महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (014)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
रास के हेतु, स्वरूप और काल
लौकिक व्याकरण के अनुसार ‘अपितृकः’। देखो इसीलिए कृष्ण भगवान का जो जन्म है न, व्रजवासी लोग समझते हैं कि नन्द बाप हैं और मधुरावासी समझते हैं कि वसुदेव बाप हैं। अब दोनों में कौन बाप हैं? बाप ही गड़बड़ा दिया! दो बाप रहेंगे तो संशय में पड़ जाएंगे। इसीलिए श्रुति में भी व्याख्या ऐसी की जाती है। सृष्टि में पहले क्या पैदा हुआ? तो बोले- पहले आकाश पैदा हुआ। दूसरी श्रुति ने कहा- पहले तेज पैदा हुआ। तीसरी ने कहा- पहले- पीछे पैदा होना सब का सब गड़बड़ाध्यायी है। जब एक बात को दो तीन तरह से गवाह बोलता है तो बात झूठी बतायी जाती है। भगवान सबके बाप हैं, बापके बाप हैं। इसीलिए तो ‘भगवानपिता’ हैं।
अब रास का समय कैसा आया- ‘ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिका’ अरे ! बाबा, वह ‘रात’ तो मोती-हीरा से जटिल नीली साड़ी पहनकर और वह चाँदनी की चमचम चमक लेकर मुस्कुराती हुई आयी। रात की मुस्कुराहट का नाम चाँदनी है और रात की साड़ी का नाम नीलिमा है। आकाश की नीलिमा रात्रि की साड़ी है और उसमें जो तारे हैं ये हीरे-मोती जड़े हैं और चाँदनी रात की मुस्कान है। यह उद्दीपन बनकर आयी। माने हमको जब भगवान मुस्कुराते हुए, नीली साड़ी पहने हुए, हीरा-मणि- मणिक्य से जटित वस्त्र धारण किए हुए देखेंगे तो उनको गोपियों की याद जरूर आएगी।
तो ‘ताः रात्री वीक्ष्य’- एक रात ही नहीं, सारी रातें आयीं। वहाँ गड़बड़ यह हो गयी थी बोलने में कि जब भगवान ने गोपियों को वरदान दिया था तो यह नहीं कहा कि ‘शरद पूर्णिमा को हम रास करेंगे। ऐसे कहा था कि- ‘मयेमा रंस्यथ क्षपाः’ अगली रात्रियों में तुम हमारे साथ बिहार करना। अगली रात्रियाँ कौन सी? तो जब से भगवान ने वरदान दिया तब से लेकर और कल्प भर में जितनी रातें होने वाली थीं, वे सब सोलहों श्रृंगार करके आकर खड़ी हो गयीं। हाँ, सोलहों श्रृंगार छत्तीसों आभरण धारण करके। जैसे- छह राग और छत्तीस रागिनी बोलते हैं न, वैसे तो वे सब रातें लेकर जब आकर अड़ी हुईं तब भगवान ने कहा- तुम कौन?’ बोली- महाराज! जिनमें विहार करने के लिए आपने वरदान दिया वे रात्रि हैं हम। ये काल की अभिमानी हैं।
ये जो सोलह तिथियाँ हैं- प्रतिपदा से लेकर चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा तक- इन सोलहों को नित्या बोलते हैं। इन सबकी एक-एक रात होती है। और सोलहों रात्रि में शत-शत सहस्र-सहस्र कलाएं होती हैं। इस प्रकार सोलह हजार इनकी गिनती हो जाती है। काल के प्रत्येक अवयव के साथ भगवान का विहार है। प्रतिक्षण वृत्ति होती है प्रतिक्षण वृत्ति। तो भगवान सबमें विहार कर रहे हैं। कोई काली है, कोई गोरी है, प्रतिपदा भी तो है उसमें।*
शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा काली होती है तो और कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा गोरी होती है। अच्छा ये जो घटा-बढ़ी होती है प्रकाश में, वह मुस्कान में होठों की कट जैसे होती है, कितने दाँत दिखते हैं, इसके कारण है। शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा हो तो वह हँसती नहीं है और कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा मुँह खोलकर हँसती है, उसके बत्तीसों दाँत दिखते हैं। यह उसका हिसाब है। तो प्रत्येक तिथि को नित्या बोलते हैं और ये सोलह नित्या होती है और सोलह नित्या के एक-एक हजार कला भेद होते हैं। तो ऐसे संख्या सोलह हजार हो जाती है।
एक बार की बात है- एक सज्जन ने पूछा- महाराज! कृष्ण भगवान ने और सब तो बहुत बढ़िया किया पर सोलह हजार जो ब्याह कर लिया, वह ठीक नहीं किया। हमने कहा- नहीं भाई! यह तो बहुत घटाते-घटाते कम करके ब्याह की संख्या बतायी गयी है। जितनी वृत्ति संसार में है, जितने प्राणी हैं, जितने मनुष्य हैं,
जितने देवता है, जितने पशु-पक्षी हैं, उनके चित्त में जितनी वृत्ति होती है, पहले हुई और होगी, उनके साथ रास करने वाला वही है। अनन्त गोपियों के साथ रास विलास करने वाला है। उसके लिए केवल सोलह हजार बताना, यह तो उसकी तौहीन है। ये सोलह हजार नित्याएं हैं।
इसी से- ‘ता रात्रीः वीक्ष्य’ माने जिनके लिए वरदान दिया था उन सब रात्रियों को देख करके। अब रात्रि किसको कहते हैं तो जो रमण समर्पण करे उसका नाम रात्रि है। ‘रा’ धातु जो है वह दान अर्थ में है और ‘आदान’ अर्थ में भी है। ‘रैदाने आदाने च’ जो दे और ले- दोनों काम करे- उसको रात्रि बोलते हैं। तो ‘ताः वीक्ष्य रात्रीर्वीक्ष्य शरदोत्फुल्लमल्लिकाः वीक्ष्य।’
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
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