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November 22, 2024 6:05 pm

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महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (015) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (015) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (015)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

रास के संकल्प में गोपी-प्रेम की हेतुता

रात्रीर्वीक्ष्य

अब आओ, भगवान की लीला में प्रवेश करें। भगवान का कैवल्य और भगवान की लीला। जिसका कैवल्य, उसी की लीला। लीला न हो तो कैवल्य की सिद्धि बिलकुल नहीं हो सकती। लीला का निषेध करने पर तब कैवल्य की सिद्धि होती है; परंतु जो लोग लीला नहीं मानेंगे कैवल्य उनके अनुभव का विषय ही नहीं होगा। यह वेदान्त की एक बात आप देखो- पहले हम यह बमगोले की तरह डालते हैं- यदि लीला का आरोप करेक उसका अपवाद किया जायेगा तब कैवल्य की सिद्धि होगी और यदि लीला का आरोप किया ही नहीं जाएगा तो किसका अपवाद करके कैवल्य को सिद्धं करेंग? इसलिए वेदान्त में प्रपंच की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का जितना उपयोग है ब्रह्म की सिद्धि के लिए, लीला का भी उतना ही प्रयोग है। अब कहो यहाँ वेदान्त ही बघारने लग गये; तो यह इसलिए कहा कि जो बुद्धिमान पुरुष हैं वे ‘लोकवत् तु लीला कैवल्यं’ इस वेदान्त-दर्शन के सूत्र को समझें।

श्रीशुक उवाच

भगवानपि ता रात्री शरदोत्फुल्लमल्लिका: ।
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रित: ।।[1]

एक चीज ऐसे आ गयी भगवान के सामने कि देखकर उनको अपना अकेलापन खेलना लगा। ‘भगवानपि ता रात्रीः वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे’- भगवान हैं अपने आनन्द में परिपूर्ण ‘स्वानन्दरससंतृप्त, आह्लादिनीसमासंश्लिष्ट, सवयं आल्हादस्वरूप, परंतु एक चीज ऐसी आ गयी भगवान के सामने। जादू तो वह जो सिरपर चढ़कर बोले। सौन्दर्य तो वह जो भगवान को भी अपनी ओर खींच ले, माधुर्य तो वह जो भगवान को भी अपनी ओर खींच ले।’ ‘भगवानपि ता रात्रीर्वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे’- ऐसी रात ऐसी रात ऐसी रातें आयीं- ‘रात्रीः’- जिनको देखकर भगवाने के मन में विहार का संकल्प उठा कि अगर ऐसी रात में भी विहार न करेंगे तो, अगर ऐसी रात में भी बाँसुरी न बजेगी, अगर ऐसी रात में भी नृत्य नहीं किया, अगर ऐसी रात्रि में भी गोपियों के साथ क्रीड़ा नहीं की तो हमारा भगवान बनना व्यर्थ गया।*

‘कैशोरं सफलीकरोति’ अपने भगवान-पने को सफल बनाया। यह वृन्दावन का रास और यह वृन्दावन की भूमि और ये वृन्दावन की भूमि और ये वृन्दावन निकुञ्ज और यह वृन्दावन जिसको देखकर भगवान के मन में भी विहरने की इच्छा हो गयी।

‘भगवानपि’- भगवान का अर्थ है जो सब प्रकार से पूर्ण हो। उनको अपने में न्यूनता की अनुभूति नहीं है, कुछ अभाव नहीं है, कुछ हीनता नहीं है कुछ दीनता नहीं है, कुछ कमी नहीं है, कुछ चाह नहीं है। पर कोई ऐसी चीज आई सामने कि जिसने भगवान के हृदय में चाह उत्पन्न कर दी। ऐसी क्या चीज है भाई। तो बोलते हैं- ‘ता रात्रीः वीक्ष्य।’ देखो- इसका विभाग कर लो- ‘ताः वीक्ष्य, रात्रीः वीक्ष्य, शरदोत्फुल्लमल्लिकाः वीक्ष्य, और ‘ताः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः रात्रीः वीक्ष्यः।’ अलग-अलग और एक में भी।’

तो पहले ‘ताः वीक्ष्य’ ले लो- ‘तन्वन्ति भगवति प्रेम इति ताः- तनु विस्तारे’ से। जो अपने प्रेम को भगवान के साथ जोड़ती हैं; वे हैं ताः- गोपियाँ क्योंकि गोपियाँ भगवान के साथ प्रेम जोड़ती हैं। प्रेम के दो पहलू हैं। जैसे कि एक सिक्के के दो पहलू हैं उसी प्रकार प्रेम के दो पहलू हैं- एक ओर त्याग और एक ओर ग्रहण। त्याग-अपने प्रियतम से अन्य का; और ग्रहण- अपने प्रियतम् का। गोपियों में यह विशेषता है कि उनमें श्रीकृष्ण से अन्य का त्याग है और श्रीकृष्ण के प्रति दृढ़निष्ठा, दृढ़ आग्रह और दृढ़ ग्रहण है। जो भक्ति करेगा उसको वैराग्य करना नहीं पड़ता; क्योंकि प्रेमी सहज विरक्त होता है, भक्त सहज विरक्त होता है, क्योंकि उसके मन का भगवान के सिवाय दूसरे किसी के साथ लगाव ही नहीं है। आपने श्रीमद्भागवत में कभी सुना होगा। एक प्रश्न है- ब्रह्माजी ने श्रीकृष्ण भगवान से प्रश्न किया- हे प्रभु! आप इन व्रजवासियों को क्या देंगे, क्या फल देंगे?

येषां घोषनिवासिनामुत भवान् किं देवराता।

रास के प्रसंग में रात्रि है, वहाँ रात है, ‘किं देवरात इति न:’ हे देव। तुम इन ब्रजवासियों को क्या दोगे? क्या दान करोगे? बोले कि ब्रह्माजी। हम जरा अभी बाँसुरी बजाने में सगे हैं, विचार करके तुम्हीं बता दो, जो इनको देना हो सो हम इनको देगें। अरे, हमारे तो एक सिर हैं और तुम्हारे तो चार सिर हैं। तुम्हारे दिमाग भी बहुत हैं, बुड्ढे भी हो, अनुभवी हो, तुम्हीं बता दो। बोले- चेतो विश्वफलात्मफलं त्वदपरं कुत्राप्ययन मुह्यति।*

ब्रह्मास्तुति में है यह श्लोक। बोले- सब साधनों के फल तुम हो सो तुम जब इनको मिल चुके तो तुम्हारे सिवाय और दूसरा कौन सा फल है? ब्रह्माजी कहते हैं ढूँढ़ते-ढूँढ़ते हमारा दिमाग खराब हो जाता है, मोह होता है कि इनको आप क्या दान करोगे? भगवान ने कहा- जब हमसे बड़ी कोई चीज नहीं है तो हम अपने आपका दान करते हैं। ब्रह्माजी ने कहा- इससे तो काम नहीं बनेगा, इससे तो आप उऋण नहीं हो सकते। क्यों? सत्त्वेषादिव पूतनापि सकुला त्वामेव देवापिता ।

अरे! पूतना तो ‘सद्वेषादिव’ भलेमानुष भी नहीं थीं; भलेमानुष का वेश बनाकर आयी थी। उसके हृदय में द्वेष था, स्तन में जहर था और मारने की नीयत थी; उसको भी तुम मिल गये। तो अगर व्रजवासियों को भी तुम ही मिले, तो एक वो ढोंगी, बाकी पूतना राक्षसी, लोक बालघ्नी, उसको भी तुम मिले और इन व्रजवासियों को भी तुम ही मिले तो इसमें क्या प्रेम का ऋण चुका?

श्रीकृष्ण ने कहा- अच्छा, अगर तुम्हारे मत में मैं सबसे श्रेष्ठ फल हूँ और अगर मेरे मिलने से तुमको संतोष नहीं हुआ तो हम गोपियों के जितने रिश्तेदार-नातेदार होंगे- उनके नाना-नानी, दादा-दादी और उनके खानदान में पैदा होने वाले सब उनको भी मैं मिल जाऊँगा। और जो लोग उनका नाम स्मरण करेंगे उनको भी हम मिलेंगे। ब्रह्माजी बोले- पूतना को भी तुम ही मिल गये- ‘सकुला त्वामेव देवापिता’- अरे, बकासुर को तुम मिले, अघासुर को तुम मिले, पूतना का सारा खानदान तुम्हारे अन्दर समा गया, सबको तुम मिल गये। मेरे विचार से तो हे कृष्ण! तुम व्रजवासियों से उऋण नहीं हो सकते। अब कृष्ण ने पूछा कि ब्रह्माजी! तुमको व्रजवासियों में क्या विशेषता देखनें आती है? देखो अब व्रजवासियों की विशेषता बताते हैं ब्रह्माजी- ‘यद्धर्मार्थसुहृद्प्रियात्मतनयप्राणाशयात्वत्कृते’ इन्होंने अपना घर, अपना धन, अपने सगे संबंधी, अपने प्यारे, अपना शरीर, अपने बेटे, अपने प्राण, अपना दिल, अपना आपा, सब कुछ आपको दे दिया! अब अगर तुम भी उसके बदले में अपना सब कुछ देते हो तो बराबरी ही तो हुई न? उऋण कहाँ हुए? व्रजवासियों से उऋण आप नहीं हो सकते। ब्रह्माजी ने बताया कि-

यज्जीवितं तु निखिलं भगवान मुकुन्दस्वद्यापि यत्पादरज श्रुतिमृग्यमेव।

ब्रजवासियों की विशेषता है इनका त्याग जो प्रेम का दूसरा पहलू है। इनका कितना त्याग कृष्ण के लिए और कृष्ण का कैसा ग्रहण! उनका सारा जीवन कृष्ण के लिए- सोती हैं कृष्ण के लिए, जगती हैं कृष्ण के लिए, कपड़ा पहनती हैं कृष्ण के लिए, बोलती हैं कृष्ण के लिए, हँसती हैं कृष्ण के लिए, रोती हैं कृष्ण के लिए। प्रेम में रोना भी होता है पर इसके लिए नहीं रोत कि हमको साड़ी नहीं मिली। अपने महत्त्व के लिए रोना नहीं होता है। अपने को सुख पहुँचाने के लिए रोना या हँसना नहीं होता है।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

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