!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर 22 – “नगर का बलशाली सेनापति” )
गतांक से आगे –
यत्र शूरत्वमात्रादृतो निरर्गलो राजसेवानभिज्ञोनत्यंताभीष्टो राज्ञा दुर्जननिर्जयाय ।
निर्दिष्टो निरन्तरं परितो नगरमेव परिभ्रमति सेनापतिरभ्यस्त शास्त्रो नाम ।।
अर्थ – जहाँ ( प्रेमनगर में ) “अभ्यस्त शास्त्र” नामका सेनापति चारों ओर घूमता रहता है …ये बलशाली है …इसे नगर की रक्षा के लिए रखा गया है । ये शूरवीर है …इसलिए नगर के राजा द्वारा इसे आदर प्राप्त हैं । किन्तु राजा के निज सेवा में ये कुशल नही है । इसलिए राजा को ये बहुत प्रिय नही है । इसको केवल दुर्जन लोगों को जीतने के लिए रखा गया है ।
हे रसिकों ! अब सुनिये …प्रेमनगर के सेनापति के विषय में ।
शास्त्र आदि , शास्त्रों का अभ्यास , शास्त्रों का स्वाध्याय …ये आपको भगवान का प्रिय नही बनाता ….आपने बहुत शास्त्र पढ़ लिए ….उससे आपका ज्ञान अवश्य बढ़ जाए …किन्तु जो हमारा “सनातन साजन” है वो तो प्रसन्न होता है भाव से , गाढ़ राग से , अनुराग से ……
तो क्या ये आवश्यक नही हैं ? शास्त्रों का स्वाध्याय आवश्यक नही हैं ?
है , ये आपके प्रेमनगर की सुरक्षा के लिए है , बस । इससे ज़्यादा और कुछ नही ।
आपको इतना तो ज्ञान होना चाहिए कि – आपका प्रीतम ही सब कुछ है ….उसके चरणों में हमारी रति , अनुरक्ति ये समस्त शास्त्रों का सार है …..कोई वाचाल शास्त्री आपके पास आगया ….कोई शास्त्रों का तथाकथित विद्वान आपके पास आगया और वो कहने लगा कि – तुम ये क्या कर रहे हो ? अरे , भगवान को भोग लगा रहे हो …इन दिनों पितरों का श्राद्ध करना है …पितर पक्ष चल रहा है , पितरों को खिलाओ …पिण्ड बनाकर पितरों को दो , देखो ! शास्त्र ये कह रहे हैं …शास्त्र भगवान की वाणी हैं ये प्रमाण है , और तुम्हें वो प्रणाम दिखा दे ….अब उस समय कैसे अपने प्रेमनगर ( हृदय ) की रक्षा करोगे ? तुम्हें किंचित भी नही पता …कि शास्त्र क्या कह रहे हैं …तो तुम्हारा प्रेमनगर वो विद्वान उजाड़ के चला जाएगा ।
अरे ! तुम्हारे परिवार में कोई मर गया है …तुम्हें सूतक लगा है …और तुम भगवान की पूजा कर रहे हो ? तुम पाप कर रहे हो …देखो ! शास्त्र में ये लिखा है ….वो दिखा दे …वो तुम्हें चुप कर दे ….तुम्हें लगे कि हाँ , बात तो सही है …शास्त्र विरुद्ध जाना तो ठीक नही है …और तुम अपने प्रीतम आराध्य की सेवा छोड़ दो ….उसे भोग लगाना छोड़ दो …तो लूट ले गया वो शास्त्री तुम्हारे प्रेम नगर को ।
इसलिए एक सेनापति आवश्यक है जो बलशाली हो -“अभ्यस्त शास्त्र” नाम का सेनापति । इसके लिए तुम कुछ कुछ शास्त्र को देख लिया करो ….कभी कभी कुछ पुराण का स्वाध्याय कर लिया करो ….इससे कोई भगवान नही मिलेंगे ….न भगवान तुम्हारे शास्त्र के अध्ययन से तुम पर प्रसन्न होंगे …इससे अपने निज महल में सेवा नही देंगे , किन्तु इससे तुम्हारे प्रेमनगर की सुरक्षा बनी रहेगी ….कोई भी आयेगा तुम्हारे पास तो तुम उससे कह सकते हो …कि शास्त्र में ये भी लिखा है …..कि “देवर्षि भूतात्म नृणाम् पितृणाम्” जब तक हम भगवान की शरणागति नही लेते तब तक ही पितर, ऋषि , देव आदि ऋण जीव को लगते हैं ….किन्तु जब हम भगवान के शरण में चले जाते हैं तब कोई ऋण हमें नहीं लगते …क्यों की हम भगवान के हो गये …तो सब ऋणों से हम मुक्त हो गये । ये शास्त्र की बात है ….ये शास्त्रीय प्रमाण है , ये बात आपको पता होगी तो आप उन तथाकथित विद्वान को बताकर अपने प्रेमनगर की रक्षा कर सकते हैं …अन्यथा कोई भी आकर आपके प्रेमनगर को उजाड़ सकता है ।
एक बार मेरे ही साधक ने मुझ से कहा ….उस साधक ने चार वर्षों तक युगलमन्त्र का जाप किया था ….राधा नाम का प्राणायाम भी करता था ….’रा’कहते ..साँसों को खींचना और ‘धा’ कहते हुए
साँसों को छोड़ना …..किन्तु वो जब एक बार मुझे मिला तो बोला ….’ॐ’ सबसे बड़ा है …मैंने ‘ॐ’ नाम से प्राणायाम आरम्भ कर दिया है । मैंने उससे कहा ..क्यों ? तो वो बोला …एक वैदिक विद्वान ( तथाकथित आर्य समाजी )। मेरे पास आये और बोले …कि शास्त्र में लिखा है ॐ बड़ा है …और तुम राधा राधा जपते हो …राधा नाम तो शास्त्र में है ही नही । ॐ जपो …..। मुझ से वो बोला ….महाराज ! बात तो सही लगी मुझे । मैंने उससे कहा ….राधा नाम वेद में है …राधा नाम उपनिषद में है ….पद्मपुराण से लेकर ब्रह्मवैवर्त पुराण में है ….अगर पुराण को नही मानों तो वेद में उपनिषद में है ….तन्त्र में है ….मैंने उसे सब समझाया …प्रमाण दिया …और कहा ..ओमकार जो है वो निराकार ब्रह्मरूप है किन्तु ब्रह्म क्या करेगा बिना शक्ति के ….उस ब्रह्म की शक्ति तो राधा ही हैं । तब उसके समझ में आया किन्तु उसका सुन्दर “प्रेमनगर” उजड़ चुका था । चार वर्ष की साधना को कोई “दुर्जन” व्यक्ति उजाड़ कर जा चुका था ।
वो साधक अगर अपनी उपासना के अनुकूल शास्त्र का स्वाध्याय करता …मैं राधा नाम का जापक हूँ …श्रीराधा कौन हैं ? इनके विषय में शास्त्र में कुछ लिखा है कि नही ? वेद में कहाँ हैं राधा ? उपनिषद में राधोपनिषद् है …पुराण क्या कहते हैं ….इस पर थोड़ा स्वाध्याय करता तो ये नही होता ..किसी से भी प्रभावित होकर अपनी साधना को छोड़ना ये तो अपने नगर को लुटते हुए देखना है । वैसे तुम्हारे इन वेद , शास्त्र , पुराण के स्वाध्याय से , तुम्हारे इष्ट -आराध्य प्रसन्न नही होंगे …इनसे उनको कोई लेना देना नही है , ये तुम्हें केवल अपने “प्रेमनगर” की सुरक्षा के लिए करना है ।
एक रसिक सन्त से मैं मिला था बरसाने में ….मैं दो वर्ष पूर्व बरसाने में पन्द्रह दिन रहा था ….अच्छे रसिक थे …सखी भाव में ही रहते थे ….किन्तु यज्ञोंपवीत धारण करते ..लघुशंका आदि जायें तो जनेऊ कान में चढ़ाकर जाते थे …सूर्य को अर्घ्य भी देते थे ….मैंने उन्हें सन्ध्यावन्दन करते भी देखा , किन्तु एकांत में महावाणी जी का पाठ करते तो सिर में चुनरी रखकर पाठ करते थे …..
एक दिन मैंने हंसते हुए उनसे पूछा ….सखियाँ क्या जनेऊ भी लगाती हैं ?
तब उन्होंने मुझे उत्तर दिया था ….ये “सखी” तो भाव है ना ? किन्तु ये देह तो पुरुष है …इसलिये मैं इस की भी मर्यादा रखता हूँ ….फिर कुछ सोचकर बोले ….ये जनेऊ , सूर्य को अर्घ्य आदि से मेरी लाड़ली किशोरी को कोई मतलब नही है ….किन्तु शास्त्र की मर्यादा से मेरे “प्रेम” की ही रक्षा होती है । कोई मुझ से उलझे , तर्क करे , शास्त्र का प्रणाम देकर मुझे भ्रमित करे उन लोगों के लिए ये जनेऊ है ….ये मेरा नाटक है । ये कहते हुए वो खूब हंसे थे ।
“अभ्यस्त शास्त्र” नाम का सेनापति जो इस प्रेमनगर की सुरक्षा में है ।
“ये नगर के भीतर नही आता है” ।
नहीं, नही …इन शास्त्रों को दिमाग़ तक रखो …दिल में मत उतारो ….हे रसिकों ! दिल में तो अपने प्यारे प्रीतम का ही निवास रहने दो ….वहाँ इन शास्त्रों के कर्कश तर्क वितर्क को मत ले जाओ …वहाँ तो लाढ करो …वहाँ तो अपने प्रीतम को दुलार करो …शास्त्र क्या कहते हैं क्या नहीं ….ये बात बाहर ही रहने दो …बाहरी लोगों को सुनाने के लिए जानकारी भर रखो ….भीतर तो बस तुम और तुम्हारा साजन । क्या सुहाग की सेज पर तुम शास्त्रों के अनुसार चलोगे ?
वहाँ तो सिर्फ़ –
सलोना सा सजन है , और मैं हूँ ।
जिया में इक अगन है और मैं हूँ ।।
अब शेष कल –
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