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November 22, 2024 4:33 am

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महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (009) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (009) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (009)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

रास की भूमिका एवं रास का संकल्प -भगवानपि०-

प्रेमाद्वयोरसिकयो रविदीप एव, हृद्वेश्म भासयति निश्चल एष भाति ।
त्वाराधयं वदनतस्तु विनिर्गतश्चेद्, निर्याति शान्तिमथवा तनुतामुपैति ।।

यह प्रेम जो है, वह प्रेयसी और प्रेय दोनों के हृदय मंदिर में रहता है और दीपक के समाना प्रज्वलित होता है।

जैसे- दीपकी लौ वैसे यह ज्योतिर्मय रस दोनों के हृदय में प्रज्वलित होता है। इसको हृदय – मंदिर में ही रहने दो; यदि मुख- द्वार से बाहर गया तो हल्का पड़ जाएगा, डावाँडोल हो जाएगा।, डगमगा जाएगा, बाहर की हवा लग जायेगी। इस्र प्रेम-दीपक को हृदय – मंदिर में रखो। अभिमान नहीं होता इसमें। राधारानी को भी ख्याल नहीं होता कि हमारे श्रीकृष्ण का शिर झुका। तो क्या राधारानी का शिर नहीं झुका? अरे, बोले- बहुत झुका है। प्रेम का जो कोई लक्षण है वह त्याग रूप लक्षण है। अपने प्रियतम के सिवाय अन्य का त्याग। निरभिमानता इसका लक्षण है। रोने में भी वही और हँसने में भी वही। प्रेमी दूसरे के लिए नहीं रहो सकता, अपने प्रियतम के लिए रोता है और प्रेमी दूसरे के लिए नहीं हँसता, अपने प्रियतम के लिए हँसता है। उसका होना- हँसना दोनों प्रियतम् से आबद्ध हो गया।

अब आप देखो- इसी रससे सृष्टि हुई है।

आनन्दाद्धयेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते, आनन्देन जातानि जीवन्ति, आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्ति ।

यह आनन्द ही रस है। इसी में सृष्टि उदय होती है, इसी में सृष्टि स्थिर होती है, इसी में सृष्टि का प्रलय होता है, ‘आनन्दो ब्रह्मेति व्याजनात्’ तो वही आनन्द, वही रसब्रह्म ‘विज्ञानमानन्दं ब्रह्म’- वही साँवरा-सलोना व्रजराजकिशोर होकर व्रज में आया, व्रज में प्रकट हुआ।*

यदि कहो कि ब्रह्म बड़ा कि व्रज बड़ा? तो व्रज बड़ा। देखो, अब रासलीला में प्रवेश कर रहे हैं। विष्णु पुराण में और हरिवंश में दोनों में एक श्लोक आता है। हमारी दृष्टि तो उन पर बाद में पड़ी पहले तो जयदेव गीत गोविन्द में वह पद पढ़ा था। जयदेव जी एक श्लोक लिखते हैं-

कैशोरं सफलीकरोति कलयन् कुञ्जे विहारं हरि ।
‘हरि कुञ्जे विहारं कलयन् कैशोरं सफलीकरोति’

भगवान व्रज के निकुञ्जों में विहार करके अपने कैशोर को सफल करते हैं। एक तो भगवान, दूसरी किशोर-अवस्था और तीसरी किशोर अवस्था की सफलता।

भगवान तो सफल हुए तब जब वे व्रज में कृष्ण के रूप में प्रकट हुए और कृष्ण का रूप सफल हुआ तब जब किशोर के रूप में प्रकट हुए- ‘धर्मी किशोरे वात्न’- व्रज में जो शिशु रूप है, जो कुमार रूप है वह दर्म है औरजो किशोर रूप है वह धर्मी है। माने मूलरूप भगवान का किशोर है। माँ को संतुष्ट करने के लिए शिशु बनते हैं और ग्वालों को संतुष्ट करने के लिए सखा बनते हैं। ग्वाल जैसे प्रसन्न होवें तो सखा बनकर खेलते हैं, मैया जैसे प्रसन्न हो तो शिशु बनकर दूध पीते हैं। पर मूल में जब ग्वाल-बाल सो जाते हैं और मैया जब सोती है तो अपना हमेशा का जो रूप है- किशोर रूप वह ग्रहण करके नित्य निकुञ्ज में क्रीड़ा करते हैं। तो किशोररूप धर्मी हैं और शिशुरूप और कुमाररूप धर्म हैं। असल में भगवान किस उमर में रहते है? बोले- दस, पंद्रह, सोलह बरस की उमर। कुछ – कुछ रेखा बलों की रेखा उठनी शुरू ही हुई है। एक पद है बहुत बढ़िया- ‘कछुक उठत मुख रेखै’- रेख उठ रही हैं। यह जो रूप है श्रीकृष्ण का वही मूलरूप है और यही कृष्ण है जो अवतार लेते हैं।

ये कृष्ण पहले सत्ता सामान्य ब्रह्म के रूप में अवतार लेते हैं? देखो, यह वैष्णवों की बात सुनाता हूँ। सत्ता-सामान्य ब्रह्म के रूप में ये कृष्ण प्रकट होते हैं। उनकी ज्योति जो है, वह है उनका नियन्ता अन्तर्यामी रूप। उसके बाद वही उनका मत्स्य बनते हैं, कभी कच्छप बनते हैं, कभी नृसिंह बनत हैं। लेकिन उनका वास्तविक रूप जो है वह कृष्णरूप है जो व्रज में प्रकट होता है परिपूर्णतः रूप में। उसमें भी जो किशोररूप है वह गोपियों के बीच में ही प्रकट होता है अन्य किसी के सामने नहीं और वही असली रूप है भगवान का।*

यह रासलीला का सिद्धांत है। तो-

सोऽपि कैशोरकवयो मानयन् मधुसूदन ।
रेमे ताभिरमेयात्मा क्षपासु क्षपिता हिता ।।

विष्णु पुराण में यह प्रसंग आया कि भगवान अपनी किशोर अवस्था को सफल बनाने के लिए गोपियों के साथ क्रीड़ा करते हैं। अगर गोपियों के साथ क्रीड़ा न करें तो किशोर होना निष्फल। किशोर क्यों हुए? माँ को खुश करने के लिए किशोर हुए? कहा- नहीं। उनका दूध पीते थे। ग्वालों को खुश करने के लिए हुए? कहा नहीं। उनके साथ तो कुमार होकर घर-घर खेलते थे। तब किशोर क्यों हुए? गोपियों के लिए हुए। गोपियों के साथ जो भगवान की लीला है, वही उनके कैशोर को सफल करने के लिए है-

युवतीर्गोपकन्याश्च रात्रौ संकात्यकालवित् ।
कैशोरकं मानयान स ताभिर्मुमोद ह ।।

हरिवंश में यह प्रसंग आया है कि भगवान गोपियों के साथ जो क्रीड़ा करते हैं, वह ध्यान की लीला है, वह ज्ञान की लीला नहीं है। ज्ञान की लीला जो होती है वह संस्कार का अपवाद करके होती है। प्रियता बनेगी तब ध्यान होगा और और संस्कार का अपवाद होगा तब ज्ञान बनेगा। लक्ष्य से इतर का अपवाद करने पर लक्ष्य का ज्ञान होगा और ध्येय की प्राप्ति की दृढ़ वासना होने पर ध्यान होगा। यह रासलीला का प्रसंग है, वह भक्तजनों के ध्यान करने के लिए हैं; इसमें राजनीति की कोई बात नहीं है, इसमें समाज- सेवा की भी कोई बात नहीं है।

वह बात हम निकालकर बता दें, यह बात दूसरी है। वह तो हम बता देंगे कि इसमें यह राजनीति है, इसमें यह समाज सेवा है, इसमें यह वेदान्त है। परंतु यह असली लीला जो है वह संसार में भटकते हुए चित्त को समसत्ताक होकर उसका आकर्षण करने के लिए है। समसत्ताक होकर माने जिस सत्ता में हमारा चित्त भटक रहा है उस सत्ता में आकर भगवान की लीला हमारे चित्त को आकृष्ट करती है।*

क्रमशः …….

🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

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