!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर 21 – “भागवत धर्म’ नगर का संविधान है” )
गतांक से आगे –
यत्र पुरपरिपालक: स्थिरीकृतराजशासन: कीरोक्ति विलासो नाम ।।
अर्थ – जहाँ उस नगर ( प्रेमनगर ) का परिपालन करने वाला – रक्षक “कीरोक्ति-विलास” नाम का है ….जो राजा के शासन को स्थिर करने में समर्थ है ।
* प्रेम नगर का संविधान , जिसे यहाँ कहा गया …”कीरोक्ति” । कीर कहते हैं शुक को …उक्ति कहते हैं – वचन को । भागवत को शुक यानि तोते ने ही तो गाया है । यानि श्रीशुकदेव जी ने ही तो गाया है , उन्हीं के वचन, “भागवत धर्म”, इस प्रेम नगर का संविधान है ।
ये शुक गोलोक में श्रीराधा जी के साथ ही रहते थे …श्रीजी इनके साथ खेलती थीं …ये “राधे राधे” बोलते थे …और आनन्दमग्न हो जाते …किन्तु श्रीराधा इन्हें बड़े प्यार से कहती थीं …ना , कृष्ण बोलो …हे शुक ! कृष्ण कहो …ये उड़कर श्रीकृष्ण के पास जाते …तो वहाँ जाकर ये कहते …”कृष्ण” । अपनी प्यारी का शुक है ये जानकर श्रीकृष्ण इसे बहुत प्यार करते , अपनी हथेली में रख लेते और बड़े प्रेम से इसे चूमते हुए कहते , ना ! राधे कहो ! हे शुक ! राधे कहो । ये फिर “राधे राधे” कहते हुए श्रीजी के पास जाते ….तब श्रीजी हंसते हुए इसे अनार के दाने खिलातीं और फिर समझातीं ….”श्याम” कहो । अब “श्याम” ही कहना । ये शुक फिर उड़ता हुआ “श्याम श्याम” कहता श्याम सुन्दर के पास जाता …तो श्याम सुन्दर इसे फिर प्रेम से समझाते कहते ….मुझे श्याम , कृष्ण सुनना इतना अच्छा नही लगता जितना “राधे” सुनना …तू मुझे प्रसन्न करना चाहता है तो “राधे” बोला कर ……अब यही बात शुक को समझायी श्रीराधा ने …हे शुक ! मुझे “राधे” सुनने से वो प्रसन्नता नही मिलती …जो श्याम या कृष्ण सुनने से मिलती है । अब ये प्यारा सा पक्षी शुक सोच में पड़ गया क्या कहा जाए ? श्याम सुन्दर को राधे सुनना प्रिय है और हमारी स्वामिनी को श्याम या कृष्ण सुनना । तो आज शुक ने एक उपाय खोज निकाला …..वो आज प्रातः से ही गोलोक में “जुगल नाम” ही लेकर उड़ रहा है …गोलोक की सखियाँ इसे देख रहीं और बड़ी आनंदित हैं …श्रीराधारानी इस युगल मंत्र को सुनकर मुग्ध हैं और श्याम सुन्दर इस शुक की इस चतुरता पर रीझ गये हैं ….ये गा रहा है ……
!! राधे कृष्ण राधे कृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे , राधे श्याम राधे श्याम श्याम श्याम राधे राधे !!
पूरा गोलोक अब यही गा रहा है …सखियाँ यही गा रही हैं …वहाँ के वृक्ष-लता सब यही या रहे हैं …और इतना ही नही हमारे युगलवर भी यही गा रहे हैं …ये गोलोक , कुँज , निकुँज का निज मन्त्र बन गया था ।
हे शुक ! तुम कुछ मेरे प्यारे के विषय में सुनाओ ना ! स्वामिनी श्रीराधारानी जब शुक को ये कहतीं तो शुक अपनी मधुर वाणी में श्रीकृष्ण के विषय में सुनाते, मुग्ध हो जातीं हमारी स्वामिनी ।
सिद्धांत कौन सा श्रेष्ठ है ? स्वामिनी ने प्रश्न किया एक दिन ।
अपना सिर स्वामिनी के चरणों में रखते हुए शुक बोला ….”प्रेम” ।
जगत में लोग दुखी क्यों हैं ? करुणामयी का ये दूसरा प्रश्न था ।
“प्रेम” को जगत के लोग भूल जाते हैं इसलिए दुखी हैं । शुक का उत्तर था ।
पुण्य क्या है ?
“प्रेम” करना ।
और पाप ?
“प्रेम” से दूर चले जाना ।
कर्तव्य क्या है ?
अपनी स्वामिनी की गोद में बैठते हुए शुक ने कहा …..”प्रेम” ही सबसे बड़ा कर्तव्य है ।
अनन्त जन्मों के संस्कार से चित्त में पाप बैठ गया है …उसे कैसे मिटाये ये जीव ?
शुक ने उछलते हुए कहा ….रोये और रोते हुए आपका और आपके प्यारे का नाम ले …बस पाप क्या चित्त ही समाप्त हो जाएगा ।
पृथ्वी कब अपने को धन्य मानती है ? आज स्वामिनी अपने शुक से प्रश्नोत्तर कर रही थीं ।
जब जीव आपका और आपके स्वामी का नाम लेते हुए बिलखता है , रोता है और उन्मत्त होकर नाचता है …ऐसे को पाकर पृथ्वी अपने को धन्य मानती है ।
सबसे बड़ा धर्म क्या है ?
प्रत्येक कर्म आपके चरणों अर्पण कर दे …..हे स्वामिनी ! यही सबसे बड़ा धर्म है ।
देव ऋण , पितृऋण , ऋषि ऋण ….इन सब ऋण से उऋण कैसे हो मनुष्य ? हे शुक ! क्यों की इन ऋण को लेकर जीव पैदा होता है ।
स्वामिनी के मुख से ये प्रश्न सुनकर …..शुक उछलने लगा …और अपनी स्वामिनी के चरणों को चूमने लगा ।
इन चरणों को पकड़ ले तो कोई ऋण जीव को नही लगेंगे …क्यों की हे स्वामिनी ! इन चरणों से विमुख होने पर ही सारे ऋण लगते हैं ….इन कोमल अरुण चरणों के आश्रित होते ही ….देवता भी उस पर प्रसन्न हो उसे प्रणाम करते हैं …ऋषि धन्य हो जाते हैं और पितर तो तर ही जाते हैं ।
और कुछ सुनाओ तुम बहुत मधुर और तत्व की बात बोलते हो …हे शुक ! और बोलो ।
झुक गया स्वामिनी के चरणों में वो शुक और बोला …श्रेष्ठ भक्त जब आपका नाम लेते हुए अपने आपको भी भूल जाता है …अश्रु गिरते हैं …आह भरते हुए जब वो स्वाँस लेता है …तो उसकी स्वाँस से दसों दिशायें पवित्र होजाती हैं ….वो जहां जाता है उस देश को पवित्र कर देता है …मैं क्या कहूँ उस प्रेमी की महिमा को …ऐसा प्रेमी तो तीनों भुवनों को पावन कर देता है ।
ये सब सुनकर करुणामयी श्रीराधारानी बोलीं …..हे शुक ! अब मेरी एक इच्छा है ।
आज्ञा करो । शुक ने झुक कर कहा ।
तुम पृथ्वी में जाओ …और इस “भागवत धर्म” का प्रचार-प्रसार करो ।
ये सुनते ही शुक मौन हो गया …कुछ न बोल न सका ….स्वामिनी ने उसे उठाया और कहा ….जीव बेचारा भटक रहा है …..वो कर्मकाण्ड के जाल में इतना उलझा हुआ है कि निकल ही नही पाता और फिर शास्त्र इतने हैं …उनका जाल तो मात्र उलझाने वाला ही है …..स्वर्ग नर्क अन्य लोकों का प्रलोभन देकर जीव को शास्त्र उलझा रहे हैं ….इसलिये तुम इस “भागवत धर्म” को पृथ्वी में लेकर जाओ …और सबको बताओ । शुक के नेत्रों से अश्रु बहने लगे ….किन्तु स्वामिनी ! आपके इन चरणों से मुझे दूर होना होगा ? ओह !
श्याम सुन्दर भी उसी समय वहाँ आगये ….और सारी बात जानकर करुणामयी की करुणा पर रीझ उठे, वो भी बोले ..जाओ शुक ! पृथ्वी के दुखी जीवों को इस प्रेमपूर्ण “भागवत धर्म” की ज़रूरत है ।
शुक ने प्रणाम किया …..और पृथ्वी में ….श्रीराधारानी का ये प्रिय शुक …श्रीशुकदेव मुनि के रूप में अवतरित हुए ….जिन्होंने भागवत धर्म की शिक्षा समस्त जीवों को प्रदान करी ।
प्रेमनगर का संविधान भागवतधर्म है , जो श्रीशुक ने कहे हैं , वो भागवतधर्म ।
यहाँ के लोग इसी भागवत धर्म के आधार पर चलते हैं ….प्रेम नगर को स्थिर करने वाला ये भागवतधर्म ही है ।
जो “भागवत धर्म” कहता है …..एक मात्र भगवान को मानों …उन्हीं के नाम का सुमिरन करो …उन्हीं को सबमें देखो , सारे कर्म उन्हीं के लिए करो । तीनों भुवनों की सम्पत्ति मिल जाये फिर भी अपने भगवान को एक क्षण के लिए भी मत भूलो । यही है भागवत धर्म ।
हे रसिकों ! मूल में भागवत है …..भागवत धर्म है ….आप “निकुँज रस” के नाम पर भागवत धर्म की अवहेलना मत करो …ये हमारा संविधान है …संविधान को तोड़ोगे तो वो उचित नही होगा ।
हमारे बृज के रसिकों ने कहा है ….। प्रथम सुनें भागवत , भक्त मुख भगवत वाणी ।
“प्रथम” शब्द आया है …यानि मूल में भागवत धर्म ही है …जो हमारी रसोपासना की नींव है ।
अब शेष कल –
Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877