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July 5, 2025 5:19 pm

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महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (051) Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (051) Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (051)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का अभिसार

एक बार कलकत्ता में एक संकीर्त्तन का जुलूस निकलने वाला था। बिलकुल सत्य कथा है- कोई ऐसी परिस्थिति थी कि सरकार ने धारा एक सौ चौवालीस लगा दिया, बस यह जुलूस नहीं निकल सकता था। संकीर्त्तन वालों ने कहा- हम तो निकालेंगे- भगवान् का जुलूस नहीं बदल सकता। आगे महाराज सैकड़ों मण्डली इकट्ठी हुईं। दस हजार आदमी इकट्ठे हो गये और वह ढोलक बजी, वह मृदंग और मजीरा। पाँव में नूपुर बाँध-बाँध करके वे लोग निकले सड़क पर- बड़े बाजार में, वहाँ संकीर्तन होने लगा तो पुलिस को यह ख्याल छूट गया कि हम पुलिस के अफसर हैं, और हमको कानून के अनुसार काम करवाना चाहिए। वे स्वयं नाचने लग गये। उनके अपने पुलिसपने की जो स्मृति थी वह संकीर्त्तन ने हर ली, उनके मन में रोकने का जो धैर्य था- वह संकीर्त्तन ने हर लिया, उनके अंदर जो विवेक था कि कानून का पालन करवाना है उनसे यह विवेक खो गया, उनको जो शर्म थी कि लोगों के सामने नाचें कैसे सो नष्ट हो गयी। तो धृति, स्मृति, विवेक, लज्जा, बुद्धि ये सब हर लिया। किसने? कि बाँस की बँसुरियाने- बाँसुरी बजाय गौ कि विष बगराय गौ- यह तो बाँसुरी बजा गयी, चारों ओर जहर फैल गया। न किसी को धन का ख्याल, न किसी को धर्म का ख्याल, न किसी को भोग का ख्याल- कृष्ण गृहीतमानसाः कृष्णेन- गृहीतानि मानसानि, धृति, स्मृति, विवेक, लज्जादीनि, याषां ताः हरण कर लिया।

अब। क्या हुआ कि आजग्मुरन्योन्यमलक्षितोद्यमाः। एक बार स्वामी रामतीर्थजी मथुरा में आए तो शहर में उनके प्रवचन की व्यवस्था की गयी। किसी ने पूछा कि कृष्ण की बाँसुरी में ऐसा क्या सामर्थ्य था कि रात को गोपियाँ अपना घर द्वार छोड़कर बाँसुरी सुनने के लिए चली गयीं? स्वामी रामतीर्थजी चुप हो गये। हमारों स्त्री-पुरुष उनका व्याख्यान सुनने के लिए आए थे। आपने सुना होगा कि जब वे मथुरा में उतरे तो ट्रेन से उतरकर उन्होंने पाँव धरती पर नहीं रखा था; पहले अपना शिर, धरती पर रखा, कि यह व्रज की भूमि है। वही स्वामी रामतीर्थ थे जिनके वेदान्त के व्याख्यान मिलते हैं। आपको मालूम होगा कि वेदान्ती होने के पहले ये लाहौर में रावी के तट पर कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण चिल्लाकर रोते थे। बड़ा भारी उपासना का संस्कार था, उनके चित्त में। और सच पूछो तो वेदान्ती हो जाने के बाद भी उनके भीतर जो तन्मयता का संस्कार था, भले पहले वह तत्पदार्थ प्रधान था, बाद में त्वंपदार्थ प्रधान हो गया, लेकिन तन्मयता का संस्कार उनमें जीवन भर बना रहा। उनके व्याख्यान में विवेक और प्रणाम शास्त्र की उतनी बात देखने में नहीं आती जितनी तन्मयता की। रात के समय जब लोगों ने वंशीध्वनि के सामर्थ्य के बारे में पूछा तो पहले वह चुप हो गये और फिर बोले- अरे। हम यहाँ जवाब नहीं देंगे।*

चलो यमुना के किनारे, अब हमारा मन शहर में व्याख्यान देने का नहीं है। चाँदनी रात महाराज। ग्यारह बज रहे थे, हजारों श्रोताओं को लेकर शहर से निकलकर वे यमुना के किनारे बालू पर बैठ गये। हजारों आदमी उनके साथ। लोगों ने पूछा- बताओ महाराज। मुरली में क्या सामर्थ्य था? बोले की हजारों वर्ष। बाद भी जिसकी मुरली का सामर्थ्य सुनने के लिए तुमलोग हमारे पीछे स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध घर-द्वार छोंड़ करके रात को ग्यारह बजे इस बालुकामय पुलिन में आ गये, उसमें कितना सामर्थ्य रहा होगा, यह सोचो तो सही। कृष्णगृहीतमानसाः– तुम्हारे मन को संसार में जो पकड़कर रखा है, इसको छुड़ाने के ले कोई चाहिए मीठी से मीठी चीज। तुमको सचमुच सत्य में आनन्द नहीं आता है। व्यापारी को सच्चाई में मजा कहाँ आता है? अच्छे पढ़े-लिखे लोगों को जानकारी में मजा कहाँ आता है? मजा आता तो ये कलेजा के पढ़ने वाले लोग ऊधम क्यों मचाते? उच्छृंखल, अनुशासनहीन क्यों होते?

सबको चाहिए आनन्द, सबको चाहिए मजा। नारायण। पंतजलि ने, कपिल ने, व्यास ने, शुदेव ने सबने सत्य कहा कि ज्ञान लो, नतीजा कि इतने लोग उनके पीछे-पीछे नहीं घूमे। परंतु कृष्ण ने कहा मजा लो। ये आनन्द बाँटने के लिए आये। कृष्ण आनन्द की प्रधानता से सच्चित् को बाँटते हैं। कपिल ज्ञान की प्रधानता से सत् और आनन्द को बाँटते हैं। पतंजलि सत्ता की प्रधानता से ज्ञान और आनन्द को बाँटते हैं, सच्चिदानन्द तो वही है, कोई गौण प्रधान कर देते हैं। श्रीकृष्ण जो हैं वे आनन्द देते हैं। अरे, छोड़ो असम्प्रज्ञात की बात, निर्विकल्पता की बात, निर्वीज की बात; छोड़ो अस्मिता की बात, अस्मितानुगत की बात, छोड़ो आनन्दानुगत की बात। यह लो रस, यह लो रास!

कृष्णगृहीतमानसाः, आजग्मुरन्योन्यमहालक्षितोद्यमाः- जो जहाँ थी महाराज, जैसी थी वैसी उठ धाय। देखो, साधना के समय तो गोपियाँ मिलजुलकर साधना करती थीं- ‘कृष्णमेव जगुर्यान्त्यः’। सबेरे उठी और बाँह-में-बाँह डाली, गलबहियाँ डालकर और कन्धे पर अपनी धोती रखकर और कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण कहती हुई, माने गाँवभर को बताकर कि कृष्ण-सा पति पाने के लिए ये गौरी-व्रत कर रही हैं, कात्यायनी व्रत कर रही हैं, यमुनाजी चली जातीं। वरदान भी प्राप्त किया सबने मिल-जुलकर, लेकिन जब बांसुरी बजी और मिलने का समय आया तो किसी ने किसी को नहीं पूछा न बताया। जैसे बहुत से मुमुक्षु सब एक साथ साधना करते थे।+

जिज्ञासु सब एक जिज्ञासा करते थे, लेकिन जब संन्यास लेने का मौका आया तो अकेले-अकेले भगे और आपको मालूम है कि बिना नंगा हुए संन्यास भी नहीं होता है। बिना निवारण हुए द्रष्टा का स्वरूप में अवस्थान नहीं होता, बिना निवारण हुए स्वर्ग सुख का आस्वादन नहीं होता, बिना निवारण हुए भगवान् की लीला में प्रवेश नहीं होता, बिना निवारण हुए ब्रह्मज्ञान नहीं होता, बिना निवारण हुए रासलीला नहीं मिलती, परदा तो हटाना ही पड़ेगा। आजग्मुः अन्योन्यमलक्षितोद्यमाः- हरेक गोपी हरेक गोपी से छिपकर जाती है। अपने प्रियतम के साथ जो संबंध है वह सबका व्यक्तिगत है। अनादिकाल से जो संसार में प्रवाह है, इसमें सबका मन अलग-अलग है, इसकी योग्यता अलग-अलग होता है। जो अयोध्या में जाय सो सब राममंत्र का जप करें, जो वृन्दावन जाय, सो सब कृष्णमंत्र का जप करें, जो काशी जाय सो सब शिव मंत्र का जप करें, यह शास्त्रीय पद्धति नहीं है।
शास्त्रीय पद्धति यह है कि गुरु एक व्यक्ति को देखे कि इसने पूर्वजन्मों में किस मंत्र का जाप किया है, किस इष्ट का ध्यान किया है और वह कहाँ तक पहुँचा हुआ है, फिर वह गुरु उसके आगे उसका संबंध जोड़ दे, तब साधक आगे बढ़ता है। सोलहो धान बाईस पसेरी नहीं होता। सबके समझ में वेदान्त नहीं आता। हजार कोशिश करो सबके हृदय में रस का उल्लास नहीं होता। सबको समाधि नहीं लगती, सब धर्मात्मा नहीं होते क्योंकि सबका चित्त असल में अलग-अलग होता है। यशोदा मैया को कोई समझावे कि भक्ति में सबसे अच्छा श्रृंगार रस का मधुर रस का भाव है, तो मैया मारेगी और गोपियों से कोई कहे कि वात्सल्य रस बड़ा श्रेष्ठ है तो गोपी कहेगी चल हट हमारे सामने बात नहीं करना। सबकी स्थिति अलग-अलग होती है, सबके चित्त की गति अलग-अलग होती है। अलगाव में तो ये जीव बहता आया ही है।

जिन लोगों ने आज तक सबको एक में मिलाने की कोशिश की है, किसी को सफलता हुई नहीं है। समन्वय की बात करते हैं लोग परंतु क्या समन्वय होगा? गौतम और कणाद् आपस में नहीं मिले, गौतम और कपिल आपस में नहीं मिले, कपिल पतंजलि आपस में नहीं मिले, पतंजलि और जैमिनि, फिर जैमिनि और व्यास आपस में नहीं मिले। और हमलोग क्या कहते हैं कि सब आपस में मिले हुए हैं। ये नीचे हैं, ये ऊँचे हैं। उनसे पूछो कि तुम नीचे हो? वह भला मानेंगे? तो समन्वय तो दूसरे लोग लादते हैं।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

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