!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर 12 – “शुद्ध सात्विकता नगर की खाई है” )
“अहेरिव गति: प्रेम्ण: स्वभाव कुटिला भवेद्”।
यही है प्रेम का सिद्धांत । “प्रेम सर्प के समान टेढ़ा चलता है “।
इसलिये प्रेम मार्ग में चलने वालों को ये याद रखना चाहिए कि ….प्रेम के अपने स्वतन्त्र सिद्धांत हैं ।
अब आप लोगों ने तीन गुण के विषय में सुना ही है …..सत्वगुण , रजोगुण , तमोगुण । अध्यात्म में तमोगुण और रजोगुण को निषेध कहकर सत्वगुण को साधक की आवश्यकता बताई है । तमोगुण आलस्य प्रधान है …इसलिये ये आपको मूढ़ बना देती है ….रजोगुण क्रोध उत्पन्न कर आपके विवेक को हर लेती है ….सत्वगुण शान्त है ….ये आपको शान्ति देती है ….इसलिये अध्यात्म में इसकी आवश्यकता है ।
किन्तु ये नगरी तो है प्रेम की …..और प्रेम गुणातीत है ….प्रेम न तमोगुण न रजोगुण और सत्वगुण तो है ही नही । आपने पूर्व में सुन ही लिया है ….कि सुमति या मति की बेटी का नाम था “शान्ति” वो चली गयी है इस प्रेम नगर को छोड़कर । अब क्या कहोगे आप ? अस्तु ।
हे रसिकों ! इस प्रेमनगर में प्रवेश करना है ..तो अब नगर में परिखा यानि गहरी खाई है उसे पार करना होगा । नगर जब बनाए जाते थे तो पहले ऊँचा परकोटा , फिर गोपुर अब आगे बढ़कर आपको खाई मिलेगी …ये सब नगर की सुरक्षा के लिए है ………
प्रेम के विषय में महावाणी के रचयिता श्रीहरिव्यास देव लिखते हैं …..
।। जतन जतन सों राखियो , ज्यों पावौ सुख सार ।।
ये प्रेमनगर कोई सामान्य नही है …कि बजारू बना दो …कोई भी आ रहा है …देखकर जा रहा है …नही ….ये प्रेम नगर तुम्हारा हृदय ही तो है …फिर वहाँ सबका प्रवेश कैसे होने दे रहे हो ….मत दो …पहले पूरी सुरक्षा रखो …पूरी सुरक्षा दो …बाहरी कोई तत्व , विजातीय तत्व इस प्रेमनगर में घुस न सके …वेद शास्त्र की ऊँची दीवार खींच दो …परकोटा उसी का बनाओ …फिर गोपुर बनाओ …जिनका राग है …किसी में भी …हाँ , ये बड़ी अद्भुत बात है यहाँ । क्यों की गोपुर के द्वार का नाम ही है …”रागानुगा” । जिनके मन में राग है …उनका ही प्रवेश हो ।
“मैं भगवान की भक्ति करना चाहता हूँ”….आचार्य श्रीबल्लभ से एक सेठ जी ने आकर पूछा ।
आचार्य ने तुरन्त प्रतिप्रश्न कर दिया …तुम्हारा राग कहाँ है ? वो सेठ जी समझे नही …फिर बोले …मैं भगवान की भक्ति में डूबना चाहता हूँ …कृपा करो महाप्रभु ! आचार्य ने शान्त भाव से फिर पूछा …तुम्हारी आसक्ति कहाँ है ? पुत्र में , पत्नी में , धन में , घर में , कहाँ है तुम्हारी आसक्ति ?
नही , कहीं नही है ….मेरी आसक्ति किसी में नही है । सेठ जी ने तन कर कहा ।
श्रीबल्लभाचार्य ने उत्तर दिया …तो फिर भक्ति के मार्ग में तुम्हारा प्रवेश सम्भव नही है ।
क्यों ? सेठ जी ने पूछा तो उत्तर दिया …भक्ति में मानव मन में स्थित लौकिक राग को ही अनुराग में परिवर्तित किया जाता है …जैसे तुम्हारा राग पुत्र में होता तो उसे हम श्रीबालकृष्ण लाल में लगा देते …पर तुम्हारा तो राग ही नही है …किसी में भी नही है …तुम ज्ञान के अधिकारी हो सकते हो किन्तु प्रेम के नही ।
ये बात बड़े पते की है ….कि भक्ति मार्ग में राग को ही इधर से उधर लगाया जाता है ।
इसलिये द्वार का नाम है “रागानुगा” ।
अब इस द्वार के भीतर प्रवेश करो …तो खाई है …जिसे कहते हैं परिखा । ये सुरक्षा के लिए होती है….बड़ी गहरी खाई है ।
अब हमें “प्रेमनगर” में प्रवेश करना है तो इस खाई के विषय में भी जानना होगा …क्यों कि इसे पार करके ही आगे नगर में प्रवेश मिलेगा । तो आइये …चलिये उस गहरी खाई को जानें ।
यत्र परित : प्राकारमनल्पायामगम्भीरताविस्तारदुस्तरं प्रकटोपलक्षितान्त: स्थितसितकठिन प्रस्तरं विमल सत्त्वाख्यं परिखावलयम् ।।
अर्थ – उस परकोटा के भीतर प्रवेश करने पर एक गहरी खाई का घेरा है …उस खाई ( परिखा )। का नाम है ….”विमल सत्व” । वो खाई गम्भीर यानि गहरी है ….और चौड़ी भी है । उसके नीचे स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं …सफेद दृढ़ पाषाण यानि पत्थर । विमल सात्विकता की इस खाई को पार करने पर ही “प्रेम नगर” में प्रवेश मिलता है ।
*आहा ! सत्वगुण भी बाधक है इस प्रेम में तो । इसको भी पार करना पड़ेगा ।
खाई में पत्थर हैं जो सफेद रंग के हैं ….इससे यही अभिप्राय है कि सत्वगुण का रंग है सफेद यानि शान्त । हे रसिकों ! रजोगुण से तमोगुण को जीतो …फिर सत्वगुण से रजोगुण को जीतना है ….यहीं तक है अध्यात्म की गति । किन्तु प्रेम नगर तो सबसे ऊँचाई पर स्थित है ना ! वहाँ तक पहुँचने के लिए सत्वगुण का भी त्याग करना पड़ता है । क्यों की प्रेम निर्गुण है यानि समस्त गुणों से परे । जय हो प्रेम नगरी की ।
प्रीतम की याद में रोना किस गुण में आता है ? प्रीतम के लिए तड़फ़न …किस गुण में आता है ? सत्व रज या तम ? रात रात भर सोयें नहीं ….हा प्राण नाथ ! बस यही पुकार चल रही है …ये मनस्थिति किस गुण में आता है ? हे रसिकों ! तमोगुण तो है ही नही प्रेमी में ….तम को इसने कब का पार कर लिया है ….क्या आलस्य से भरा होता है प्रेमी ? ना जी , उसमें जितनी फुर्ती होती है और में कहाँ ? उफनती नदी पार कर जाये ..तूफ़ान से लड़ जाये , भिड़ जाये …पहाड़ों से टकरा जाये । वो कहाँ तमोगुण में फँसा है ? रजोगुण भी नही है उसमें …रजोगुण कर्म में प्रवृत्त कराता है ….किन्तु कहाँ कर्म में लगे आपने देखा है प्रेमी को ….वो तो कहता है मेरे हृदय में बैठा प्यारा मुझ से कराता है सो मैं करता हूँ ।
“जोई जोई प्यारो करे , सोई मोहि भावे ।
भावे मोहि जोई , सोई सोई करे प्यारे ।।”
लो बात ही खतम हो गयी …..मैं कहाँ करता हूँ …मेरा प्यारा ही करता है ..हाँ कभी कभी मैं कर्म में प्रवृत्त लगता हूँ तो मेरे माध्यम से प्यारा ही वो कर रहा है । ओह ! अब रजोगुण भी नही है प्रेमी में …..अब बात आयी सत्वगुण की …..हाँ , इसको पार करना है ….ये आवश्यक है इस प्रेम नगर में प्रवेश के लिए । शान्त हैं हम , हमारी वृत्ति शान्त हो गयी है …..अब ? यही तो बाधक है जी ! शान्त नही होना है …..प्रेम पाने के लिए …प्रीतम की याद में दौड़ना है …रोना है …तड़फ़ना है …आह भरना है …..यहाँ शान्त नही रहना ।
और जब हम उसकी याद में बिलखते हुए “आह”करें …. तो वो वाह करे ….उसे हमारी आह अच्छी लगी तो अब यही हमारा भजन है …रोते रहना …उसे ये हमारी “आह” अच्छी लगी ….तो यही हमारा ध्यान है ..साधना है ।
दर्दे दिल कितना पसन्द आया उसे ,
मैंने जब की आह उसने वाह की ।
बस बस , इस “आह” के सामने “शान्तता” क्या है ? मूर्ति की तरह बैठे रहो …चुप चाप …उस शान्त स्थिति से मेरे महबूब को कोई मतलब है ? नही है जी ! उसे मतलब है हमारी आह से …उसे मज़ा आता है जब हम उसकी याद में रोते हैं …..तो ठीक है फिर …तुम को जो पसन्द है हम वही करेंगे …भाड़ में जाये सात्विकता । हमारे लिए तो तू मुख्य है ….तू जिससे राजी हो ….मेरे राजा ! हम वही करेंगे ।
अब देखो …ये सत्व, रज , तम ये मन की वृत्ति हैं ना ? किन्तु प्रेमी के पास तो मन है ही नही ।
“मैं जाता हूँ दिल को तेरे पास छोडे ,
मेरी याद तुझको दिलाता रहेगा ।”
छोड़ दिया उस सलोने साजन के पास अपना मन,
फिर कहाँ तम रज और सत्व की बात कर रहे हो ।
मन शान्त है …तो अभी बहुत दूर हो तुम प्रेम से …अशान्त मन ही प्रेम का अधिकारी है ।
हे रसिकों ! इस प्रेम मार्ग में जिसने भी प्रेम नगर का वास पाया है …
ये याद रहे – “बैचैनी से ही पाया है “।
ओह ! बृज की गोपियों को देखो ….कैसे प्रेम नगर में रह रही हैं ….वो शान्त हैं ? अजी कहाँ ? वो सात्विक हैं ? उनका मन विमल सत्व है ? क्या बात कर रहे हो ….ये सब कहकर इन महाभाव स्वरूपा गोपियों का अपमान तो न करो । सात्विक भाव की ऊँचाई पर बैठे बड़े बड़े ज्ञानी योगी इनके पद रज की कामना करते हैं ….तुम कहाँ सात्विकता में उलझे हो ! देखनी है इन गुणातीत गोपियों की स्थिति ? देखो ….एक सखी रोती हुयी दूसरी सखी से पूछती है –
सखी ! क्या कहा ? तनिक फिर तो कह , फिर मृदु गिरा सुनूँ तेरी ।
सहसा बधिर हो गयी हूँ मैं , मिटा मनोज्वाला मेरी ।
पावेगा दग्ध हृदय क्या फिर , वह रत्न महा अभिराम ।
हा हा पैरों पड़ती हूँ मैं , सच कह फिर आवेंगे श्याम ?
अब बताइये ….आपको लगता है ये आपके तीनों गुणों में से एक भी है ?
नही , ये त्रिगुणातीत स्थिति है ।
अब थोड़ा चलो उन प्रेम की ऊँचाई पर स्थित महाप्रेम स्वरूप श्रीभरत जी की ओर ……
तुलसी बाबा को लिखना पड़ा …….
होत न भूतल भाउ भरत को , अचर सचर चर अचर करत को ?
ये किस गुण में आता है ? चारों ओर प्रेम ही प्रेम फैला दिया इस दीवाने ने ।
ये दीवाना चला अयोध्या के राज पाठ को अपने साथ ही लेकर चित्रकूट की ओर…कि मेरे स्वामी श्रीराम को लेकर वापस अवध आऊँगा …नयन में अश्रु ….नंगे पाँव , ओह ! इनकी स्थिति देखकर काँटे फूल बन रहे थे …किन्तु प्रेमियों के जीवन में कष्ट तो आयेंगे ही, आए ही हैं ..आया ।
निषाद राज को सूचना मिली की भरत सेना लेकर आ रहा है …..निषाद राज ने कहा …वह कैकेयी सुत , अब मेरे स्वामी श्रीराम को मारना चाहता है ….तो चलो …हम श्रीराम के लिए लड़ेंगे …भले ही मर जाएँ …किन्तु राम के लिए मरेंगे । अजी ! सेना तैयार हो गयी भीलों की ….पर किसी ने छींक दिया …..एक वृद्ध सचिव भील ने कहा ….क्या पता भरत ऐसा न हो …अपने भाई से मिलने जा रहा हो ….उसके हृदय में भाव हो । निषाद राज रुक गए , उन्होंने कहा ..फिर कैसे परीक्षा ली जाये ?
उस वृद्ध भील ने कहा…आप तीन प्रकार के भोज्य सामग्री उनके सामने रखवाइये ….फिर देखिये ….पहले में रखिये …मांस मदिरा आदि ….जो तामसिक है , दूसरे में रखिए ….तैल मिर्च आदि का तीक्ष्ण भोज्य सामग्री और तीसरे में रखिए कन्द मूल फल फूल । अगर मांस आदि वो स्वीकार करते हैं और तैल आदि का भोज्य स्वीकार किया तो लड़ने के लिए ही वो जा रहे हैं …किन्तु फल फूल अगर स्वीकार करें तो …समझना वो सात्त्विक हैं ….शान्त हैं । उनसे मिल लेना ।
निषाद राज ने वही किया ….स्वयं नही गये ….दूर खड़े होकर उन्होंने वो सामग्री पहुँचाई ….दूर खड़े देख रहे हैं निषाद राज । तभी भरत ने कहा ये क्या है ? निषाद राज ने आपके लिए भेजा है ।
किसने ? निषाद राज ने ? ओह ! वो तो मेरे श्रीराम के भक्त हैं ….ये सुनते ही उन्होंने मांस आदि की तो बात ही नही है ….फल फूल को भी हाथ नही लगाया ….इसका मतलब क्या है ? अपने वृद्घ सचिव से पूछा निषाद राज ने …..तो उन वृद्ध के नेत्रों से अश्रु गिरने लगे ….कहा ये तो त्रिगुणातीत हैं …इन्होंने सत्व गुण को भी पार कर लिया है …इनकी स्थिति का आँकलन करना कठिन है …ये परम प्रेम की उच्च शिखर पर विराजमान हैं । ये सुनते ही निषाद राज दौड़ पड़े …भरत जी ने देखा , ओह ! श्रीराम सखा निषाद ? भरत उधर से दौड़े ..और दोनों मिल गये ।
ये है प्रेमियों की त्रिगुणातीत स्थिति ।
इस “प्रेम नगर” के प्रवेश में , गोपुर के बाद एक खाई है जिसे पार करना आवश्यक है । इसको पार करके ही प्रेम नगर में प्रवेश मिलेगा …लेकिन ये खाई है …”विशुद्ध सात्विकता” की …इसको पार करो …सत्व को “भाव” से झलांग लगाकर पार करो । इस खाई का नाम ही है …”विमल सत्व” । अजी ! ये सबसे बड़ा बाधक है । हाँ , तमोगुण वालों को तो लगता है हम कहीं ग़लत हैं …रजोगुण वालों को भी लगता है ..इस आचरण से क्रोध बढ़ रहा है …इसको छोड़ें …पर ये सात्विक गुण …इसको पार करना बड़ा मुश्किल है …क्यों की इसमें शांति है …अब शान्त स्थिति को त्यागकर प्रेम की “बैचेनी” की ओर बढ़ना है । ओह !
अब शेष कल –
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