श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! “श्रीकृष्णसुदामा का अद्भुत सख्यरस”- उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 66 !!
भाग 2
श्रीकृष्ण खूब हंसे । हंस मत , अपनी रानियों को कह दे की उबटन हम लोग नही लगाते , बस जल से स्नान करते हैं । सुदामा ने श्रीकृष्ण से कहा ।
सुनो , उबटन रहने दो , तुम सब को सेवा करनी है ना , तो एक एक कलश में जल ले आओ , और बड़े प्रेम से इनके ऊपर चढ़ाओ । श्रीकृष्ण फिर हंसकर बोले थे ।
क्या मतलब ! सुदामा उखड़ गए , जल चढ़ाओ का क्या मतलब ? मैं कोई शिव लिंग हूँ जो जल चढ़ाओ कह रहे हो । अच्छा मेरे ब्राह्मण देवता ! आप पाटा में बैठ जाओ , ये सब आपको स्नान कराएँगी , आप बैठ जाओ बस । सुदामा को श्रीकृष्ण ने फिर पाटा में बैठा दिया था ।
सुदामा पाटा में बैठे ही थे कि उधर से फिर चाँदी और सुवर्ण के कलशों में जल भरकर सोलह हजार एक सौ रानियाँ आने लगीं ।
सुदामा फिर घबड़ाए , वो इस बार भी उछलकर भागने वाले थे पर श्रीकृष्ण ने उन्हें उठने नही दिया ,
अब क्या हुआ ? हंसी रोककर श्रीकृष्ण ने सुदामा से फिर पूछा ।
अरे ! सोलह हजार एक सौ आठ कलशों से मैं नहाऊँगा तो भैया ! मैं तो बह ही जाऊँगा ।
पर इन सब की इच्छा है , श्रीकृष्ण अपने सखा से विनोद कर रहे हैं , सख्य रस में ये आवश्यक भी तो है ।
तो तुम क्या चाहते हो इन बेचारियों को सेवा से वंचित रखा जाए ?
मैंने कब कहा ! सुदामा बोले । देख कृष्ण! एक कलश को सब छू लें फिर उस कलश का जल तुम अपने हाथों से मुझ पर डालों , सब को सेवा का पुण्य मिला की नही ! श्रीकृष्ण अपनी रानियों से बोले – यही करो ।
सबने जल को छुआ और श्रीकृष्ण ने सुदामा को उस जल से स्नान कराया ।
इसके बाद। – सुन्दर रेशमी पीली पीताम्बरी सुदामा को धारण कराई श्रीकृष्ण ने अपने हाथों से , आहा ! सुदामा गदगद हो उठे थे , श्रीकृष्ण को अपने हृदय से लगा लेते हैं सुदामा ।
अब चलिए भोजन करने , श्रीकृष्ण ने सुदामा को कहा , माला तो कर लेने दे , सुदामा माला लेकर बैठ गए हैं ।
श्रीकृष्ण भी गदगद भाव से सुदामा को देखते रहे वो माला जप रहे हैं , श्रीकृष्ण मुस्कुराए बैठे रहे ।
“अब चलो भूख लगी है” सुदामा उठे, माला पूरी हो गयी थी उनकी ।
श्रीकृष्ण सुदामा को लेकर चले , आगे आगे चले ।
भोजन की व्यवस्था स्वयं महारानी रुक्मणी देख रही थीं , सुदामा के साथ श्रीकृष्ण का भी आसन लगा , दोनों मित्र बैठे भोजन करने के लिए ।
तभी पकवानों को थाल में सजाकर रानियाँ लेकर आनें लगीं , सुदामा का ध्यान अपनी थाल में था , एक ने लड्डू दिए , तो दूसरी ने कचौड़ी , तीसरी ने जलेबी , फिर रबड़ी , सुदामा अब घबड़ाने लगे क्यो कि अन्न को ये फेंकते हैं नहीं और इतना पेट में जाएगा नही ।
ओह ! पकवान लानें वाली रानियाँ फिर वही सोलह हजार आगयीं थीं।
ये क्या है कृष्ण ! सुदामा ने श्रीकृष्ण को रानियाँ दिखाईं ।
हाँ तो मेरी पत्नियाँ हैं सुदामा ! श्रीकृष्ण हंसे ।
पत्नियाँ तो हैं पर सब दे रहीं हैं पकवान ! सुदामा के पसीने आने लगे , इन सबके हाथों का मुझे खाना पड़ेगा ?
देखो मित्र ! बड़े प्रेम से सब ने अपने हाथों से कुछ न कुछ बनाया है , अब सबकी श्रद्धा है तो ………श्रीकृष्ण मुस्कुराकर रह गए ।
रानियाँ फिर पकवान देने लगीं , “सब एक ही बार देंगी , सुदामा ! दूसरी बार तुम्हें कोई नही देगा”, श्रीकृष्ण हंसकर कह रहे हैं ।
पर सोलह हजार के हाथों से कृष्ण ! मेरा पेट है कोई कोट नही , सुदामा उलझ पड़े श्रीकृष्ण से ।
हंसते हुए सुदामा से श्रीकृष्ण ने कहा , तुम्हें जितना खाना हो खा लो , हम लोग है ना ,
पर मैं जूठा नही देता किसी को ,
जूठा कौन खाएगा सुदामा ! हम तो तुम्हारा प्रसाद लेंगे ।
श्रीकृष्ण से सुदामा और कुछ कहने जा रहे थे , पर अपनी तर्जनी सुदामा के मुख में रख दी श्रीकृष्ण ने ।
मित्र ! तुम्हारा प्रसाद सब पाएँगे , मैं पाऊँगा , और धन्य हो जाऊँगा, मेरी रानियाँ धन्य हो जाएँगी , और बाक़ी बचा हुआ मेरा यदुकुल खाएगा तो वो भी धन्य हो जाएगा ।
सुदामा ने श्रीकृष्ण के नेत्रों में देखा वो मैत्री के अद्भुत रंग में रंगे हुए थे , सुदामा अब कुछ नही बोले ,
रानियाँ जो जो पकवान दे रही थीं उसे अब सुदामा अपने थाल में रखते गए , जब पूरा हुआ देने का , तब सारा पकवान श्रीकृष्ण की थाल में रखकर उसी में से दो तीन पकवान उठाकर खाने लगे ।
श्रीकृष्ण हंसे , और सुदामा की पीठ में हाथ मारते हुए बोले – तुम वैसे ही हो सुदामा ।
तुम भी तो वैसे ही हो कृष्ण ! वैसे ही जैसे गुरुकुल में थे , श्रीकृष्ण ने सुदामा के मुख में एक लड्डू डाल दिया था ,
“ये सुदामा का मुँह बन्द करने के लिए”, ये कहते हुये श्रीकृष्ण और सुदामा दोनों हंसते ही रहे । रानियाँ इस अद्भुत सख्य रस को देखकर आनंदित हो रही थीं ।
शेष चरित्र कल –
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