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July 6, 2025 5:14 am

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श्रीमद्भगवद्गीता-अध्याय 4 : दिव्य ज्ञान🌹श्लोक 4 . 21 & 22: Niru Ashra

श्रीमद्भगवद्गीता-अध्याय 4 : दिव्य ज्ञान🌹श्लोक 4 . 21 &  22: Niru Ashra

श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 4 : दिव्य ज्ञान
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श्लोक 4 . 21
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निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः |
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् || २१ ||

निराशीः – फल की आकांक्षा से रहित, निष्काम; यत – संयमित; चित्त-आत्मा – मन तथा बुद्धि; त्यक्त – छोड़ा; सर्व – समस्त; परिग्रहः – स्वामित्व; शारीरम् – प्राण रक्षा; केवलम् – मात्र; कर्म – कर्म; कुर्वन् – करते हुए; न – कभी नहीं; आप्नोति – प्राप्त करता है; किल्बिषम् – पापपूर्ण फल |

भावार्थ
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ऐसा ज्ञानी पुरुष पूर्णरूप से संयमित मन तथा बुद्धि से कार्य करता है, अपनी सम्पत्ति के सारे स्वामित्व को त्याग देता है और केवल शरीर-निर्वाह के लिए कर्म करता है | इस तरह कार्य करता हुआ वह पाप रूपी फलों से प्रभावित नहीं होता है |

तात्पर्य
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कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कर्म करते समय कभी भी शुभ या अशुभ फल की आशा नहीं रखता | उसके मन तथा बुद्धि पूर्णतया वश में होते हैं | वह जानता है कि वह परमेश्र्वर का भिन्न अंश है, अतः अंश रूप में उसके द्वारा सम्पन्न कोई भी कर्म उसका न होकर उसके माध्यम से परमेश्र्वर द्वारा सम्पन्न हुआ होता है | जब हाथ हिलता है तो यह स्वेच्छा से नहीं हिलता, अपितु सारे शरीर की चेष्टा से हिलता है | कृष्णभावनाभावित व्यक्ति भगवदिच्छा का अनुगामी होता है क्योंकि उसकी निजी इन्द्रियतृप्ति की कोई कामना नहीं होती | वह यन्त्र के एक पुर्जे की भाँति हिलता-डुलता है | जिस प्रकार रखरखाव के लिए पुर्जे को तेल और सफाई की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कर्म के द्वारा अपना निर्वाह करता रहता है, जिससे वह भगवान् की दिव्य प्रेमभक्ति करने के लिए ठीक बना रहे | अतः वह अपने प्रयासों के फलों के प्रति निश्चेष्ट रहता है | पशु के समान ही उसका अपने शरीर पर कोई अधिकार नहीं होता | कभी-कभी क्रूर स्वामी अपने अधीन पशु को मार भी डालता है, तो भी पशु विरोध नहीं करता, न ही उसे स्वाधीनता होती है | आत्म-साक्षात्कार में पूर्णतया तत्पर कृष्णभावनाभावित व्यक्ति के पास इतना समय नहीं रहता कि वह अपने पास कोई भौतिक वस्तु रख सके | अपने जीवन-निर्वाह के लिए उसे अनुचित साधनों के द्वारा धनसंग्रह करने की आवश्यकता नहीं रहती | अतः वह ऐसे भौतिक पापों से कल्मषग्रस्त नहीं होता | वह अपने समस्त कर्मफलों से मुक्त रहता है |


श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 4 : दिव्य ज्ञान
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श्लोक 4 . 22
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यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः |
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते || २२ ||

यदृच्छा – स्वतः; लाभ – लाभ से; सन्तुष्टः – सन्तुष्ट; द्वन्द्व – द्वन्द्व से; अतीत – परे; विमत्सरः – ईर्ष्यारहित; समः – स्थिरचित्त; सिद्धौ – सफलता में; असिद्धौ – असफलता में; च – भी; कृत्वा – करके; अपि – यद्यपि; न – कभी नहीं; निबध्यते – प्रभावित होता है, बँधता है |

भावार्थ
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जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वन्द्व से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नहीं |

तात्पर्य
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कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अपने शरीर-निर्वाह के लिए भी अधिक प्रयास नहीं करता | वह अपने आप होने वाले लाभों से संतुष्ट रहता है | वह न तो माँगता है, न उधार लेता है, किन्तु यथासामर्थ्य वह सच्चाई से कर्म करता है और अपने श्रम से जो प्राप्त हो पाता है, उसी में संतुष्ट रहता है | अतः वह अपनी जीविका के विषय में स्वतन्त्र रहता है | वह अन्य किसी की सेवा करके कृष्णभावनामृत सम्बन्धी अपनी सेवा में व्यवधान नहीं आने देता | किन्तु भगवान् की सेवा के लिए संसार की द्वैतता से विचलित हुए बिना कोई भी कर्म कर सकता है | संसार की द्वैतता गर्मी-सर्दी अथवा सुख-दुख के रूप में अनुभव की जाती है | कृष्णभावनाभावित व्यक्ति द्वैतता से परे रहता है, क्योंकि कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए वह कोई भी कर्म करने से झिझकता नहीं | अतः वह सफलता तथा असफलता दोनों में ही समभाव रहता है | ये लक्षण तभी दिखते हैं जब कोई दिव्य ज्ञान में पूर्णतः स्थित हो |

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