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July 5, 2025 5:30 pm

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महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (052): Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (052): Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (052)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का अभिसार

भाई! थियोसोफिकल सोसाइटी ने कहा कि हम हिन्दू धर्म, मुसलमान धर्म, ईसाई धर्म सबका समन्वय करेंगे, सबको एक बतायेंगे, तो एक धर्म और अलग बन गया। अगर सौ धर्म पहले से थे तो एक सौ एक धर्म बन गये। अकबर ने कहा- हम दीन-इलाही मत बनायेंगे- हिंदू, मुसलमान सब उसमें आवेंगे। ये इलाही पन्थ ही अलग हो गया। ऐसे नहीं होता है, सबकी योग्यता अलग-अलग होती है और अपनी योग्यता के अनुसार सब ईश्वर की ओर चलते हैं; ये ढोंढी पीटकर गाने का मार्ग नहीं है, यह एकान्त में मिलने का रास्ता है। मुसाफिर खाने में ब्याह नहीं हुआ करता। यह तो एकान्त कमरे में ईश्वर, परमेश्वर से, अपने परमात्मा से मिलते हैं। गोपियों ने एक दूसरो को बताया नहीं। एक निकली तो सास मिल गयी। रास में कुमारियाँ भी आयी हैं और विवाहिता भी आयी हैं, भला। श्रीकृष्ण ने वरदान तो दिया था कुमारियों को पर जब बाँसुरी बजायी तो कुमारी, विवाहिता, ऊढ़ा, अनूढ़ा, युवती, वृद्धा, मुग्धा, अज्ञात यौवना- इनका भेद ही नहीं रहा। कृष्ण ने कहा सब आओ। हाँ, तो एक की मिल गयी सास, बोली- बोली- कहाँ जाती है री, रात आने वाली है। बोली- मैं पानी भरने यमुना किनारे गयी थी, सो अपना घट ही भूल आयी, अभी लेकर आती हूँ। एकने कहा- माँ। नहीं देखती कैसी चाँदनी खिली हुई है, जरा एक बार यमुनाजी की शोभा तो देखकर आऊँ।

यामि यामुनतटीनिकटस्थं श्यामधाम निजधाम विहाय- मैं तो वह काला-काला जो कुञ्ज है, वहाँ ऐसी बढ़िया हरियाली है कि दिन में काला लगता है, जरा इस चाँदनी रात में यमुनाजी के तट पर पुलिन पर खड़ी होकर चाँदनी का रस लेकर अभी आती हूँ। कोई किसी को देखे नहीं, कोई किसी को दिखावे नहीं, सब सबसे छिपावें और सब उधर ही जायँ। और चलीं भी तेजी से।

यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत् ब्रह्मचर्याद् वा गृहाद् वा वनाद्वा।

हम तो बंबई में कथावार्ता कर रहे हैं तो बहुत सम्हालकर बोलना पड़ता है। श्रुति कहती है कि बड़े सद्भाग्य से, ईश्वर की कृपा से संसार छोड़ने का और ईश्वर से मिलने का संकल्प हृदय में आता है क्योंकि हमारी वासना नहीं है, ईश्वर का संदेश है क्योंकि हमारी वासना तो संसार में रमने की है। बोले- जिस समय ईश्वर यह संदेश दे कि छोड़ो संसार और जोड़ो अपने को हमसे, उस समय फिर उसकी उपेक्षा नहीं करना। वेद में उपनिषद् कहती हैं- यहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्। जब वैराग्य तभी प्रव्रज्या।+

तीव्रसंवेगानां आसन्नः- जिसके जीवन में तीव्र संवेग होता है उसको परमात्मा की प्राप्ति होती है। लेकिन इस तीव्र संवेग में यह देखना का नहीं है कि क्या छूट गया क्या रह गया। गोपियाँ तीव्र संवेग से कृष्ण की ओर चलीं। गोपी ने यह नहीं सोचा कि कहीं साँप न काट ले। कैसे निकलेंगे रात में भाई। कहीं चोर न मिल जाय, कहीं भूत न पकड़ ले, कहीं बिच्छू न डँस ले, कहीं काँटा न गड़ जाय- ये सब याद नहीं आया गोपी को क्योंकि उसकी नजर लक्ष्य पर है।

आपने लैला मजनू की कहानी सुनी होगी। बाजार में यह घोषणा कर दी गयी कि मजनू जहाँ हो और खाने-पीने की चीज माँगे तो मुफ्त में दे दी जाय। गाँव में हजारों मजनू पैदा हो गये, हर दुकान पर से बिल आवे कि उन्होंने इतना लिया, इतना लिया। एक मजनू कितना खाय। बोले- असली मजनू की परीक्षा होगी। मचान पर लैला को बैठा दिया गया और चारों तरफ आग लगा दी गयी। अब घोषणा की गयी कि लैला मजनू से मिलना चाहती है। सब मजनू आग देखकर भाग गये और जो असली मजनू था उसको लैला ही दिखती थी, आग नहीं दिखती थी।

गोपी जब घर से निकली तो उसको बिच्छू-साँप नहीं दिखता था, उसको माँ-बाप नहीं दिखते थे, भाई-बन्धु, सास-ससु नहीं दिखते थे, उसको दिखते थे बाँसुरी बजाते हुए कृष्ण।

स यत्र कान्तो जवलोलकुण्डलाः ।

इतनी वेग से गोपी जा रही थी कि कुण्डल, कंकण-किंकणी, करधनी सब बजने लग लग गयी। कहाँ चली? यत्र स कान्तः- जहाँ वह कान्त था, जहाँ वह प्यारा था। हमको प्यारे के पास पहुँचने से मतलब है, रास्ते के विघ्न-बाधा से क्या मतलब है। प्रेमी के लिए शरीर की क्या कीमत है? सब की सब चल पड़ीं।

आजग्मुरन्योन्यमलक्षितोद्यमाः – कई लोग कहते हैं कि ‘आजग्मुः’ का अर्थ है कि शुकदेव जी महाराज उसी कदम्ब पर बैठे हुए थे, जिसके नीचे श्रीकृष्ण वंशी बजाते थे। इसलिए उन्होंने साक्षी दी कि गोपियाँ आयीं। किसी ने कहा कि ‘आजग्मुः’ का अर्थ है सबको छोड़कर आयीं। आ समन्तात् माने सर्वपरित्याग करके आयीं, अभिसार किया। कहाँ आयीं? चिरकाल से जिनको चाहती थीं उस कान्त के पास। कस्य सुखस्य अंतःनिष्ठा- जो सुख की अन्तिम निष्ठा है वहाँ आयीं और एक दूसरे से छिपकर के आयीं, श्रीकृष्ण के आकर्षण से विचार चला गया और चली आयीं-

आजग्मुरन्योन्यमलक्षितोद्यमाः स यत्र कान्तो जवलोलकुण्डलाः ।

क्या-क्या छोड़कर गयीं, उसका वर्णन आगे देखें।+

जो जैसिह तैसिह उठ धायीं-1

दुहन्त्योभिययुः कश्चिद…..कृष्णान्तिकं ययुः

दुहन्त्योऽभिययः काश्चिद् दोहं हित्वा समुत्सुकाः ।

पयोऽधिश्रित्य संयावं अनुद्वास्यापरा ययुः ।।

परिवेषयन्त्यस्तद्हित्वा, पाययन्त्यः

शिशून्पयः । शुश्रूषन्त्यः पतीन काश्चिदश्रन्त्योपास्य भोजनम् ।।

लिम्पन्त्यः प्रमृजन्त्योऽन्या अञ्जन्त्यः काश्च लोचने ।

व्यत्यस्तवस्त्राभरणा काश्चिद् कृष्णान्तिकं ययुः ।।

गोपियों ने बाँसुरी सुनी और सुनकर जैसी थीं वैसी ही चल पड़ीं। शरद ऋतु पुर्णिमा की रात्रि, चाँदनी छिटकी हुई, सारा वन चाँदनी के रंग में सराबोर, शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु चल रही; एक ऊँचे टीले में खड़े होकर त्रिभंगललितभाव से पाँव पर पाँव रखकर पीताम्बरधारी, वनमालाधारी, मुरलीमनोहर, विशालभाल, गोरोचन का तिलक, भौहों में अनुग्रह, हाथों में प्रेम, होठों में मुस्कान थी, थोड़ी आँखें टेढ़ी, शिर थोड़ा लटका हुआ, ऐसे साँवरे-सलोने व्रजराजकुमार ने बाँसुरी बजायी। जैसे शब्द के द्वारा लोक में आमंत्रित किया जाता है कि ‘कदम्ब तरे आ जइयो कटीले काजलवारी’ ऐसे ही बाँसुरी की ध्वनि रसदान के लिए प्रेम का आमंत्रण है। इस प्रेम-निमंत्रण को प्राप्त करने के बाद एक समस्या खड़ी होती है। वह गोपियों के सामने तो खड़ी नहीं हुई, लेकिन लौकिक पुरुषों के मन में ऐसी समस्या खड़ी हो सकती है कि आखिर कर्म कब तक करना चाहिए?

कर्मकाण्डी लोग कहते हैं- ‘यावज्जीवं अग्निहोत्रं जुह्यात्।’
जब तक जिये तब तक आग में होम करे। वैयाकरणों में पतंजलि बोलते हैं-

यावज्जीवं अध्येयं व्याकरणम्- अर्थात जब तक जियो व्याकरण पढ़ो। जो जिसमें अटक जाता है, जो जिसमें फँस जाता है, जो जिसमें लग जाता है, उससे छूटना नहीं चाहता। कपड़े का व्यापारी कहता है- जिंदगी भर कपड़ा बेचेंगे; मल्लाह कहता है कि जिन्दगी भर नाव चलावेंगे; जो लोग आफिसों में काम करते हैं, वे रिटायर होने के समय कहते हैं कि दो-तीन वर्ष और रह जाते तो अच्छा होता। काम आखिर कब तक करना चाहिए? कर्म की आखिर कोई सीमा तो है नहीं, जिन्दगी-भर मजदूरी, जिन्दगी भर बेगार।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

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