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November 22, 2024 5:53 pm

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महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (016) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (016) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (016)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

रास के संकल्प में गोपी-प्रेम की हेतुता

प्रेमी का अपना सम्पूर्ण जीवन अपने प्रियतम में समर्पित हो गया, लीन हो गया। अगर परमात्मा का ज्ञान हो और कोई परमात्मा में लीन हो जाय तब न हो तो कोई परिश्रम है, न आश्चर्य है। लेकिन ज्ञान न हो और कोई अपने आपको परमात्मा में लीन कर दें, उसके लिए भगवान कहते हैं कि हमको वह अधिक आदरणीय है। उसकी महिमा तो भगवान भी नहीं बखान कर सकते। भगवान की प्रणाली यही है। गीता के अंत में देखना। भगवान ने बताया है उससे बढ़कर प्यारा दूसरा कोई है ही नहीं-

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम: ।
भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि ।।

तो- ‘यज्जीवितं तु निखिलं भगवान मुकुन्दः’ – गोपी का दिल ही कृष्ण से नहीं भरा है, गोपी का दिमाग ही कृष्ण से नहीं भरा है, गोपी का रोम-रोम कृष्ण से भरा है। ऐसा ज्ञान हुआ तो क्या हुआ कि आत्मा-आत्मा एक और बोले- कि यह हड्डी, यह मांस, यह चाम, यह विष्ठा और यह क्या-क्या- अरे ये तो सब अनात्मा हैं, ये तो दृश्य हैं, ये तो जड़ हैं, इनको फेंको। आत्मा-आत्मा एक। गोपियों ने कहा- बाबा! हमारा जो कुछ है सो तुम्हारा, यह हमारी हड्डी भी तुम्हारी, यह मांस भी तुम्हारा, यह खून भी तुम्हारा, ये हमारे गाल भी तुम्हारे, ये हमारी छाती भी तुम्हारी, हमारा मुँह भी तुम्हारा, हमारे हाथ भी तुम्हारे, हमारे पाँव भी तुम्हारे, कुछ बचाकर नहीं रखा। अलगाव करके नहीं दिया कि इतना हमारा, इतना तुम्हारा, इतना संसार का। सब कुछ तुम्हारा ही। ‘यज्जीवितं तु निखिलं भगवान मुकुन्दः’- व्रजवासी का संपूर्ण जीवन भगवान मुकुन्द है।
देखो- इसके बाद जो ब्रह्माजी ने बात कही है- यह भागवत में से आपको बता रहा हूँ कि गोपियों का कितना प्रेम है कि श्रीकृष्ण उनकी याद आते ही, उनके साथ रास-विलास करने को उत्सुक हो जाते हैं। गोपियों का कितना प्रेम है यह– बताने के लिए कहता हूँ-

‘अद्यापि यत्पादरजः श्रुतिमृग्यमेव’ श्रुति बड़ी कि गोपी बड़ी? समझो, किसी के घर में दो पत्नी हों और उनमें से एक तो कान भरती हो और दूसरी मुँह मीठा करती हो, उन दोनों में कौन श्रेष्ठ है- कान भरने वाली कि मुँह मीठा करने वाली? कहा- मुँह मीठा करने वाली बड़ी है।*

तो ये जो श्रुति हैं ये तो भगवान का कान भरती हैं- श्रुति हैं। और गोपी जो है वह तो मुँह मीठा करती है। वह तो- लो माखन, लो मिश्री। अरे भाई लो सर्वस्व! गोपी शब्द का अर्थ यही होता है। इसमें एक बात मैंने जान-बूझकर कहने से छोड़ दी है; जो रसिक हैं वे तो समझ जाएंगे- कान भरना और मुँह मीठा करना- और जो अरसिक हैं वे नहीं समझेंगे।

‘आद्यापि यत्पदरजः श्रुतिमृग्यमेव’- श्रुति और गोपी की तुलना करते हैं। क्या तुलना करते हैं कि श्रुति कहती हैं-

ना वा अरे सर्वस्य कामाय सर्व प्रियं भवति ।
आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति ।।

सबके लिए सब प्यारे नहीं होते, अपने सब प्यारे होते हैं- पति पत्नी के लिए नहीं अपने लिए; पत्नी पति के लिए नहीं अपने लिए; बाप बेटे के लिए नहीं अपने लिए; धनी धन के लिए नहीं अपने लिए। इसलिए श्रुति कहती है कि आत्मनिष्ठ हो जाओ; क्योंकि सब आत्मा के लिए हैं। और गोपी क्या कहती हैं? पति अपने लिए नहीं कृष्ण के लिए, पत्नी अपने लिए नहीं कृष्ण के लिए; बेटा अपने लिए नहीं कृष्ण के लिए; धन अपने लिए नहीं कृष्ण के लिए; मैं अपने लिए नहीं कृष्ण के लिए। श्रुति जिसको अपने लिए सब बताती हैं गोपी उसको कृष्ण के लिए बताती हैं। आपके ध्यान में यह बात आयी न! श्रुति कहती हैं कि संसार का सब कुछ अपने लिए और गोपी कहती हैं कि अपना आपा कृष्ण के लिए है। तो श्रुति ने आकर कहा- गोपी हमें बताओ तो वह कौन है जिसके लिए तुम्हारा अपना आपा है?

गोपीन ने कहा- बाबा, तुम माफ करो, अभी हम तुमसे बातचीत करना नहीं पसन्द करती, हम अपने कृष्ण से बात कर रही हैं। हे भगवान! अब गोपी चली कृष्ण की ओर और श्रुति चली गोपी के पीछे-पीछे। तो श्रुति जो है वह गोपी के पदारविनद के पराग में, गोपी के चरणों की रज में लोट-पोट होती है, ढूँढ़ती है कहीं ऐसा प्रेम हमको मिल जाए जैसा गोपियों के हृदय में भगवान से प्रेम है।

यह बात किसलिए सुनायी कि- ‘ता वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे’ आखिर उनके अंदर की विशेषता होगी भाई! जिसको देखकर भगवान उनके साथ रास विलास करना चाहते हैं।*

उद्धवजी न गोपियों की विशेषता थोड़ी पकड़ी-

आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम् ।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम् ।।

उद्धवजी ने कहा कि मेरा अगला जन्म होवे। संसार में भाव की बड़ी महिमा है। थोड़ी देर पहले अपने यहाँ स्वामी रामसुखदासजी आये थे। उनके साथ ‘सोऽहं मुनि’ भी थे। मुनिजी तो बड़ा प्रश्नोत्तर करते हैं। वह चाहते थ कि हम और स्वामी रामसुखदासजी इस बात पर आपस में चर्चा करें- कि निष्काम कर्म से मोक्ष होता है या केवल ज्ञान से ही मोक्ष होता है, निष्काम कर्म से नहीं। न तो रामसुख दासजी की ही इसमें रुचि है कि हम आपस में किसी मतभेद की चर्चा करें और न तो हमारी रुचि भी प्रेम से ही करते हैं।

मुनिजी ने कहा- कि कर्म से मोक्ष होता है, यह सिद्धांत कैसा? तो मैंने कहा- कि जब तुम कर्म से बन्धन मानते हो, कर्म में यह शक्ति मानते हो कि बाँध सकता है, तो यह भी क्यों नहीं मानते कि कर्म में मोक्ष की शक्ति है? यदि कर्म में बाँधने की शक्ति है तो कर्म में सोचने की भी शक्ति होगी। अविद्या के प्रभाव से कर्म बन्धक होगा और विद्या के प्राधान्य के कर्म मोचक होगा। पर वेदान्ती लोग तो कर्म में न बन्धन की शक्ति मानते हैं और न कर्म में मोक्ष की शक्ति मानते हैं; वे तो अज्ञान से बन्धन मानते हैं और ज्ञान से मुक्ति मानते हैं। लेकिन जो कर्म से बंधन मानता है उसको विवश होकर स्वीकार करना पड़ेगा कि अमुक प्रकार के कर्म मोक्ष के साधन बनेंगे। स्वामी रामसुखदास जी तो बड़े प्रसन्न हुए।

तो आपको यह बात सुनाते हैं कि ये जो बन्धन है संसार के कोई कहता है कि बारम्बार जन्म लेना बड़ा दुःख है, इससे मुक्ति चाहिए और भक्त कहता है कि तरह-तरह की पोशाक पहनकर भगवान के सामने आना बड़ा सुख है। यह मरना तो ऐसे ही है जैसे पुरानी पोशाक उतार देना और जन्मना ऐसे है जैसे नयी पोशाक पहन लेना। भक्त लोग कहते हैं कि हम नयी-नयी पोशाक पहनें और भगवान के सामने आवें. वे जन्म से छूटना नहीं चाहते। किसी ने कहा- कि भक्ति करोगे तो मोक्ष नहीं मिलेगा। बोले- हमने मोक्ष चाहा कब? मत मिले! हमको तो हमारे भगवान की (प्रसन्नता) चाहिए।*

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

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