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November 22, 2024 9:36 pm

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!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!-(चलें फिर निकुँज – “अपनी बात मोसौं कहि री भामिनी”) : Niru Ashra

!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!-(चलें फिर निकुँज – “अपनी बात मोसौं कहि री भामिनी”) : Niru Ashra

!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!

( चलें फिर निकुँज – “अपनी बात मोसौं कहि री भामिनी”)

( मेरे ऊपर श्रीजी की कृपा हुई कि मुझे उन्होंने हॉस्पिटल भेज दिया …इतना ही नही सर्जरी भी करा दी …इन सबके पीछे – जन्मों जन्मों का जो पाप का मैल जमा था उसी को साफ करना था मेरी श्रीकिशोरी जी को । डाक्टर के हाथों में औज़ार नही …वो तो श्रीजी ही थीं और उनके हाथों में स्क्रव था जो मेरे मैल को रगड़ के छुड़ा रहा था ….”मृदुता दयालुता कृपालुता की राशि” मेरी स्वामिनी की ही कृपा मुझे चारों ओर दिखाई दे रही थी उस समय , अस्तु ।

अब मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ मेरी स्वामिनी जू ने मुझे स्वच्छ कर दिया है । चलिए, अब शीघ्र चलिये , विलम्ब न कीजिए , मैं भी उतावला हूँ , चलिये निकुँज में । – हरिशरण )


गतांक से आगे –

ध्यान परायण रस लोलुप और कुछ नही करता ….वो तो बस भाव रस की सिद्धि से उस “परम प्रेम” को पा जाता है । सत्य यही है …कि भाव सिद्ध अन्तकरण से ही “श्यामा श्याम” के दर्शन होते हैं …दर्शन ही प्राप्त नही होते उसे सेवा भी मिल जाती है …वो प्रत्येक क्षण वहीं रहने लग जाता हैं । संसार की बात तो दूर जाने दो उसे ज्ञान की बातें , वेद आदि की बातें भी सुहाती नही हैं….वो सिर्फ अपने युगल की ओर ही देखता रहता है …वो चंदा हैं तो ये चकोर बन जाता है ….इस रस के रसिक को सब कुछ व्यर्थ लगता है …अब यहाँ बात सांसारिक नही हो रही…ज्ञान योग आदि भी इसे व्यर्थ लगते हैं । धीरे धीरे उसका प्रवेश आनन्दोल्लास में हो जाता है ….उसका ये पार्थिव देह भले ही यहाँ रहे पर वो भाव रस सिद्धि के चलते सीधे प्रवेश कर जाता है उस “रस राज्य” में….जहां रस ही रस है ….रस का ही विस्तार है ..रस ही अनेक रूपों में दिखाई दे रहा है ।

ये वहाँ जाकर सखी भाव को प्राप्त हो जाता है …सखी भाव का अर्थ है …उसका किंचित भी अहं शेष नही रह जाता ….वह सेवा की भावना से भर जाता है ….फिर श्रीवन के लता बनकर वो युगल को छाँव देता है …वो रज बनकर युगल के चरणों को चूम लेता है …यमुना में कमल बन जाता है ताकि उनकी सेवा में वो जा सके । वो वर्षा की बूँद बनकर बरसता है ….वो सेज सजाता है …या स्वयं ही सेज में बिछे फूल बनकर बिखर जाता है ….अब इसकी कोई कामना नही ….कामना का बीज ही ख़त्म हो जाता है ।


बरसाने का वो अद्भुत – राधाबाग ।

पागलबाबा मुझे देखकर गदगद थे …..गौरांगी के नेत्रों से अश्रु बह चले थे ….शाश्वत मुझे बारम्बार छू रहा था ….राधाबाग के लता , कदम्ब , तमाल ये सब मुझे देखकर कितने खुश हो गए थे …मोर , एक मोर तो मेरे ही आस पास घूमता रहा था ……कुछ बूँदे भी गिरी थीं आकाश से । सब कितना आह्लादित करने वाला था ।

पागल बाबा ने बिना कुछ भूमिका के गौरांगी से पद गायन करने के लिए कहा ….

वीणा हाथों में लेकर पीले वस्त्रों में गौरांगी …..श्रीहित चौरासी जी का पन्द्रहवाँ पद ….आहा !

कितना आनन्द आरहा था मुझे …पूरा राधा बाग गा रहा था इस पद को …रसिक समाज कितना गदगद था ….सब गान कर रहे थे । आप भी गायन कीजिए ।


               अपनी बात मौसौं कहि री भामिनी ,

                                             औंगी-मौंगी   गरव की माती ।

            हौं   तोसौं   , कहत   हारी ,

                                             सुनि री  राधिका प्यारी ।

              निशि कौ रंग क्यों  न  कहत   लजाती  ।।


                             गलित कुसुम बैनी,

                                                  सुनि री सारंग नैनी ,

                                            छूटी लट अचरा वदत अरसाती ।

                     अधर निरंग रंग ,  रच्यौ री कपोलन ,

                                        जुवति चलति गज गति अरुझाती ।।

                      रहसि रमी छबीले ,  रसन वसन ढीले ,

                                               शिथिल कसनि कंचुकी उर राती ।

                      सखी सौं सुनि श्रवन ,   वचन मुदित मन ,

                                            चली  “हरिवंश” भवन मुसकाती ।15 । 

अपनी बात मौसौं कहि री भामिनी …………..

बाबा मुझे देखकर बोल रहे हैं ….सब लोगों ने अब वाणी जी रख दी है ….गौरांगी ने भी वीणा रख कर अपने नेत्र बन्द कर लिये हैं …..बाबा ने अभी नेत्र बन्द नही किये वो करुणा पूरित नेत्रों से मुझे ही देख रहे हैं ….फिर कुछ देर बाद बोले …”ध्यान करो की हमारा ये देह छूट गया है ….छूटना ही है एक दिन …..करो ध्यान , हमारा ये देह छूट गया , हम दिव्य चिन्मय रूप धारण करके निकुँज की ओर चल पड़े हैं …..वहाँ जब जाते हैं तो क्या देखते हैं कि सब कुछ चिन्मय है …सब कुछ रस रूप है …चारों ओर आनन्द तत्व ही बिखरा हुआ है …अब तुम्हें जो बनना है बन जाओ …वृक्ष-लता बन जाओ …यमुना कूल बन जाओ …पक्षी बन जाओ …..वायु बन जाओ ….पर ऐसा नही है कि जो बने हो वही बने रहोगे …जब जो बनना चाहो तत्क्षण फिर बन सकते हो …ये आनन्द राज्य है …ये रस राज्य है ….ये प्रेम देश है …..आहा ! इतना कहकर बाबा ने अब इस पन्द्रहवें पद का ध्यान करवाया । बाबा ने अब नेत्र बन्द किये थे ।

बाबा धीरे से बोले ….जो भावना से बनना हो वो तुम बन गये हो …..अब देखो वो “रस साकार” होकर कहाँ क्या लीला कर रहा है ……


                                   !! ध्यान !! 

सुन्दर शृंगार कुँज है …..उस श्रृंगार कुँज के आँगन में नाना प्रकार के पुष्प खिले हैं ….प्रेम रस से भींगा वह कुँज अनेक फुल वारियों से भरा हुआ है ….लताएँ झूल रही हैं …क्यों कि फूलों का भार इन सबमें अब कुछ ज़्यादा ही हो गया है । सुगन्ध की लपेटें निकल रही हैं ….जो पूरे कुँज को सुगन्ध से भर रही हैं …मोगरा , गुलाब , वेला , चम्पा .चमेली…..सब मत्त होकर खिल रहे हैं ।

इस कुँज के भीतर चलो …एक और कुँज है ..ओह ! तो हमारे युगल सरकार यहाँ हैं ….सामने एक दिव्य दर्पण है …स्नान कुँज से अभी आये हैं दोनों स्नान करके ….सज रहे हैं ….श्रीजी का श्रीअंग चमक-दमक रहा है …उनके श्रीअंगो में लताओं और पुष्पों के प्रतिबिम्ब पड़ रहे हैं …जिसके कारण इनका अंग और झिलमिला रहा है …इनकी झिलमिलाहट कुंजों में वापस पड़ रही है जिससे कुंजों की शोभा और और बढ़ रही है । प्रिया का श्रीअंग गर्व से मत्त हो रहा है …उनकी लटें उनके कपोल को बार बार चूम रही हैं …पर वो उसे हटा देती हैं ….और फिर सामने देखने लगती हैं ….सामने ? हाँ , सामने श्याम सुन्दर हैं ..पर वो दर्पण में अपने आपको देख रहे हैं …उनका ध्यान अपनी ओर है …इसी बात से तो श्रीराधा कुछ मानिनी सी हो रही हैं …वो सामने खिले कमल को उठाकर श्याम सुन्दर की ओर फेंकती हैं …कमल पुष्प श्याम सुन्दर के कन्धे को छूता हुआ चला जाता है ..पर श्याम सुन्दर अपनी ही धुन में हैं ..वो अपने को ही देख रहे हैं दर्पण में ।

अब श्रीजी बैठ गयी हैं …..उन्हें अच्छा नही लग रहा ……वो अनमनी सी हो रही हैं ….पर अभी भी श्याम सुन्दर दर्पण में अपने आपको ही देख रहे हैं …..तभी हित सखी आगे आती हैं और श्रीजी के चरणों में बैठकर कुछ कह रही हैं…….


हे प्यारी जू ! क्या हुआ ? जो भी हृदय की बात हो मुझ से कह दो ना !

इस तरह अनबोली बनकर …अनमनी बैठने से कुछ नही होगा । बोलो !

मुस्कुराती हुयी हित सखी श्रीराधिका जू से पूछती है …पर श्रीराधा कुछ उत्तर नही देतीं अभी उनका ध्यान सखी की ओर नही है । बार बार पूछने पर भी जब श्रीजी कुछ नही कहतीं ….तो सखी उनका हाथ पकड़ कर उन्हें उठाती है …वो नहीं मान रहीं पर सखी जिद्द करती है ….श्रीराधा जी उठ जाती हैं , सखी उन्हें दिखाती है ….कि देखो , श्याम सुन्दर दर्पण में अपने को नही देख रहे …अपने में ही प्यारी ! आपको देख को देख रहे हैं …उनके वक्ष में आपके नख के चिन्ह लगे हैं वो उन्हें देख रहे हैं और गदगद हो रहे हैं । श्रीजी जब ये देखती हैं तो वो आनन्द विभोर हो उठती हैं ….तत्क्षण शरमा भी जाती हैं …आह भरते हुए फिर वहीं बैठ जाती हैं …सखी कुछ देर तक तो मौन हो जाती है ….फिर वो आगे पूछती है ….हे राधा प्यारी ! अब तुम मुझ से क्यों छुपा रही हो ?

मैं क्या छुपा रही हूँ ? शरमाई हुयी श्रीजी प्रतिप्रश्न करती हैं ।

सखी नयन मटका के कहती है ….रात्रि में जो रंग उड़ा है …जिसनें तुम दोनों को रंग में सरावोर किया है ….वो मुझ से कहने में काहे लजा रही हो ? कहो श्रीराधिका प्यारी ! सखी मुख से ये सुनते ही श्रीराधा का मुखमण्डल अरुण हो गया है वो शरमा गयीं नयन झुका लिये …सखी ये झाँकी देखकर गदगद होते हुये बोली …रात्रि में जो प्रेम युद्ध हुआ है ..वो सब समझ में आरहा है ।

हट्ट ! कुछ भी कहती है …..श्रीजी ने गम्भीर होने का स्वाँग करते हुए कहा ……

तो ये वेणी कैसे ढीली हुई ? और मेरी मृगनैंनी ! तुम्हारी लट और तुम्हारा आँचल भी तो अपने स्थान पर नही है ….तेरे बोल भी आलस से भरे हैं ….तेरा काजल भी पुछ गया है ।

ये सब सुनकर श्रीराधा जी मन्द मुस्कुराती और शरमाती हुयी उठीं और जाने लगीं तो सखी बोली ….अधरों का रंग भी फीका पड़ गया है …अब तो चल ही दीं श्रीजी ….तो सखी पीछे से बोली ….गज चाल आज लड़खडा क्यों रही है ! अब तो संभल कर चलने लगीं श्रीजी तो सखी पीछे से फिर बोली …..कटि किंकिणी कैसे खुल रही है प्यारी जू !

हितसखी के ये सुमधुर परिहास पूर्ण वचन सुनकर श्रीजी दौड़कर अपने श्याम सुन्दर के पास गयीं और उनको जाकर अपने हृदय से लगा लिया …..सखी देख रही है ….उसे अपार सुख मिल रहा है ….तब दोनों युगल गलबैंयाँ दिये कुँज भवन की ओर चल दिये हैं ….सारी सखियाँ जयजयकार कर उठीं थीं ।

जय जय श्रीराधे , जय जय श्रीराधे , जय जय श्रीराधे ……

ये जयजयकार सहस्रों सखियों समेत लता पक्षी श्रीवन आदि सबने किए थे ।


इसके बाद पागलबाबा कुछ नही बोले ….बोलने के लिए कुछ बचा ही नही था….अपार रस बरस गया था …और उसमें बाबा आकंठ डूब गये थे …बाबा ही क्यों हम सब डूब गये थे ।

कुछ समय बाद गौरांगी ने इसी श्रीहितचौरासी जी के पन्द्रहवें पद का फिर गायन किया ……

                      “अपनी बात मौसौं कहि री भामिनी”

आगे की चर्चा अब कल –

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