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November 22, 2024 11:00 am

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महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (012) & (013) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (012) & (013) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (012)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

रास के हेतु, स्वरूप और काल

ब्रह्मानन्द शान्त आनन्द है। आप कभी गंगा किनारे बैंठे- पर धारा शान्त हो, आप उसको थोड़ी देर देखते रहिये मन एकाग्र हो जाएगा। समाधि लग जाएगी। गंगा की धारा में मन को एकाग्र करने की शक्ति है। पर जिस समय शीतल मन्द-सुगन्ध वायु चलती है और आश्विकी रात्रि हो या शारदीय प्रातःकाल हो और झिलमिल-झिलमिल थोड़ी लहरें उठती हों, तो वह लहरों का उठना रसानन्द है। एक शान्तानन्द है और एक रसानन्द है। स्फुरणशील आनन्द रसानन्द है। स्फुरणता में रसानन्द है। रासलीला में जो नृत्य है वह स्फुरणता का आनन्द है।

इस तरह से किसी भी दृष्टि से आप देखो- यह भजनान्द का वितरण करने के लिए, अपने प्रेमियों के हृदय में प्रेमानन्द का आधान करने के लिए, सारी सृष्टि को चिन्मयी-सन्मयी-रसमयी बनाने के लिए नेति-नेति के जो उस पार है उस सच्चिदानन्द को सर्वसाधारण के लिए सुलभ बना देने के लिए, यह भगवान की रसमयी रासलीला है।

‘रसानां समूहो रासः’ रास माने रसों का समूह। रसों का समूह क्या? अब देखो- आप फल खायें तो जीभ पर स्वाद ही तो मालूम पड़ेगा, स्वाद के ज्ञान का नाम ही भोजन है। पेट फुलाने का नाम भोजन नहीं है। हमारे एक भगत ऐसे हैं कि उनसे पूछो कि तुम्हारा लाया जो भोजन है उसमें से कितना हमारे पेट में चला जाय तब तुमको संतोष होगा? तो बोलेंगे- महाराज! एक कटोरी तो खा ही लो। उस स्वाद का वजन एक कटोरी बताते हैं। स्वाद में वजन नहीं होता। स्वाद ज्ञानात्मक होता है। जीभ पर जो ये मिर्च है, नमक है, परवल है, चावल है, दाल है इसका जो पृथक-पृथक् ज्ञान होता है, उस ज्ञान को ही स्वाद बताते हैं। जीभ में जो स्वाद होते हैं वह अलग-अलग स्वाद बताते हैं।

स्वाद हमेशा ज्ञानात्मक होता है। इतना ही स्वाद रस नहीं है, कान से जो ‘आसावरी’ सुनते हैं, जो षडक्षरी, केदारा, भैरवी सुनते हैं, यह कान का रस है। और त्वचा से जो सुकोमल प्रिय वस्तु का स्पर्श होता है वह स्पर्श का रस है। नाक से अपने प्यारे की गन्द सूँगते हैं, गुलाब की गंध सूँघते हैं, कमल की गंध सूँघते हैं, वह ज्ञान ही है सब। यह नाक का रस है। नाक से रस, जिह्वा से रस, आँख से रस, त्वचा से रस, कान से रस- इन सबका सामूहिक रस रास है। तो यह रास क्या है? कि ‘रसानां समूहः’। कहो तो एक-एक उद्धरण देकर बता दें!- ‘कुलपतेरिहवातिगन्धः’ श्रीकृष्ण के शरीर में- से वह गन्ध निकलती है जिससे पशु-पक्षी भी एक बार समाधिस्थ हो जाते हैं।*

गोपियों को तो- ‘ददौ ताम्बूलचर्वितम्’- ‘गण्ड गण्डे संदधत्यादात ताम्बूलचर्वितम्’- ताम्बूलचर्वितका स्वाद है। वहाँ नेत्र का रस है- कृष्ण देख रहे हैं, देखे जा रहे हैं। स्पर्श का रस हैं। नाचते हैं न ‘बाहुंप्रियांस उपधाय’ प्यारी जी के कन्धे पर हाथ रखकर चलते हैं-

योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्ये द्वयोद्वयो: ।
प्रतिष्ठे गृहीतानां कण्ठे स्वनिकटं स्त्रिय: ।।

वहाँ वीणा-मृदंग बज रहे हैं। वहाँ बाँसुरी बज रही है। वहाँ संगीत हो रहा है। वह शब्दरस, स्पर्श-रस, रूप-रस, स्वाद-रस और गन्ध, घ्राणरस,- ‘रसानां समूहः’- यह रस का समूह हो गया। ‘सर्वरसः सर्वगन्धः सर्वकामः’ जो चाहो सो लो। अपना सर्वस्व लुटाने के लिए भगवान ने अपनी सत्ता को विकीर्ण कर दिया, अपने ज्ञान को विकीर्ण कर दिया, अपने आनन्द को बिखेर दिया। रासलीला में आनन्द के धूलिकण उड़ते हैं। आनन्द की बहार, फुहारें उड़ती हैं। आनन्द की चाँदनी छिटकती हैं, आनन्द की हवा बहती है, आनन्द की आवाज गूँजती है। वहाँ आनन्द ही आनन्द, आनन्द ही आनन्द। वहाँ आनन्द की लीला है- माने वहाँ आनन्द देने वाला भी आनन्द, आनन्द लेने वाला भी आनन्द, वहाँ क्रिया भी आनन्द और भोग भी आनन्द, इसको बोलते हैं रास- ‘रसानां समूहो रासः’। बात यह है कि वेदान्तियों का ब्रह्म अकेला है और यहाँ भक्तों का जो रस है वह अनेक होकर विलास कर रहा है। वेदान्तियों का रस एक होकर शान्त हो रहा है, एक होकर के समाधिस्थ हो रहा है। इसी का नाम रासलीला है।

रास में जो नृत्य होता है उस नृत्य का नाम नाट्यशास्त्र के अनुसार है- हल्लीषक। सैकड़ों प्रकार के नृत्य होते हैं, जैसे केवल अंगूठे के बल पर नृत्य, नूपूर की विशेषता से नृत्य- नूपूर बजते हैं न पाँव में तो नुपूर बजे एक घुँघरू बजे कि दो घुँघरू बजें कि तीन घुँघरू बजें, यह बजाने में नृत्य की विशेषता होती है। यह नहीं कि जैसे पशु उछलता है। हमने कभी–कभी देखा है- लोग नाचना माने क्या समझते हैं, हमको मालूम नहीं पर कोई राग नहीं, कोई स्वर नहीं, नाचने के नाम पर दोनों हाथ उठाकर सिर्फ उछलते हैं जैसे एक दूसरे को हाथ पकड़कर कुश्ती लड़ रहे हों। वह रास नहीं है, वह डांस है।

यह देखो- संस्कृत में रास-लास-डास, ये तीनों संस्कृत के शब्द हैं- ‘रलयोरभेदः, डलयोरभेदः’। ऋ और लृ में सावर्ण्य है और लृ और ‘ड’ में सावर्ण्य है। ‘रलयोरभेदः डलयोरभेदः’- तो रास है वही लास है वही डास है। ‘लास’ संस्कृत शब्द है। लास माने नृत्य। अंग्रेजी में तो जो लास है वह बनियों के काम का है।*

तो एक अंग हिले, आँख की केवल पलक चले, केवल भौंह चले, केवल ठुड्डी हिले इसमें सबमें भाव होता है। जैसे- कामशास्त्र के अनुसार रतिविलास के चौरासी आसन होते हैं, जैसे योगशास्त्र के अनुसार चौरासी आसन होते हैं- वीरासन, सिद्धासन आदि; वैसे नृत्य की भी चौरासी मुद्रायें हैं। आप लोग कभी दक्षिण गये हों तो वहाँ चितम्बरम् तीर्थ में पाषाण में नृत्य की चौरासी मुद्रायें खोदी हुई हैं। चिदम्बरम् भगवान नटराज तो हैं ही। इसलिए नृत्य की मुद्राएं वहाँ खुदी हुई हैं। तो वे नटराज हैं और ये नटवर हैं। ‘वर’ शब्द कृष्ण के ही साथ बढ़िया जुड़ता है और किसी के साथ नहीं, शंकरजी को नटवर नहीं बोलते हैं, शंकरजी को नटराज बोलते हैं। नटवर शब्द केवल कृष्ण के साथ जुड़ता है। नचाता कौन है? देखो- वैसे तो सबको नचाने वाला भगवान है। आप जानते ही हैं उसको नचाने का बहुत शौक है :

जग पेखन तुम देखन हारे।
विधि हरि शम्भु नचावन हारे ।।

ब्रह्मा को नचायें, विष्णु को नचायें, शंकर को नचायें, सबको नचाता है भगवान। भगवान वह है जो सबको नचावे। पर कोई ऐसा हो जो भगवान से भी कहे- उठो, नाचो! नचाते ही रहोगे हमेशा कि नाचोगे भी। तो वह कौन है? देखो- परमस्वतंत्र जो ईश्वर है, सर्वाधिक सबका मालिक है। वह सबको को नचाता है लेकिन प्रेम के हाथों नाचता है। तो ईश्वर का भी ईश्वर कौन है? ईश्वर का ईश्वर प्रेम है। प्रेम ईश्वर को भी वश में करता है, यही प्रेम का स्वभाव है। प्रेम का स्वभाव है ईश्वर को भी वश में करके बोले कि अब पहनो पीला कपड़ा। कहा- हाँ हजूर, पीला ही पहनेंगे। बोले- छोटे बन जाओ, बड़े बन जाओ, बायें हो जाओ, दायें हो जाओ, ऊपर हो जाओ, नीचे हो जाओ! कि हाँ हजूर, ऐसा ही। यह क्या है? यह प्रेम जो है भगवान को फँसाता है।

आपको आश्चर्य होगा कि वेदान्ती लोग मानते हैं कि यह जगत् चेतन ब्रह्म का विवर्त है। विवर्त माने विरुद्ध वर्त्तन, जो चीज जैसी है वैसी न भास करके, उसके विपरीत भासे तो उसको बोलते हैं विवर्त। आपलोग मनुस्मृति पढ़ते होंगे, वेदान्तदर्शन पढ़ते होंगे। ठीक है प्रेमशास्त्र पढ़ने का काम तो कम पड़ता होगा आपको। सबको मिलता भी नहीं है, सबकी रुचि भी नहीं होती है।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (013)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

रास के हेतु, स्वरूप और काल

प्रेमशास्त्र का कहना यह है कि प्रेम अनन्त समुद्र है अनन्तरस का समुद्र है प्रेम। बाहर-भीतर, ऊपर-नीचे, दायें-बायें, यह – वह, मैं-तू सब क्या है? कि प्रेम रस है। आनन्द है; आनन्द ब्रह्म है और उसका विवर्त क्या है? उसका विवर्त है- राधा-कृष्ण। प्रेम रस के समुद्र में एक तरंग उठती है- राधा बनती है और एक तरंग उठती है- कृष्ण बनती है। दोनों दो ओर से मिलते हैं, आपस में मिलते हैं, एक दूसरे में समा जाते हैं। बायें वाली राधा दाहिनें आ जाती है; दाहिने वाले कृष्ण बायें आ जाते हैं। कृष्ण बायें आ जाते हैं। कृष्ण राधा हो जाते हैं, राधा कृष्ण हो जाती हैं। क्योंकि जल तो एक ही है सिर्फ होकर नाचना, दोनों का आपस में मिलना, दोनों का दायें, बायें हो जाना, यह सब रसात्मक ही है।

आपको देखो- एक वेदान्त की बात सुनाते हैं। आकृति जितनी हैं ये सब सत्ता में खिंचतीं हैं। आकार सद् विवर्त है। पर चिद् विवर्त क्या है? कहा- वृत्तियाँ। वृत्तियाँ जितनी हैं चिद्-विवर्त हैं। बुद्धिवृत्तियाँ जो हैं वे ज्ञान से अनुगत ही होती हैं और आकार जितने होते हैं वे सत्ता में ही अनुगत होते हैं। और ये हमारे इष्टदेव, प्यारे इष्टदेव, कौन हैं? तो ये आनन्द हैं। आनन्द में भाव के द्वारा रेखा खींचकर इष्ट की आकृति बनती है। आनन्द समुद्र में, आनन्द ब्रह्म में, भक्त का जो भाव है वह आकृति बनाकर के आनन्द को ही अपने प्रियतम इष्टदेव के रूप में देखता है।

तो सद्-विवर्त आकार, चिद्-विवर्त बुद्धि वृत्तियाँ और आनन्द-विवर्त इष्टदेव। उस इष्टदेव से प्यार करो। देखो चित्त-विवर्त और सद्-विवर्त में जो राग है वह बिलकुल छूट जाएगा। संसार की आकृतियों में जो राग है और चिद्-विवर्त बुद्धि-वृत्तियों में जो राग है वह बिल्कुल छूट जाएगा ये भगवान रस-स्वरूप हैं। ‘भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’ कल आपको सुनाया था। मन में तो आता है कि थोड़ा हँसी-खेल की बात सुनावें। आज तो हमको एक आदमी ने फोन किया था, शायद यहाँ बैठे हों कि आप सबेरे वेदान्त की जरा ज्यादा गम्भीर बातें करते हैं तो समझ में नहीं आती, वहाँ भी थोड़ी भक्ति, उपासना या प्रेम की बात किया करें। अब यहाँ भी भक्ति-प्रेम की बात करने लगते हैं तो कोई-कोई बात ऐसी हो जाती है जो जरा गंभीर है। प्रेम का सिद्धांत भी उतना ही गंभीर है जितना ज्ञान का। चिद् जितना गंभीर है आनन्द भी उतना गंभीर है।*

तो मनको ले चलो भगवान की लीला में। यह वृन्दावन की भूमि है। कदम्ब के वृक्ष हैं, बेला-चमेली के पुष्प खिलते यहाँ और तुलसी की सुगन्ध से यह भूमि भरपूर रहती है। भगवान भूमि में रास करते हैं क्योंकि पृथ्वी के बुलाने से आये हैं। और ये तुलसी है, बेला है, चमेली है, गुलाब है, कमल है, चम्पा है, ये सब कौन हैं? कि ये पृथ्वी के द्वारा भगवान का स्वागत किया जा रहा है। पृथ्वी का रोम रोम फूल बनकर खिल रहा है, पृथ्वी का स्पर्श करके शीतल मन्द सुगन्ध वायु बह रहा है। ‘भगवानपि’- जब भगवान देखते हैं कि हमारे सामने वाले के हृदय में प्रेम की ऐसी तैयारी है तो ‘भगवानपि’ भगवान भी रास का मन बना लेते हैं।

कल मैंने भगवान शब्द का जैसा अर्थ कर दिया था। तो विपिन बाबू ने कहा- छहों ऐश्वर्यवाली बात कहाँ चली गयी। तो विष्णु पुराण में भगवान शब्द का दो अर्थ लिखा हुआ है- भगवान का एक अर्थ है- ईश्वर और भगवान का दूसरा अर्थ है तत्त्वज्ञानी। दो अर्थों में विष्णुपुराण में भगवान शब्द का व्यवहार हुआ है। दोनों श्लोक हमको याद है-

उत्पत्ति च विनाशञ्च भूतानामागतिं गतिम् ।
वेत्ति विद्यामविद्यां च स वाच्यो भगवानिति ।।

जो उत्पत्ति का रहस्य, प्रलय का रहस्य, प्राणियों के लोकान्तर गमन और आगमन का रहस्य और अज्ञान और ज्ञान- ईन छह बातों को जाने उसको भगवान कहना और-

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशस श्रिय ।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णाम भग इतीरणा ।।

यह ईश्वर के लिए है। समग्र ऐश्वर्य, समग्रज्ञान, समग्रवैराग्य, समग्र धर्म, समग्र यश, समग्र लक्ष्मी जिसमें विद्यमान हों उसको कहना भगवान। तो एकतो भगवान हुआ- षड्विध ऐश्वर्यशाली ईश्वर और एक हुआ सर्व-रहस्य विज्ञाता- ‘यस्मिन् विज्ञाते सर्वं विज्ञातं भवति’ वह तत्त्वज्ञानी है।*

हमें कल किसी ने बताया कि कुछ महाशय ऐसे होते हैं जो कहते हैं कि यह भगवान शब्द अच्छा नहीं है। भगवान नाम से ही वे चिढ़ते हैं। तो उसी समय हमको ध्यान में आया कि ऋग्वेद में तो भगवान शब्द का कितनी बार प्रयोग है और बड़े प्रशस्त अर्थ में, और उपनिषदों में भगवान, ‘भगवन’ इस शब्द का प्रयोग है। तो यहाँ ‘भगवानप’ का अर्थ यही कर लो कि बड़े ऐश्वर्यशाली हैं, धर्मात्मा भी हैं, यशस्वी हैं। अब भक्त जो होगा उसका काम तो यह है कि इष्टदेव यदि धर्मात्मा के रूप में विख्यात हैं तो उनका और धर्म बढ़े; उनका बड़ा यह है तो कोई कलंक न लगने पावें; यह वैराग्यवान् है तो उनका वैराग्य और प्रज्ज्वलित होवे; बड़े सुन्दर हैं तो उनका सौन्दर्य और बढ़े। यह भक्त का काम हुआ। लेकिन महाराज! भगवान इसकी परवाह नहीं करते। ‘भगवानपि’, ‘भगवानपि वीक्ष्य रन्तुं मन्श्चक्रे’।

भक्त को तो यह चाहिए कि वह भगवान का यश बढ़ावें, भगवान का धर्म बढ़ावें, भगवान का वैराग्य बढ़ावें, और बढ़ा-बढ़ाकर, सोच-सोचकर खुश हों; परंतु भगवान को जब भक्तों के बीच में कूद-कूदकर आना पड़ता है तो वे अपने ऐश्वर्य को नहीं संभालते। कहा- भले लोग हमको ऐश्वर्यशाली न समझें, हमको गरीब ही समझें; हमको यशस्वी न समझें, कलंकी समझें; हमको धर्मात्मा न समझें, अधर्मी समझें, हमको सुन्दर न समझें, कुरूप समझे; लेकिन हम अपने प्रेमी को भला कैसे छोड़ सकते हैं भाई। यह भगवद्- धर्म है। तो ‘भगवानपि’ भगवान होने पर भी, इतने बड़े ऐश्वर्यशाली होने पर भी, जब देखा कि हमारा प्रेमी हमारे लिए तड़प रहा है, हमसे मिलने के लिए व्याकुल हो रहा है, तो अपने समग्र ऐश्वर्य की, समग्र धर्म की, समग्र ज्ञान की, समग्र वैराग्य की, समग्र यश की, श्रीकी उपेक्षा करके ‘वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे’ हमको देखा तो कूद पड़े। यह ‘भगवान’ शब्द का अर्थ ‘ऐश्वर्यशाली’ लेकर ‘भगवान’ का अर्थ हुआ है। और ‘भगवानपि’ का अर्थ कल बताया था कि गोपियों के मन में जो विहार का संकल्प था ही, अब भगवान ने भी किया है। यह भी बताया था कि काम के मन में दो-दो हाथ आजमाने की थी ही, अब भगवान ने भी संकल्प किया। ‘अपि’ शब्द का अर्थ संस्कृत में होता है ‘भी’।

अब एक भाव और देखो- हँसी की बात है। हँसी की भी बात मैं कह रहा हूँ- ‘भगवानपिता रात्रीः’ है न- ‘कथं भूतो भगवान’, कहा- ‘अपिता’। बाप ही नहीं है उनके! अगर कोई बाप वाला बालक होता तो उसको डर लगता कि हम कोई गड़बड़ करेंगे तो हमारा बाप डाँटेगा। पूछेगा- रात में कहाँ गये थे? कि नाच रहे थे? तो वह तो डाँटेगा, नियंत्रण करेगा। और ये कैसे हैं कि ‘अपिता’- इनके तो बाप ही नहीं। ‘भगवानपिता’- ‘अपिता’ का अर्थ स्वतंत्र है।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

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