Explore

Search

July 5, 2025 2:21 pm

लेटेस्ट न्यूज़
Advertisements

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (050): Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (050): Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (050)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का अभिसार

काम का नाम सुनकर घबड़ाना नहीं। काम बुरा नहीं है, उसका विषय बुरा और भला होता है। जैसे-अपने पति के प्रति या अपनी पत्नी के प्रति यदि कामवासना हो तो धर्म के विरुद्ध नहीं है; धर्म के विरुद्ध नहीं होने से वह पाप की वासना नहीं है। ऐसे ही भक्ति मार्ग में अपना पति परमात्मा है, परमेश्वर है। उस परमेश्वर के प्रति जो वासना होती है, वह संसार में फँसाने वाली नहीं है। और यह कहो कि हम तो बिलकुल निर्वासन होना चाहते हैं तो आपको बड़ा अभिमान होगा, आप बड़ा गौरव अनुभव करेंगे कि हमारे बराबर और कौन है? अरे, ये ईश्वर के पीछे लगे हए बहुत लोग तो वासना वाले हैं और हम हैं निष्काम निर्वासन।

अब हमसे आकर पूछो तो हम बतावें। यह निर्वासन होने की जो वासना है, आत्मकाम इसे बोलते हैं- तुम, अभी तो निर्वासन हो नहीं, निर्वासन होना चाहते हो; तो यह निर्वासन होने की कामना त्वंपदार्थ-विषयक कामना है। और ईश्वर की प्राप्ति की कामना तत्पदार्थ-विषयक कामना है। क्योंकि असल में त्वपदार्थ और तत्पदार्थ दो होते नहीं है इसलिए बिलकुल निर्वासन होने में भला क्या गौरव हुआ? कोई त्वं-पद के लक्ष्यार्थ का शोधन करना चाहता है, की तत्पद के लक्ष्यार्थ का शोधन करना चाहता है। निर्वासन होने की वासना भी वासना है और ईश्वर को पाने की वासना भी वासना है। अरो। मुक्ति की वासना से भी वासना है। भागवत् में जहाँ कामनाओं की गिनती करायी गयी है वहाँ बताया है-

अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः ।
तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् ।।

ज्ञान की कामना तो कामना नहीं, मोक्ष की कामना तो कामना नहीं और भगवत् प्राप्ति की कामना, कामना! अरे भाई। एकांगी विचार मत करो, उस पर दृष्टिपात करो। जहाँ सर्वनियन्ता, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, अन्तर्यामी, हमारी बुद्धि के और हमारे बीच में बैठकर अंतः प्रविष्टः शास्ता जनानां। भीतर बैठकर, जो सबका प्रशासन कर रहा है उसकी कामना भी कामना नहीं है।+

ये त्रिवक्र सच्चिदानन्द, त्रिवक्र माने विश्व, तैजस, प्राज्ञ, त्रिवक्र माने, तीन टेढ़ के बाँके विहारी महाराज जाग्रत में विहार करें, स्वप्न में विहार करें, सुषुप्ति में विहार करें, सोती हुई वृत्ति से विहार करें, सपना देखती हुई वृत्ति से विहार करें, जागती हुई वृत्ति से विहार करें- तुरीयं त्रिषु सन्ततं- संपूर्ण वृत्तियों से उलझा हुआ, उनमें अनुस्यूत, उनमें अनुगत, यहाँ बाँके विहारी इसके मिलने की जो आकांक्षा जागती है वही संसार से वैराग्य देती है। बिना वैराग्य के विद्यावृत्ति अविद्या के निवारण में समर्थ नहीं होती। वैराग्य शक्ति है ऐसा भागवत् में बीसों जगह वर्णन हैं।

ज्ञानं च विज्ञान वैराग्ययुक्तं – वैराग्यशक्तिमत् ।*

ज्ञान की शक्ति है वैराग्य। जिस ज्ञान में त्याग का सामर्थ्य नहीं है वह ज्ञान किस काम का और जिस प्रेम में त्याग का सामर्थ्य नही है वह प्रेम किस काम का? और जिस योगी में (समाधिनिष्ठ में) ब्रह्म विषय के त्याग का सामर्थ्य नही है वह योगी किस काम का। अरे, सत् से प्रेम करो तब भी त्याग करना पड़ेगा; चित् से प्रेम करो तब भी त्याग करना पड़ेगा; आनन्द से त्याग करो, तब भी त्याग करना पड़ेगा; त्याग किये बिना आज तक कोई गोपी हुआ? त्याग किये बिना कोई आजतक योगी हुआ है? त्याग किए बिना आज तक कोई ज्ञानी हुआ है? अपने बल से त्याग- यह साधान्तर में है, दूसरे साधनों में है।

नारायण, और ईश्वर के बल से त्याग, वैराग्य- यह भक्ति मार्ग में है। बाँसुरी बजा-बजा करके अपनी ओर सबको खींच लिया- व्रजस्त्रियः कृष्णगृहीतमानसाः। व्रजस्त्री कोई साधारण गोपी नहीं है। एक तो नित्यसिद्ध गोपी होती है, जो गोलोक में भगवान् के साथ रहती हैं और अवतार लेती हैं। एक साधन-सिद्धा गोपी होती हैं। साधन-सिद्धों में भी कृपा-सिद्ध होते हैं और साधनसिद्ध होते हैं; इनके भी बहुत भेद हैं। जो पूर्व जन्म में ऋषि थे वो गोपी हुए, जो पूर्व जन्म में श्रुतियाँ हैं वे गोपी हुईं, जिन्होंने अष्टादशाक्षर मंत्र का ‘क्ली कृष्णाय गोविन्दाय’ इन मंत्रों का जाप किया था वे गोपी हुईं गोपी तरह-तरह की हैं। कोई देवी हैं तो वे गोपी हुईं। कहीं नारद, शुक, अर्जुन आदि भी कभी-कभी अपने साधना के उत्कर्ष से गोपी- भाव को प्राप्त होते हैं।++

ये व्रजस्त्रियः कोई ऐसी वैसी नहीं। व्रजस्त्रियः कृष्णगृहीतमानसाः- जैसे कोई भूत किसी आदमी को पकड़ ले, जैसे कोई जादूगकर कठपुतलियों को अपनी तरफ खींच ले, ऐसे ये कृष्ण के द्वारा पकड़ी गयीं थी। आप लोगों ने कठपुतलियों का खेल देखा हो। उसमें सूत्रधार- मालुम नहीं पड़ता है कि सूत्र कहाँ है और कठपुत्लियों को खींच लेता है। उनको हँसा दे, उनको रुला दे, उनको बुला दे। ऐसे ही गोपियों के शरीर का ढाँचा रह गया था। श्रीकृष्ण ने उनके मन को खींच लिया था। गृहीत मानसाः- पकड़ लिया था। वंशी-ध्वनि का यह एक महाचोर मिला, उसको कान का रास्ता मिला, उसके द्वारा भीतर गया, वहाँ उनके मनरूपी धन को उसने चुराया और चुराकर वहाँ से भागा तो जैसे चोर भागने लगे तो घर के लोग जो जैसे, वैसे ही चोर के पीछे दौड़ पड़ते हैं, किसी से सलाह करके नहीं दौड़ते हैं, जो जहाँ हो वहाँ से ही चोर के पीछ दौड़ता है कि माल छीन लो इससे; ऐसे गोपियाँ निकल पड़ीं जैसे कोई अपना चुराया हुआ माल छीनने के लिए जा रहा हो।

श्रीकृष्ण ने किसी कंगन नहीं उतारा, कड़ा नहीं उतारा, किसी की करधनी नहीं उतारी, किसी का नूपुर या किसी का कुण्डल, किसी का हार नहीं उतारा- ये तो मामूली कीमत की चीजें हैं- जो सबसे कीमती वह जो दिल के संदूर में रहता है, कलेजे में बन्द रहता है, उसको शब्द से चुरा लिया, हाथ नहीं लगाया, क्या जादूगर है। कृष्मगृहीतमानसाः। मानस शब्द का एक अर्थ है, मन एवं मानस; स्वार्थ में ही प्रत्यय हुआ तो मन का अर्थ मानस हो गया। और एक इसका अर्थ है- मनः संबंधीनि मानसानि- मन से संबंध रखने वाली वृत्ति। दोनों अर्थों में फर्क हैं। गोपियों के मन में बड़े-बड़े माल रखे हुए थे और उन्हीं के बल पर कृष्ण से अलग टिकी हुई थीं। धृति थी, स्मृति थी, विवेक था, लज्जा थी, भय था, बुद्धि थी, ये सब गोपियों के दिल में रहता था। व्रजस्त्रितीयः कृष्णगृहीतमानसाः। आजग्मुरयोन्यम-लक्षितोद्यमाः स यत्र कान्तो जवलोलकुण्डलाः।

श्रीकृष्ण ने क्या किया कि बाँसुरी बजायी। जब आदमी आनन्द में आ जाता है तो क्या होता है? अरे! हमने देखा है- बहुत बड़े आदमी हों, जो बोलने में या शिर झुकाने में तकलीफ मानते हैं, उनको संगीत सुनने को मिल जाए तो शिर हिलाने लगते हैं।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

admin
Author: admin

Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877

Leave a Comment

Advertisement
Advertisements
लाइव क्रिकेट स्कोर
कोरोना अपडेट
पंचांग
Advertisements