!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!
( “सदा बसन्त रहत श्रीवृन्दावन” )
गतांक से आगे –
मुझ से भजन नही होता , मुझ से ध्यान भी नही होगा , मैं साधना नही कर सकूँगा ।
ऐसी स्थिति में मुझे बताइए कि मेरा कल्याण होगा ? होगा तो कैसे होगा ?
“ जोनी कक्कड़” से “जुगल किशोर शरण” ये बन गया था ….आज ही दीक्षा ली इसने । औरों को तो बाबा टालते हैं …दीक्षा देने में रुचि नही दिखाते पर इसको सहजता से दे दी ।
मस्तक में ऊर्ध्वपुंड्र कण्ठ में तुलसी की माला ।
अब इसने कहा ….भजन नही होता मुझ से ..न ध्यान , न कोई साधना ……
ये कहते हुए इसने साष्टांग प्रणाम किया था बाबा के चरणों में ।
कुछ मत कर जुगल किशोर ! बस एक काम कर ले …….
क्या ?
श्रीवृन्दावन में रह जा । सच कह रहा हूँ कुछ नही करना पड़ेगा । न भजन , न कोई साधन । बस यहीं रहना है । पागलबाबा करुणा से भर कर बोले थे ।
क्या श्रीवृन्दावन में रहने मात्र से कल्याण हो जाएगा ? उस युवक ने पूछा था ।
बाबा बोले – कल्याण तो काशी में मरने से भी हो जाता है ….अनेक तीर्थ ऐसे हैं जहां वास करने से कल्याण हो जाता है …किन्तु श्रीवृन्दावन में वास करने वाले की महिमा ही और है । यहाँ का वासी जब देह को छोड़ता है ना …तो स्थूल देह छोड़ते ही सूक्ष्म सखी देह में वो आजाता है ….बाबा कहते हैं ….निकुँज से डोली आती है ..ललिता आदि सखी डोली को उठाई होती हैं , उसी डोली में इस नई सखी को बैठाकर ले जाते हैं निकुँज । बाबा बोले ….ये सच कह रहा हूँ मैं ।
शाश्वत ने पूछा …बाबा ! श्रीवृन्दावन में वास करते हुए कोई गलत कर्म बन गया हो …कोई महत् अपराध बन गया हो …तो क्या उसको भी निकुँज मिल जाएगा ? बाबा गम्भीर होकर बोले …अगर कोई महत् अपराध ही बन गया है …तो दूसरा जन्म होगा …किन्तु यहीं होगा ..इसी श्रीधाम में होगा …बाबा आगे बोले …श्रीधाम में वास करे और यहाँ मरे तो उसको निकुँज में प्रवेश मिलना ही है ….हाँ अपराधी है …पापी है ….उसको भी ….बाबा आगे बोले …किन्तु एक बात है …अगर श्रीधाम का कोई अपराधी है या बृजवासियों का कोई अपराधी है तो फिर तीन जन्म उसे लेने पड़ेंगे …पर तीन से चौथा जन्म उसका होगा नही , तीनों जन्म भी यहीं होंगें , और उसे तीन जन्मों में ही श्रीजी स्वच्छ बनाकर निकुँज में बुला लेंगी ।
इसके लिए मुझे क्या करना पड़ेगा ? बाबा की बात पर वो युवक बोला ।
बाबा बोले …कुछ नही …बस श्रीधाम में वास । यहाँ पड़े रहो ।
देखो , साधना का मार्ग नही है ये , ये मार्ग तो मान्यता का है ।
मान लो , हम श्रीजी के हैं ….और पड़े रहो श्रीवन में ।
वो युवक बड़ा प्रसन्न हुआ था । बाबा की बात सुनकर ।
अब श्रीहित चौरासी जी का गायन होगा ….राधा बाग में रसिक समाज जुर गया था । बाबा ने आज भी इसी युवक जुगल किशोर शरण को ही गाने के लिए कहा ….गौरांगी ने इसे वाणी जी दी ….आज पद संख्या 64 , चौंसठवाँ पद था । वो गौरांगी से पूछता है धीरे से ..कैसे गाना है । गौरांगी बताती है …वो मन में गुनगुनाता है ….रसिक समाज वाणी जी खोल कर बैठ गया है ।
गायन आरम्भ हुआ ।
वैंणु माई बाजै वंशीवट ।
सदा बसंत रहत वृन्दावन , पुलिन पवित्र सुभग जमुना तट ।।
जटित क्रीट मकराकृत कुंडल , मुख अरविंद भँवर मानौं लट ।
दसननि कुंद कली छबि लज्जित , सज्जित कनक समान पीत पट ।।
मुनि मन ध्यान धरत नहिं पावत , करत विनोद संग बालक भट ।
दास अनन्य भजन रस कारन , श्रीहित हरिवंश प्रकट लीला नट । 64 ।
वैंणु माई बाजै वंशी वट …………
बाबा ने ….”बहुत बहुत अच्छा” कहकर उस युवक की पीठ ठोकी …गौरांगी की ओर देखकर बाबा बोले ….”इसे श्रीजी ने स्वीकार कर लिया है”….इतना कहकर अब ध्यान करवाते हैं बाबा ।
!! ध्यान !!
सुन्दर श्रीवृन्दावन है …श्रीवृन्दावन में सब कुछ रसमय है …ये स्वयं रसागार है ।
यहाँ के वृक्ष सदा नीचे झुके रहते हैं ….क्यों की ये वृक्ष ध्यान में मग्न हैं ….ये युगल चरण का दर्शन करते हुए ध्यानस्थ ही रहते हैं इसलिये ये वृक्ष नीचे की ओर झुके हैं । यहाँ की लतायें कभी पुष्प से रहित नही होतीं ….सदा पुष्पों से लदी हैं । हाँ , यहाँ यमुना हैं ….ये अत्यन्त निर्मल हैं ….यमुना घाट अद्भुत अद्भुत मणियों से बने हैं …..यमुना में कमल खिले हैं ..हंस विहार कर रहे हैं …शीतल पवन बह रहे हैं …उसके कारण यमुना में एक लहर सी बन जाती है जिससे यमुना की शोभा और बढ़ गयी है । श्रीवृन्दावन में नाना प्रकार के कुँज हैं …ये कुँज भी ऋतु के अनुसार अपना रूप बदलते रहते हैं । वैसे यहाँ विशेष दो ही ऋतुओं की प्राधान्यता है …ये दो ऋतु ही यहाँ स्थाई रहती हैं …बाकी तो आते जाते रहते हैं । यहाँ के पक्षी भी अद्भुत हैं …सब समझते हैं ….कब क्या कहुंकना ….ये सब जानते हैं । यहाँ की यमुना तट , फैली रेत , ऐसी लगती है जैसे मोती पीस कर बिखेर दिया हो । यमुना की रेत जब उड़ती है और आँखों में पड़ती है तब नयन शीतल हो जाते हैं ।
आज इसी यमुना के तट पर , वंशीवट पर , वेणु बजा रहे हैं श्याम सुन्दर ।
क्यों ?
ये प्रश्न व्यर्थ है …क्यों कि प्रेमी की हर क्रिया अपने प्रिय के लिए ही होती है ।
यानि अपनी प्रियतमा श्रीराधिका जू के लिए श्याम सुन्दर वेणु नाद कर रहे हैं ।
श्रीवृन्दावन आनंदित हो उठा है …….श्रीवृन्दावन का अणु अणु परमानन्द में डूब गया है ।
इसी का वर्णन हितसखी ने अपनी स्वामिनी श्रीराधारानी के सामने किया ।
हे मम स्वामिनी ! वंशीवट में आपके प्रीतम वंशी बजा रहे हैं । और पता ही है आपको तो …कि आपको रिझाने के लिए ही बजा रहे हैं ।
फिर कुछ देर बाद हित सखी बोलती है ……क्या ध्यान लगाकर वेणु नाद कर रहे हैं । योगियों की भाँति इनका ध्यान लग रहा है । देखो तो सही स्वामिनी ! ये श्रीवृन्दावन कितना प्रसन्न है …वेणु नाद से इसकी प्रसन्नता और बढ़ गयी है …..ये वो श्रीवन है जहां शरद और वसंत सदा विराजमान रहते हैं ….इस प्रकार की शारदीय और वासंती ऋतु में श्याम सुन्दर की वेणु एक अलग ही आनन्द को प्रकट कर रही है । आहा ! यमुना तट कितना सुन्दर है । और अपने श्याम सुन्दर क्या कम सुन्दर हैं ! प्रिया जी ! देखिये …सिर पर उनके रत्न जटित मुकुट है ..और कानों में कुण्डल सुशोभित है ….झाँकी देखते ही बन रही है । और इसके बाद उनकी जो लटें हैं , घुंघराली लटें वो इनके मुख चन्द्र पर झूल रही हैं …ऐसा लग रहा है …जैसे भँवरें कमल पर झूल रहे हों । और इनकी पीली पीताम्बर वो तो सुवर्ण के समान चमचमा रही है , अद्भुत तो और ये भी है कि इनकी दंत पंक्ति कुंद पुष्प की कलियों को भी लज्जित करने वाली हैं ।
तो मैं क्या करूँ ? श्रीजी ने मन्द मुस्कुराते हुए कहा ।
उपासक का ध्यान उपास्य को रखना ही पड़ता है …रखना ही चाहिए स्वामिनी ! ये आपके उपासक हैं ….देखिये ध्यान कर रहे हैं आप का ही ….वेणु बजाते हुए वो नेत्रों को मूँद कर आपका ही तो ध्यान कर रहे हैं । किन्तु ! किन्तु क्या सखी ? प्रिया जी पूछती हैं । उपासक को मनवांछित फल नही मिल रहा । क्या चाहता है उपासक ? श्रीजी ने भी पूछ लिया । हित सखी बोली ….आपका प्रेम ! हित सखी के मुख से ये सुनते ही श्रीजी उठकर खड़ी हो गयीं और दौड़कर अपने प्रियतम को हृदय से लगा लिया । दोनों ही सुकुमार हैं …दोनों ही छोटे हैं ..किशोर अवस्था है दोनों कि । अब तो दोनों एक दूसरे को देखकर हंस रहे हैं …खिलखिला रहे हैं ।
हित सखी नाच उठती है …और कहती है …मेरी समझ में तो …ये श्रीवृन्दावन ही है …जहां प्रेम की लीला ये युगल प्रकट करते हैं ….सामान्य जनों के लिए ..इसलिए ये श्रीवृन्दावन धन्य है । ये लाभ सबके लिए है …..आओ श्रीवृन्दावन , और इस लाभ का लाभ लो । प्रमुदित होकर हित सखी बोल रही है , और प्रेमोन्मत्त है ।
पागलबाबा उस युवक से कहते हैं …ये श्रीधाम है …इसी श्रीवन में ये लीलाएँ प्रकट होती हैं ….इसलिये इसी श्रीवन की शरण ले लो ….तुम्हारा कल्याण क्या …कल्याण से भी ऊँची बात बन जायेगी ।
वो युवक गदगद हो गया था ।
मन उसने बना लिया था अखण्ड श्रीवृन्दावन के वास का । पर अभी बोल नही रहा ।
अन्तिम में इस पद का गायन गौरांगी ने किया ।
वैंणु माई बाजै वंशीवट ………..
आगे की चर्चा कल –


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