महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (055)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
जो जैसिह तैसिह उठ धायीं-1
‘पयोऽधिश्रित्य संयावं अनुद्वास्यापरा ययुः’ कोई-कोई गोपी दूध को आग पर चढ़ायी थी पर दूध का भविष्य भूल गयी। वंशीध्वनि जो कान में पड़ी और आँख में, हृदय में और रोम-रोम में उससे जो मिलन की व्याकुलता की व्याप्ति हुई उससे दूध के भविष्य का ख्याल नष्ट हो गया। माषाश्च मे गोधूमाश्च में यज्ञेन कल्पन्ताम् । शुक्ल यर्जुवेद संहिता में जौ, मूँग, उड़द, गेहूँ सबका वर्णन है। तो, यावाग् जौ से बनता है; यावागू माने लप्सी। और संयाव माने हलुआ, घी डालकर खूब बढ़िया बनाते थे। संयाव कहने का मतलब उसमें जौ भी डाल दिया था, दूध भी डाल दिया था, घी डाल दिया था और आग पर भी चढ़ा दिया था। सब ठीक, लेकिन महाराज, जब कृष्ण की बाँसुरी बजी तो हलुए की मिठास भूल गयी, अनुद्वास से उतारा नहीं। चल पड़ी कृष्ण के लिए।
शुश्रूषन्त्यः पतीन् काश्चिद्श्रन्तोपास्य भोजनम् ।
परिवेषयन्त्यस्तद्हित्वा पाययन्त्यः शिशून् पयः ।।
एक दूसरी गोपी उस समय घर में पत्नी-धर्म का पालन कर रही थी। वह भोजन परोस रही थी। ‘परिवेशयन्त्यः’- पहले, लोग घर में बैठते थे भोजन के लिए तो मण्डली बनाकर बैठते थे। चंद्राकार गोल-गोल-पंगत बनाकर लोग बैठते थे और परोसने वाली बीच में रहती थी। असल में, चंद्रमा तो परसने वाला है और दूसरे लोग अमृत पान करते हैं। ऐसा मालूम पड़ता है मानो चंद्रमा पर ‘पारस’ लगी हो। चंद्रमा के चारों ओर कभी-कभी पारस, परिवेश लगता है न, वैसे मण्डल बनाकर सब लोगों का मुँह एक तरफ और परोसने वाला बीच में में। परिवेषयन्त्यः- गोपी है और वह बिलकुल चाँदनी की तरह चमकती है, पर अमृत की तरह अन्न परस रही हैं; लेकिन महाराज, पंगत बैठी की बैठी रह गयी। वंशी सुनी और गोपी चली गयी। कहाँ गयी? खाने वालों ने कहा- घर मं गयी होगी, दूध ला रही होगी। बोले- अरे राम, वह तो ऐसी लेने गयी कि लौटी ही नहीं।
परिवेषयन्त्यः तद्हित्वा पाययन्त्यः शिशून् पयः ।+
नारायण। एक दूसरी गोपी स्नेहवश बच्चे को दूध पिला रही थी। बड़ा स्नेह, बच्चा रोता था ‘पाययन्त्यः शिशून् पयः’ दूध पिला रही थी। एक बार कई महात्मा जुड़े तो यह चर्चा हुई कि गोपियों में क्या बच्चेवाली भी थी? साहित्यिक लोग जहाँ लौकिक श्रृंगाररस का वर्णन करते हैं वहाँ अगर बच्चेवाली स्त्री के श्रृंगार रस का वर्णन हो गया तो उसको रसाभास मानते हैं। वहाँ सच्चे श्रृंगार-रस का उदय नहीं होता। इसका समाधान एक महात्मा ने क्या किया ये गोपियाँ दूध पिला रही थीं बच्चों को, यह बात तो सही है, लेकिन वे बच्चे उनके नहीं थे, जेठानी के थे, बड़ी बहन के थे, उनको दूध पिला रही थीं। दूसरे महात्मा ने कहा- नहीं भाई। यह कोई साहित्य दर्पण का या काव्य प्रकाश का या रस गंगाधर का, या मम्मटकार क्षेमेन्द्र का रस नहीं है, यह भगवद-रस है।
भगवद रस की अधिकारिणी कुमारी भी है, विवाहिता भी है, बच्चेवाली भी है, सधवा भी है, विधवा भी है वृद्धा भी है। भगवद रस केवल शारीरिक होता, माने भगवान् भी यही देखते कि कौन बुढ़िया कौन जवान, तो उनकी दृष्टि शारीरिक हो जाती। यहाँ तो प्रेम का प्रसंग है, शरीर का प्रसंग नहीं है। इसलिए जिनके बच्चा थे वे भी पाययन्त्यः शिशून् पयः। बच्चे के प्रति हृदय में जो स्नेह था जिसके साथ वह बच्चे को दूध पिला रही थी उसको भी छोड़कर वंशी श्रवण के साथ ही श्रीकृष्ण की तरफ चल पड़ी।
देखो, इसमें कितना आश्वासन है कि लोग कहीं इस भ्रम में न पड़ जाएँ कि भगवान् से प्रेम केवल जवान ही करते हैं, वृद्धा नही करतीं। अरे। वहाँ तो व्रज में महाराज! श्रीकृष्ण गोचारण करके निकलते थे तब आगे-आगे गौयें आती थीं और पीछे-पीछे श्रीकृष्ण और बलराम तथा उनके पीछे-ग्वाल बालों की मण्डली। गायों के खुर से उड़-उड़कर धूल पड़ी हुई उनके तन पर, तो उनकी उस शोभा को देखने के लिए रास्ते में सास की तो बात ही क्या, ददिया सास भी घोंटू तर काजल लगाकर और लठिया लेकर हाथ में और दरवाजे पर आकर खड़ी हो जाती थीं और मुस्करा-मुस्कराकर कृष्ण को देखतीं थीं। उनको देखकर कृष्ण भी हँसते, उनको भी हँसी आ जाती थी। हास्य रस भी तो एक रस है न, उसके द्वारा भी तो भगवान् की आराधान होती है।+
कई गोपी पति की सेवा-शुश्रूषा में लगी हुई थीं- शुश्रूषन्त्यः पतीन्। वे भी वंशी-ध्वनि सुनकर चल पड़ीं। बोले- भाई, भले सबको छोड़ दें, लेकिन जब पेट में चूहे कूदते हों, तो प्रेम कोई नहीं करेगा, क्योंकि अपने शरीर से तो प्रेम ज्यादा होता है। आपने सुना होगा कि अकबर ने बीरबल से पूछा कि दोनों की दाढ़ी में अगर एकसाथ आग लगे तो पहले किसकी बुझाओगे? बीरबल ने कहा कि पहले अपनी बुझावेंगे। तो जहाँ अपने को तकलीफ होने लगती है तो दूसरे को भूल जाता है। हमारे गाँव में कहावत है- पहले आत्मा, पीछे परमात्मा। तो बोले- एक गोपी उस समय कर रही थी भोजन। हमने तो ऐसी स्त्रियों के बारे में भी सुना है कि घर में मुर्दा पड़ा है तो पहले भोजन कर लेती हैं फिर जोर से रोना शुरू करती हैं। तो गोपियाँ भोजन कर रही थीं ‘अश्रन्त्य’ पर महाराज। वह थाली रह गयी वहाँ, रोटी रह गयी वहाँ, वे तो मुँह घुमाकर चल पड़ीं। बेचारियं के पास रूमाल भी नहीं था कि मुँह पोछ लें। आजकल भी लोग मुँह पानी से कम धोते हैं, रूमाल से ही पोंछ लेते हैं। अश्नत्योपास्य भोजनम्- भोजन एक ओर रह गया और गोपी चल पड़ी। वह तो योगमाया ने उसका हाथ मुँह पीछे धुलाया। देखा- कृष्ण के पास जा रही हैं तो योगमाया ने आकर उसका झट हाथ-मुँह धो दिया।
लिम्पन्त्यः प्रमृजन्त्यो ऽन्या अञ्जन्त्यः काश्च लोचने ।
बोले- बाबा प्रेम में भोजन छोड़ना तो आसान है लेकिन स्त्री अगर श्रृंगार कर रही हो, श्रृंगार- गृह में हो, तो नहीं छोड़ सकती। उस समय कोई गोपी श्रृंगार कर रही थी। वह होठों पर लेप कर रही थी- लिम्पन्त्यः। कागज पर स्याही का लेप करते हैं; इसलिए लिखी हुई आकृतियों से व्यक्त भाषा को लिपि बोलते हैं। पर उसी को यदि लोहे की कील से ताँबे के पत्र पर उल्लेख कर दें, तो उसको टंकण बोलेत हैं क्योंकि टाँकी मारके लिखते हैं। ऐसे ही यह लिपिस्टिक है।
लिपिस्टिक क्या है? कि यह लोपोस्टिक है। ओंठ पर लेप करती है इसलिए इसका नाम लिपिस्टिक है। तो ‘लिम्पन्त्यः प्रमृजन्त्योऽन्या अञ्जन्त्यः काश्च लोचने’- तीन प्रकार का संस्कार वह गोपी कर रही थी। अपने को सजाने-सँवारने में तीन प्रकार की विधि है : एक तो ‘प्रमृजन्त्यः’- जो शरीर में मैल लगी हुई हो उसको उबटन से निकाल देना, साबुन से निकाल देना, उसको छुड़ा देना, पोंछ देना, इसको बोलेंगे- प्रमार्जन। दूसरी विधि है- लेपन; जहाँ-जहाँ कमी मालूम पड़ती हो वहाँ-वहाँ लेप लगाकर उस कमी को दबा देना और तीसर है- ‘अञ्जन्त्यः’- अंजन लगाना आँख में।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹


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