!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!
( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )
!! “यह आनन्द दाम्पत्यात्मक है” !!
गतांक से आगे –
यह आनन्द एक होने पर भी दो है …..वेद कहते हैं …”आनंदम् ब्रह्म” । वो ब्रह्म आनन्द है …किन्तु आनन्द स्वाभाविक अद्वैत होने पर भी द्वैत है …..क्यों की रस है …और रस में भी मधुर रस है इसलिये ये युगल है ….दो है । किन्तु जब वो आनन्द दो होता है …..तब रस का विस्तार होने लगता है …..फिर उसी में से सखी वृन्द प्रकट हो जाती हैं …उसी आनन्द से …उसी रस से ।
हे रसिकों ! अब वो आनन्द विहार करता है अपने चिन्मयात्मक परम व्योम में जिसे निकुँज कहा गया है ….वही विहार, नित्य विहार यहाँ के नित्य परिकरों का जीवन सर्वस्व है ।
उस रस का , उस माधुर्य का , उस सौन्दर्य का , उस रस विलास का जैसा आस्वाद , जैसा दुलार , प्यार , श्रीवृन्दावन के रसिकों ने किया ….श्रीहरिव्यास देव , श्रीस्वामी हरिदास जी , श्रीहित हरिवंश आदि आदि रसिकाचार्यों ने …वैसा इस रस का स्वरूप अन्यत्र कहीं मिलता नही है ।
अन्यत्र पद पद पर मर्यादा है , वेद मर्यादा , शास्त्र मर्यादा , लोक मर्यादा …इन सबमें पिस कर रस कहीं खो जाता है …और रह जाती है केवल थोथी मर्यादा । जिससे कोई लाभ रस के साधक को मिलता नही है ।
ओह ! क्या अद्भुत रस की भावना इस श्रीवृन्दावन से प्रकट हुयी है ….”निकुँज की भावना”…..जहाँ सब कुछ चिद घन है ….जहाँ सखियों का ही प्रवेश है …जहाँ नित्य उत्सव ही उत्सव है …जहाँ “युगल सरकार” कोई देवता ईश्वर या ब्रह्म नही हैं …वो तो अपने हैं …अपने आत्मीय….उन्हीं के लिए जीना है …उन्हीं के सुख के लिए सारे प्रपंच करने हैं …किन्तु ये प्रपंच भी रसमय और आनन्दमय है ….हर क्रिया रसमय है यहाँ की …और क्यों न हो …जब सब कुछ रस ही रस है …तो फिर तुम्हारी नीरसता यहाँ कहाँ टिकेगी ! नीरस तो तुम्हारा संसार है …नीरस तो तुम्हारा धर्म है , नीरस तो कर्तव्य के नाम पर होने वाले तुम्हारे कर्मकाण्ड हैं ….अजी ! इस सरस मार्ग पर एक बार तो आओ …..आनन्द तुम्हें अपने में समा लेगा । तुम आनन्द में ही डूबे रहोगे ….एक का प्यार मिलेगा तो दूसरे का दुलार …..ये दो हैं ना ! क्यों की आनन्द दाम्पत्यात्मक है ।
समझे ?
नही नही , समझना नही है ….चल देना है इस रस और आनन्द के मार्ग में ।
!! दोहा !!
सुखकारी सबके सदा , प्रानन के प्रतिपाल ।
सर्बस जीवन सखिन की , नवल लाड़ली लाल ।।
नवल लाड़ली लालकौ , अद्भुत ब्याह अनूप ।
अलि मिलि गीतहिं गावहीं , विमली मंगल रूप ।।
मंगल विमली अली सब , मंगल ब्याह बिहार ।
मंगल सखी सुदेविका, गावत मंगलचार ।।
दिव्य निकुँज है …गीत संगीत नाना वाद्य आदि बज उठे हैं …क्यों की इन दिनों विवाह उत्सव यहाँ चल रहा है ….सामान्य दम्पति का भी विवाह होता है …तो वहाँ का स्थान भी उल्लसित दिखाई देता है ….फिर ये तो अनादि दम्पति हैं ….आनन्द ही दो रूपों में कैसा सजा धजा बैठा है …वही सुन्दर रजत का पाटा है ….उसी में ये बैठे हैं …रूप राशि अनुपम है ….सिर में सेहरा बांधे गर्व से गर्वित हैं….इन्हीं की आल्हादिनी इनके वाम भाग में सुशोभित हैं …पक्षियों का कलरव ही गान के रूप में गुंजित हो रहा है …..बंदनवार हर कुंजों में लगाये गये हैं …सखियों ने रंगोली काढ़ी है ….अनन्त सखियाँ हैं जो सब सज धज कर इस उत्सव में अपनी सेवा दे रही हैं ।
हरिप्रिया सखी ने जब देखा कि …सखियाँ नृत्य में मत्त हैं …कोई वाद्य बजा रहा है …वाद्यों में भी शहनाई विशेष ….तो निकुँज का रूप उससे और खिल गया है ….हरिप्रिया आनंदित हो जाती हैं और कहती हैं ….देखो ! ये युगल सरकार ही हम सबके सुख दायक हैं ….तभी दूसरी सखी कहती है नही नही , हे सखी जू ! ये सुख दायक ही नही …हमारे प्राणों के पालक भी हैं ….उस अपनी सखी की बात सुनकर हरिप्रिया स्नेह से भर जाती हैं ….और उसके सिर में हाथ रखते हुए पूछती हैं …..कैसे ये हमारे प्राणों के पालक हैं ? सखी जू ! अगर ये हमें दर्शन नही दें ….अपने रूप सुधा का पान न करायें तो क्या ये प्राण हमारे रहेंगे ? ये हमें दर्शन देते हैं इसी से तो हमारे प्राण बचे हुए हैं …..इसलिये ये हमारे “प्रानन के प्रतिपाल हैं” ।
इस सखी की बात सुनकर हरिप्रिया बहुत प्रसन्न हुईं ….कुछ देर मुस्कुराती रहीं …”सही कह रही है” , सही कह रही है ….कहती रहीं फिर बोलीं ….देखो ….हमारे सर्वस लाड़ली लाल का विवाह उत्सव है ये ….अनन्त सखियाँ आयीं हैं ….और सबने आनन्द बरसाया है ….इसलिए अब सब मिलकर मंगल गीत गाओ …इसी मंगल गीत से हमारे युगल का मंगल होगा ….क्या मंगल चाहिए इन “मंगल भवन” का ? हंसते हुए वही सखी पूछती है । ये दोनों मिलें रहें …यही मंगल है ..ये दोनों कभी अलग न हों …यही मंगल है । हरिप्रिया ये कहते हुए भाव में डूब गयी थीं …कि तभी देखते ही देखते फिर सखियों की और पंक्ति आने लगीं ….ये सब नाचती गाती आरही थीं ….पिछले में श्रीरंगदेवि जू मुख्य थीं …जो सबसे आगे थीं ….लेकिन इस बार श्रीसुदेवी सखी जू सबसे आगे हैं….वो हाथों में मोतियों की टोकरी लिए मुस्कुराती , आनन्द से फूली …पीले रंग की साड़ी पहनी , गौर वर्ण की ..श्रीसुदेवी जू , जय जयकार करती हुयी चली आरही थीं …उनके पीछे सखियों की जो पंक्ति थी ….उसका कोई ओर छोर नही दिखाई दे रहा था । इन सखियों के कारण भी निकुँज में सुगन्ध की वयार चलने लगी थी ….”बोलो दुलहा दुलहिन सरकार की , जय जय जय”…..ये कहती हुई …मंगल गीत गाने लगीं थीं । मंगल गीत पहले श्रीसुदेवी जू गातीं फिर उनके पीछे सब सखियाँ गा रहीं थीं ।
क्रमशः


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