त थे इन के लिए , युद्ध हुआ , भयानक युद्ध था ये , बाद में श्रीकृष्ण ने शाल्व और दन्तवक्र का वध किया ।
तात ! देवों ने पुष्प बरसाए थे , और जयजयकार किया था ।
श्रीकृष्ण अब अपने महल में आगये , स्नान आदि किया , रुक्मिणी ने भोजन की थाल सजाकर श्रीकृष्ण के सामने रख दी थी और स्वयं पंखा झल रही थीं ।
एक ग्रास लिया और जैसे ही मुँह में रखने लगे ….अश्रु बह चले श्रीकृष्ण के ।
ग्रास को थाल में वापस रख दिया । क्या हुआ नाथ ! रुक्मणी ने पूछा तो अश्रुओं को पोंछते हुये श्रीकृष्ण इतना ही बोल सके – मेरी वो द्रौपदी आज !
तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे मेरे नाम से पुकारने की , दुशासन ! तू जानता नही है मेरे अर्जुन को , उसके गाण्डीव की टंकार से ब्रह्माण्ड काँप जाता है ।
हा हा हा हा हा………..कुछ देर वो हँसता रहा दुशासन ।
तभी एक दासी ने आकर सभा में घटित सारी घटना द्रौपदी को बता दी ।
ओह बेचारी द्रौपदी , शून्य हो गयी थी वो , क्या सब कुछ हार गए हैं महाराज युधिष्ठिर !
तुम्हें भी हारे हैं , दुशासन ने द्रौपदी से कहा ।
पर मुझे हारने से पहले तो स्वयं महाराज अपने को हार चुके थे ना , फिर मुझे वो दाँव में कैसे लगा सकते हैं ! बेचारी द्रौपदी तर्क प्रश्न प्रतिप्रश्न करती है ।
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल-


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