!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर 19 – “नगर के दस राजकुमार” )
गतांक से आगे –
यत्र प्रेम प्रणय स्नेहमानरागानुरागमहाभावमोदनमादनमोहनाभिदा
यथोत्तरं ज्येष्ठा रतिपतिप्रेष्ठा राजकुमारश्रेष्ठा: ।।
अर्थ – प्रेम नगर के दस राजकुमार हैं….ये रति के श्रेष्ठ पुत्र हैं …जिनके नाम हैं –
प्रेम , प्रणय , स्नेह , मान ,राग , अनुराग , महाभाव , मोदन , मादन और मोहन । इनमें से एक से एक आगे के जो बड़े पुत्र हैं , वो रतिपति को बहुत प्रिय हैं ।
***अब लीजिए …इन नगर के सुन्दर और श्रेष्ठ राजकुमारों से मिलिये । किन्तु एक बात समझ लीजिए कि …इन दस राजकुमारों में सबसे बड़े जो राजकुमार हैं वो राजा को बहुत प्रिय हैं ।
अब आप कहोगे …सबसे बड़े राजकुमार तो “प्रेम” है….नही , प्रथम से आगे आगे जो बड़े हैं । यानि “मोहन”, ये राजा को अतिप्रिय हैं । वैसे भी प्रेम तो आरम्भ की अवस्था का नाम है …और धीरे धीरे …प्रेम , फिर उसके बाद प्रणय , स्नेह , मान …ऐसे आगे बढ़िये …और अन्तिम या कहें उच्च अवस्था वो “मोहन”है । इस अवस्था तक केवल श्रीराधारानी ही पहुँच सकती हैं आज तक कोई नही पहुँचा । स्वयं को ही देखकर मोहित हो जाना …और स्वयं में ही प्रीतम का भान हो , स्वयं से ही मिलने की व्याकुलता में , स्वयं में ही खो जाना । ये अवस्था सर्वोच्च है …इसलिए रति का ज्येष्ठ पुत्र “मोहन” को ही समझना चाहिये …ना कि “प्रेम” को । “प्रेम” प्रथम अवस्था है …इसलिए छोटा पुत्र यानि कनिष्ठ पुत्र “प्रेम” है ।
अब प्रेम का रूप देखो …..ये प्रथम अवस्था का दर्शन है ।
“जिसे देखने की इच्छा हो , बार बार देखने की इच्छा हो , एक बार देखा और देखते रहे ..लगा कि देखा ही नही , और देखें । छूआ …और बार बार छूने की इच्छा हो …उसके छूअन में ही लगे कि कोई जादू है ….और छूयें …बस छूते ही रहें । उसको सुनने की इच्छा हो ..लगे कि वो बोलता रहे हम सुनते रहें । मिथिलावासी कहते हैं ना , “किछु बाजू अहाँ , हम सुनते रहें”…तुम बोलो ..तुम बोलते रहो प्यारे ! हम सुनते रहेंगे । ये प्रेम है ।
इसके बाद आता है “प्रणय”।
प्रणय थोड़ी प्रेम से ऊँची स्थिति है । “प्रणय” में प्रेमी मनुहार करने लगता है , कुछ अधिकार भी जताने लगता है …प्रार्थना भी करता है …ये प्रेम से थोड़ी ऊँची क्लास है । “स्नेह” , प्रणय से ऊँची स्थिति है स्नेह …इसमें प्रीतम को छोटा या बालक की तरह समझ नेह की वर्षा करने की इच्छा होती है ..जैसे – अपने गोद में सुलाना ..उसके सिर में हाथ फेरना । आशीष देना ।
“मान”, स्वाभाविक है ये स्थिति “स्नेह” से ऊँची ही है …..इसमें अब रूठना , बात बात में रूठ जाना …अपने आपको असुरक्षित समझना ….पूर्ण अधिकार मेरा ही हो ये जताना । ये स्थिति ऐसी होती है ….की …….
श्रीराधारानी श्याम सुन्दर के हृदय में पड़ी मणियों की माला देखती हैं …मणियों की माला है उसमें स्वयं को देखकर माला तोड़ देती हैं …उन्हें लगता है ये कोई और है जो मेरे प्रीतम के हृदय में बैठी हुयी है ।
ये स्थिति है “मान” की ।
प्यारी! तुम्हारा मुख चन्द्र की तरह है । श्याम सुन्दर ने श्रीराधारानी से कहा ।
मेरे मुख में क्या कलंक है ? श्रीराधा बोलीं ।
मेरे मुख में क्या चन्द्रमा की तरह धब्बा है ? बस श्रीराधारानी मान कर बैठीं ।
ये स्थिति है “मान” की । अब इसके आगे आता है …”राग”….राग उसे कहते हैं …जो हमें प्रीतम से हर स्थिति में जोड़े रखता है ….चाहे कुछ भी हो जाए …हम प्रीतम को एक क्षण के लिए भी भूल नही पाते …..एक पल भी । ये राग की स्थिति है । अब “अनुराग” …साहित्य में अनुराग को वात्सल्य का स्थाई भाव माना गया है …..इसमें राग तो है …गहरा जुड़ाव तो है ….पर सम्भाल भी है …उसकी चिन्ता भी है …उसकी बेहद परवाह है …..जैसे राग में स्वार्थ हो सकता है ..किन्तु अनुराग में स्वार्थ का अभाव दिखाई देता है । इसलिए राग की अपेक्षा “अनुराग” श्रेष्ठ है ।
हे रसिकों ! यहाँ तक हम लोग पहुँच सकते हैं । किन्तु अब जो आगे की यात्रा है ….क्या कहें ? असम्भव तो है ही …किन्तु प्रेमदेव की कृपा हो तो क्या असम्भव ?
अब सुनो – “अनुराग” के बाद आता है …”महाभाव” ।
महाभाव में देहातीत स्थिति हो जाती है ……उस स्थिति में आप जो कह दो …वो सामने प्रकट हो जाता है …जैसे – जब श्रीराधारानी श्यामसुन्दर के वियोग में तड़फ रहीं थीं …बिलख रहीं थीं उन्हें देह की सुध नही थी …..हा श्याम सुन्दर ! हा प्राण नाथ ! कहकर पुकार रही थीं उस समय ललिता सखी ने ऐसे ही कह दिया ….वो रहे श्याम सुन्दर ! श्रीराधारानी उठ गयीं ….और पूछने लगीं ..कहाँ हैं मेरे श्याम ? ललिता ने कह दिया …वो यमुना के किनारे …श्रीराधारानी दौड़ीं …..और जब पीछे ललिता सखी आदि भागीं सम्भालने के लिए …तो श्रीराधारानी कदम्ब वृक्ष से लिपट कर हंस रहीं थीं …वो कदम्ब को ही श्याम सुन्दर मान बैठीं थीं । उनके लिए कदम्ब वृक्ष श्याम सुन्दर बन गया था । इसे कहते हैं “महाभाव” ।
हे रसिकों ! महाभाव तक गोपियों की भी पहुँच है …यहाँ तक गोपियाँ पहुँची हैं । किन्तु इससे आगे “महाभाव” दो रूपों में बँट जाता है । मोदन और मादन । मोदन महाभाव” श्रीकृष्ण में भी पाया जाता है ….ये भी श्रीराधारानी के प्रेम में इस अवस्था में पहुँच जाते हैं …किन्तु “ मादन महाभाव” ये केवल श्रीराधारानी में ही पाया जाता है …..इस “मादन महाभाव” तक श्रीकृष्ण नही पहुँच पाए …इसलिए तो कृष्ण श्रीराधारानी के आगे सिर झुकाकर “महाभाव” की भिक्षा माँगते रहते हैं ….किन्तु श्रीराधा की इस स्थिति तक वे पहुँच नही पाते ।
हे ललिते ! विलम्ब न कर …मुझे शीघ्र सजा दे ….मेरा शृंगार कर दे ….मुझे श्याम सुन्दर का प्रथम दर्शन करना है । श्रीराधारानी के मुखारविंद से ये सुनकर ….ललिता सखी चौंक जाती हैं …स्वामिनी ! आप अनन्तकाल से तो मिल रही हो ? कहाँ ? मैंने तो श्याम सुन्दर को देखा भी नही है । आज पहली बार देखूँगी …..मुझे जल्दी सजा दे । वो तो बहुत सुन्दर होंगे ना ? तूने देखा है ? बता ना , कैसे हैं श्याम सुन्दर ? हे रसिकों ! ये है “मादन महाभाव” । और “मोहन महाभाव”? यही “मादन” वियोगावस्था में “मोहन महाभाव “बन जाता है । तब श्रीराधारानी को लगता है ….मोहन कौन ? मैं ! तब वो वियोग में भी संयोग का अनुभव करके उन्मत हो उठती हैं ….इसका वर्णन सम्भव नही है ।
हे रसिकों ! प्रेमनगर यानि श्रीवृन्दावन के राजा मधुरमेचक यानि मधुरमय यानि श्यामसुन्दर ।
प्रेमनगर की महारानी रति यानि श्रीराधारानी …इनके दस पुत्र …जो इस नगर के राजकुमार हैं …राजा सबसे ज़्यादा बड़े पुत्र को स्नेह करते हैं ..और बड़ा पुत्र है ..मोहन । “मोहन महाभाव” ।
“अति सूच्छम , कोमल अतिहि , अति पतरो अति दूर ।
प्रेम कठिन सबतें सदा , नित इक रस भरपूर ।।”
शेष चर्चा अब कल –
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