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!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 117 !!
या में दो न समाहीं – अद्भुत सखीभाव
भाग 1
बहुत संकरी है गली प्रेम की ……….दो कैसे जायेंगें ?
जी ! या तो तुम्हारा अहंकार यानि “मैं” जाएगा, या तुम्हारे “प्रियतम” जायेंगें………दो साथ कैसे ?
हे वज्रनाभ ! ये प्रेमसाधना अद्भुत है ………..इसमें “पुरुष भाव” को त्यागकर “सखी भाव” से भावित होकर ही आगे बढ़ा जा सकता है ।
इसके बारे में, मैं तुम्हे पूर्व में बहुत कुछ बता चुका हूँ ………
पुरुष यानि अहंकार……….स्त्री यानि समर्पण ……………
महर्षि शाण्डिल्य गहरे और गहरे डूब रहे हैं इस प्रेम सरोवर में ।
हे वज्रनाभ ! पर इस सखी भाव में, बाहरी वस्त्रादि धारण करनें से विशेष लाभ होता दिखाई नही देता……अपितु दम्भ का ही प्रचार होता है……और तुम्हारा “मैं” यानि अहंकार ही पुष्ट होता है ।
“सखीभाव” का शरीर से ज्यादा सम्बन्ध नही है ……..मुख्य बात ये समझो वज्रनाभ ! कि इस प्रेमसाधना का ही शरीर से कोई सम्बन्ध नही है ……ये भाव जगत में स्थित होना है…….सब कुछ भावमय है …….भावना से ही उन लीलाओं का स्वाद लेते हुए ………फिर उन लीलाओं में धीरे धीरे प्रवेश मिल जाता है…….पर साधक समझ ले …ये भाव राज्य की एक अत्यन्त रहस्यमय गोप्य साधना है ।
अच्छा वज्रनाभ ! तुम आगे के चरित्र को ध्यान से सुनो ………स्वयमेव ही सब कुछ स्पष्टतः समझ जाओगे । इतना कहकर गम्भीर भूमिका न बाँधते हुए महर्षि सीधे “श्रीराधाचरित्र” से ही हमें जोड़ देते हैं ।
मन्त्राकार वृत्ती हो गयी थी अर्जुन की ………….
“राधे कृष्ण राधे कृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे ,
राधे श्याम राधे श्याम श्याम श्याम राधे राधे !!
ज्यादा समय नही लगा था अर्जुन को साधना में ……..तुरन्त ही एक सखी प्रकट हुयी………वो सखी बहुत सुन्दर थी…….गौर वर्ण था उसका …….पीली साडी पहनी हुयी थीं……..उसके देह से केशर की सुगन्ध निकल रही थी…..एक अलग ही आभा मण्डल था उस सखी का ।
चलो पार्थ ! सखी नें कहा …….
मैं उठा..........और उस सखी के पीछे पीछे चल दिया था ।
मेरे सामनें एक दिव्य गाँव दिखाई दिया ……….उस गाँव के लोग बड़े ही सुन्दर और सौम्य थे …….गौपालक थे सब ………मैने देखा ………..उस गाँव की गोपियाँ कितनें प्रेम से दधि मन्थन कर रही थीं ……..गोविन्द ! गोपाल ! बस बार बार यही कहती जा रही थीं ।
एक छोटा सा, नन्हा सा बालक…….ओह ! कितना प्यारा……उसके पीछे ………..वो मैया …..हाँ उस बालक की मैया ….दौड़ रही है……..शायद इस बालक नें कुछ उपद्रव कर दिया ।
पर ये क्या बाँध दिया उस बालक …….उसकी मैया नें, बाँध दिया ।
आहा ! आकाश से पुष्प बरसनें लगे ………ब्रह्मा रूद्र विष्णु ये भी पुष्प वृष्टि कर रहे हैं ………..स्नेह के बन्धन में ब्रह्म जो बंध गया था ।
अर्जुन नें देखा ………..आनन्दित हो उठे ।
“ये गोलोक है” …………उस सखी नें अर्जुन को बताया ।
पृथ्वी में यही गोलोक…. गोकुल या नन्दगाँव के नाम से वहाँ प्रतिकृति उतारी गयी है ।
उस सखी नें कहा ………जो अर्जुन को लेकर आयी थी ।
मुस्कुराई वो सखी ……..बस अब हम गोलोक से आगे बढ़ चले थे ।
लोक, धाम ये यन्त्र के समान विराजित रहते हैं …………..
ये कुञ्ज है………सखी नें मुझे दिखाया ।
…..एक दूसरे धाम में हम प्रवेश कर रहे थे …..उसी धाम को दिखाते हुए सखी नें कहा था …….ये कुञ्ज है ।
यहाँ ग्वालों का प्रवेश है….गोपियों का भी प्रवेश है…..देखो ! अर्जुन ! सखी नें अर्जुन को दिखाया…….अर्जुन आनन्दित हो उठे थे ……..वो कुञ्ज बड़ा ही दिव्य था……नाना जाति के वृक्ष, लता, पुष्प अनगिनत खिले हुए थे……..उनकी सुगन्ध से पूरा कुञ्ज महक रहा था………पक्षियों का कलरव ! आहा ! कितना मधुर ……..मोर नाच रहे थे………..वो सखी मुझे लेकर आगे बढ़ती रही ।
क्रमशः….
शेष चरित्र कल –
🌷 राधे राधे🌷


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