श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! “सुदामा और वो केवट” – उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 61 !!
!! “सुदामा और वो केवट” – उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 61 !!
अरे किसी को पार जाना है क्या ? अब सीधे शाम को आएगी नाव !
एक नाव लेकर आगया था केवट , और आवाज़ लगा रहा था ।
ओ पण्डित जी ! तुम जाओगे क्या पल्लीपार ? सुदामा ही थे उस समय वहाँ , पर सुदामा तो अपने आत्मचिंतन में लीन थे वो कहाँ से सुनते , पर सुना सुदामा जी ने जब तीन बार उस केवट ने सुदामा को ही इंगित करके कहा तब सुदामा का ध्यान उधर गया ।
वो बेचारे उठे और नाव के पास भागे ,
आहा ! क्या केवट था , साँवरा सलोना , अद्भुत रूप लावण्य , घुंघराले केश , एक वस्त्र , वो वस्त्र अटपटे ढंग से सिर में बाँध रखा था पर वो भी केवट की शोभा को ही बढ़ा रहा था ।
सुदामा तो पास जाकर जड़वत् खड़े हो गए , केवट को देखते ही रहे थे ।
बैठो , केवट बोला ।
आहा ! “बैठो” कहने में भी कितना माधुर्य था सुदामा आनंदित होते हुए नौका में बैठ गए ।
अकेले नाव में सुदामा जी ही हैं , और वो तो केवट है ही , पतवार चलाते हुए देख रहा है सुदामा जी को , सुदामा भी उसे देख रहे हैं , पर वो जब देखता है तब सुदामा अपनी दृष्टि हटा लेते हैं ।
नाव मध्य में आगयी है , अब पतवार को पकड़े पकड़े ही केवट सुदामा जी के पास में गया ।
कहाँ से ? कहाँ से आए हो पण्डित जी ! बोल तो सम्मान से नही रहा था , बस सम्बोधन में पण्डित, “जी” भर लगा दिया था । “यहीं पास से ही”, सुदामा इतना ही बोले ।
अच्छा चलो , शुल्क दो नाव का । केवट शुल्क माँगने लगा ।
पर तुमने तो शुल्क की कोई बात की नही , तुमने कहा बैठो , मैं बैठ गया ।
सुदामा सीधे सादे हैं जो बात है बोल दिए ।
आहा ! बिना शुल्क के हम तुम्हें द्वारिका ले जाएँगे ! क्यों ?
पण्डित जी ! हम कुछ नही जानते शुल्क दो या उतरो नाव से । केवट दो टूक बोल गया था अब ।
सुदामा जी ने नाव से सागर को देखा , बड़ी बड़ी मछलियाँ हैं , अन्य जीव हैं , फिर गहराई इतनी है कि ……..भैया ! तैरना नही आता , भोले सुदामा यही बोले ।
“या शुल्क दो”,
बड़े अक्खड़पन से बोल रहा था वो केवट , पर अक्खड़पना भी इस पर जँच रहा था ।
नही है भैया , मेरे पास कुछ नही है । सुदामा जी रोनी सी सूरत बनाकर बोले ।
जब कुछ है नही पास में , तो क्यों जा रहे हो द्वारिका ? केवट पूछने लगा ।
देखो पण्डित जी ! द्वारिका औद्योगिक क्षेत्र है, लोग व्यापार के लिए आते जाते हैं वहाँ , पर तुम क्यों जा रहे हो ?
“मेरे मित्र हैं द्वारिकाधीश” , सुदामा छुपाना चाहते थे पर केवट पक्का था इसे बताना ही पड़ेगा नही तो सागर में ही समाधि बन जाएगी , बेचारे सुदामा , जो बात है बोल दिए ।
हा हा हा हा हा हा हा …………केवट हंसा , खूब हंसा ।
भाई हंसते क्यों हो ? सुदामा जी ने उससे पूछा ।
तन में वस्त्र नहीं हैं , अंटी में दाम नही हैं , और कहते हो मित्र हूँ द्वारिकाधीश का ।
सुदामा के नेत्रों से अश्रु गिरने लगे , भैया ! मेरा मित्र वस्त्रों को नही देखता , भैया ! मेरा मित्र अंटी में कितने दाम है ये तो बिल्कुल नही देखता , वो केवल प्रेम देखता है ।
“पर मुझे तो दाम दो”, केवट गम्भीर हो उठा अब ।
भैया ! कुछ नही है मेरा पास , सुदामा गिड़गिड़ाए ।
जो भी हो दो , बिना लिए हम पार लगाते नहीं हैं , अरे ! ये कहते हुये केवट अब मुस्कुरा रहा था ।
सुदामा अपलक देखने लगे थे केवट को , नेत्रों से अश्रु बह चले ।
अरे ! पण्डित जी ! जो है दो , वो फिर बोला ।
“मेरे पास दरिद्रता है”। लोगे ? सुदामा ने कहा ।
विचित्र था वो केवट , बोला , जाओ पार लग गयी है नाव , पण्डित जी ! तुम्हारी दरिद्रता हम ने ले ली , ये कहते हुए वो फिर मुस्कुराया था ।
नाव लग गयी थी किनारे में , उतर गए थे सुदामा जी पर जैसे ही नाव में देखा तो वो केवट नही था , सुदामा ने इधर उधर देखा , पर पता नही वो कहाँ चला गया था ।
शेष चरित्र कल –
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