!! इति श्रीकृष्णचरितामृतम् !!
भाग 2
रुक्मणी शान्त भाव से चल पड़ीं ……उनके मुख मण्डल पर इतना तेज आगया था कि अर्जुन देख भी न सका था ….रुक्मणी के पीछे अन्य रानियाँ भी चल रही थीं ।
नही नही , आप लोगों को कुछ नही करना है …..आप सब रुकिए ! अर्जुन हाथ जोड़ रहा है बिलख रहा है ….पर ये रानियाँ अब किसी की सुनने की स्थिति में नही हैं ।
उसी स्थान में गयीं ….जहां से भगवान ने प्रस्थान किया था स्वधाम के लिए ।
स्नान किया समस्त अष्टपटरानियों ने …..उसी स्थान की माटी को अपने मस्तक पर लगाया ….और …….
“अग्नि तैयार करो”……रुक्मणी ने आदेश दिया अर्जुन को ।
उस समय महालक्ष्मी की शक्ति प्रकट हो गयी थी रुक्मणी में …..अर्जुन क्या बड़े बड़े देव भी आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकते एक सामान्य सती की भी ….फिर ये तो रुक्मणी आदि थीं ।
अर्जुन यन्त्रवत हो गया था ….सात चिताएँ उसने जलाईं ….क्यो की महारानी कालिन्दी ने उसी समय अपने देह को योगाग्नि में दग्ध कर वो सूक्ष्म रूप धारण करके गोलोक धाम में चली गयीं थीं । अब ये सप्त पटरनियाँ …हा कृष्ण ! हा नाथ ! कहते हुए चिता में जल गयीं …..अब देह का क्या मूल्य …वैकुण्ठ में ही इनका स्थान था ये सब वहीं चली गयीं थी
अर्जुन ने सबको प्रणाम किया ।
अनिरुद्ध पुत्र बज्रनाभ परम भागवत थे ….इन्होंने बृषभान नन्दिनी श्रीराधारानी जब द्वारिका पधारीं थीं तब बड़ी सेवा की थी , इसलिए इनमें निष्काम भाव जागृत हो गया था ….ऋषियों का श्राप भी इसे छू नही पाया था , श्रीराधा रानी की कृपा जिस पर हो उसे किसी का भी श्राप क्या करेगा ।
बज्रनाभ युद्ध में नही थे …ये एकान्त में ही निवास करते थे …..ध्यान चिन्तन में ही इनका समय बीतता था ……ये तब आए जब सब कुछ समाप्त हो चुका था …..भगवान श्रीकृष्ण परमधाम जा चुके हैं ….इनके पिता अनिरुद्ध दादा प्रद्यूम्न सब लड़ भिड़कर देह त्याग चुके हैं ।
ये तब आए ……जब इनकी परपितामही सतीत्व को वर चुकी थीं ।
अभी तो सोलह हजार एक सौ बाक़ी हैं …..सती होने की इनकी भी ज़िद्द है किन्तु अर्जुन ने और बज्रनाभ ने मिलकर इन्हें समझाया ….बहुत समझाया ……तब जाकर ये मानीं ।
तात ! सोलह हजार श्रीकृष्ण रानियों को अर्जुन अपने साथ लेकर वृन्दावन के लिए निकल गए थे …….बज्रनाभ एक सौ अपनी परदादीयों को लेकर वो भी ब्रज के लिए चले थे ।
तात ! भगवान श्रीकृष्ण के परमधाम गमन के सात दिन बाद ही समुद्र में ऊँची ऊँची लहरें आनी शुरू हो गयीं थीं…..द्वारिका अब जनशून्य था …..समुद्र ने द्वारिका को अपने भीतर ले लिया ……समा गयी द्वारिका सागर में ।
उद्धव कहते हैं – तात !
बस भगवान श्रीकृष्ण के निज महल को छोड़कर सब कुछ समुद्र में डूब गया ।
श्रीकृष्ण कथा को यही विराम दिया उद्धव ने …भगवान की लीला कभी समाप्त नही होती है ….हाँ तात ! अवतारकाल में भगवान श्रीकृष्ण अधिकारी अनधिकारी सब को मिलते थे , उनके दर्शन का लाभ सब को मिलता था, किन्तु अब मात्र अधिकारी भक्तों को ही दर्शन होंगे । इतना कहते हुये …..पूर्णपुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण को उद्धव ने प्रणाम किया …..विदुर जी ने भाव से भरे हृदय से नमन किया भगवान श्रीकृष्ण को । उद्धव ने अब विदुर जी को देखा …..सजल नयन से परमभागवत विदुर जी को प्रणाम किया । विदुर जी गदगद थे …..उद्धव के मस्तक में अपना हाथ रखते हुए उन्हें भूरी भूरी आशीष देने लगे थे …..हे उद्धव ! तुमने मुझे जो श्रीकृष्ण लीला सुनाई उसके लिए तुम को मैं क्या दूँ ….तुम येसे ही श्रीकृष्ण के प्रिय बने रहो ।
तात ! चरण वन्दन किए उद्धव ने विदुर जी के ।
फिर दोनों ने कालिन्दी में स्नान किया और श्रीधाम वृन्दावन की भूमि को प्रणाम कर यहाँ के रज को अपने देह में लगाकर हरिद्वार के लिए निकल गए थे ।
!! इति श्रीकृष्णचरितामृतम् !!
Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877