महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (056)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
जो जैसिह तैसिह उठ धायीं-1
आँखों को अंजन से बड़ी-बड़ी कर देना। आँखों के ऊपर जो पलकें हैं उन पर कालिख लगाते हैं, उसको आजकल क्या बोलते हैं उसको हम नहीं जानते हैं; एक डंडा खींच देती है, आँख से लेकर कान की तरफ को, जिससे आँख बड़ी लगे। अंजन से आँख ज्यादा काली लगती है। अंजन का मतलब होता है उभारना- सौन्दर्य छिपा हुआ हो उसको उभारने के लिए जो भी क्रिया हो सो अज्जु- व्यक्तिः। अञ्जु माने व्यक्त करना। तो जो सौन्दर्य छिपा हुआ हो उसको जाहिर करने का तरीका अञ्जन है। और जो मैल लगा हो उसको धोने का तरीका प्रमार्जन है। और बाहर से रंग-रोगन, पाउडर-स्त्रो, लगाकर चिकना रंगीन बनाना, इसका नाम है लेपन। एक देवीजी घर में लेप कर रही थीं; पति ने कई बार कहा बाबा, समय बीत रहा है, चलो-चलो वहाँ पहुँचना है समय से। तो देवीजी जोर से चिल्लायीं- तुम तो जल्दी-जल्दी कर रहे हो और मैं दो घंटे से कह रही हूँ कि पाँच मिनट ठहर जाओ, मैं आती हूँ। तो यह क्या बात हुई कि भोजन से ज्यादा प्रेम श्रृंगार में है।
लक्ष्मीजी और गंगाजी की बात आप लोगों ने सुनी होगी। जब ब्रह्माजी ने गाय बनायी, तो तैंतीस करोड़ देवताओं को निमंत्रण दिया गया कि तुम लोग आकर के गाय के शरीर में रहो। सो महाराज और सब देवता जल्दी पहुँच गये और गंगाजी और लक्ष्मीजी दोनों श्रृंगार करने के लिए पहुँच गयीं श्रृंगार-गृह में, सो बहुत देर से पहुँची। श्रृंगार ही घंटों लग गया। सब देवता आकर गाय के शरीर में बस गये। तब ये पहुँची। ब्रह्माजी ने कहा कि अब तुम्हारे लिए स्थान नहीं है, वापस चली जाओ। बोलीं- हम तो गाय में जरूर बसेंगी। ब्रह्माजी ने कहा- ठीक है, पर गंगाजी को तो अब गोमूत्र में रहना पड़ेगा और लक्ष्मीजी को गोबर में रहना पड़ेगा। बोलीं- अच्छा; मंजूर है। मूत्र में और गोबर में रहना पड़ा, सबसे पीछे क्यों बैठना पड़ा? कि वे श्रृंगार में फँस गयीं।
तो बात यह हुई कि स्त्रियों को भोजन उतना प्यारा नहीं है जितना श्रृंगार। लेकिन जब श्रीकृष्ण को प्रेम की बाँसुरी बजी तो क्या हुआ कि इतना प्यारा जो श्रृंगार है वह भी छूट गया। ‘अञ्जन्त्यः काश्च’ गोपी को एक आँख में अंजन लगा था- एक तरफ लगा, एक ओर नहीं लगा; एक ओर लेप लगा दूसरी ओर नहीं लगा; शरीर में उबटन लगा ही हुआ था, धुला नहीं था। पर जैसे थीं वैसे ही चल पड़ीं। बाद में तो सब योगमाया ने सम्हाला। ‘व्यत्यस्तवत्राभरणा काश्चिद् कृष्णान्तिकं ययुः’ कपड़े उलट गये, नीचे का ऊपर, ऊपर का नीचे, उलटे-सीधे का ख्याल नहीं रहा। आभूषण हाथ का पाँव में, पाँव का हाथ में- आभरण उलट गये। एक ही कान में कुण्डल पहन पायी थी। जो नाक का आभूषण था वह कान में, जो ख्याल था कि हम अपने प्यारे कृष्ण के पास पहुँचे। सब श्रृंगार भूल गयीं। स्त्री के लिए श्रृंगार का बिसर जाना और खास करके अपने प्रियतम के पास जाने के समय, यह वंशी-ध्वनि का जादू है।+
जो जैसिह तैसेहि उठ धायीं-2
प्रेम के प्रतिबन्ध
तावार्यमाणाः पतिभिः………दध्युर्मीलितलोचनाः
तावार्यमाणाः पतिभिः पितृभिर्भ्रातृबन्धुभिः ।
गोविन्दापहृतात्मानो न न्यवर्तन्त मोहिताः ।।
अंतर्गृहं गताः काश्चित गोप्योऽलब्धविनिगमाः ।
कृष्णं तद् भावनायुक्ता दध्युर्मीलितलोचनाः ।।
दुःसहप्रेष्ठविरह तीव्रतापधुताशुभाः ।
ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेष, निर्वृत्याक्षीणमंगलाः ।।
भगवान् से मिलने के लिए जाना और ख्याल शरीर का करें- दोनों एक-साथ नहीं हो सकते जैसे ज्ञान में देहात्म-बुद्धि और ब्रह्मयी दृष्टि दोनों एक साथ नहीं रह सकते, उसी प्रकार प्रेम में है। जैसे ज्ञान में विरोधी है देह का ध्यान, ऐसे प्रेम में विरोधी है वस्त्राभूषण। ये वस्त्र, आभूषण, किसी सौन्दर्य के सूचक नहीं है, ये सभ्यता के सूचक हैं, ये संस्कृति के सूचक हैं, ये शिष्टता के सूचक हैं, ये मर्यादा के सूचक हैं। यह तो सब ठीक है, पर यदि कहो कि वस्त्राभूषण में कोई प्रेम हो, कोई सौन्दर्य हो, तो राधेश्याम कहो। कालीदास ने शकुन्तला के सौन्दर्य का वर्णन किया है-
सरसिजमनुविद्धं शैवलेनाऽपि रम्यं,
मलिनमपि हिमांशोर्लक्ष्मीं तनोति ।
इयमधिकमनोज्ञा वल्कलेनाऽपि तन्वी,
किमिवहिमधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् ।।
कहते हैं कि कमल के खिले फूल के साथ अगर शेवार चिपक जाए तो क्या कमल की शोभा में कोई फर्क पड़ जाएगा? अच्छा, सुन्दर मुख पर दो-चार बाल गिर जाएँ, आख को काटते हुए कपोल पर आ जाएं, तो क्या उससे सौन्दर्य घट जाता है? अरे, कमल पर अगर शेवार पड़ जाए तो उससे कमल की सुन्दरता घटी नहीं, बढ़ती है।++
मलिनमपि हिमांशोर्लक्ष्मी तनोति।
चंद्रमा में जो कलंक है, जो काला दाग है, उससे क्या चंद्रमा की शोभा घटती है? इयमधिक मनोज्ञा वल्कलेनाऽपि तन्वी- यह सुन्दरी शकुन्तला वल्कल वस्त्र धारण किए हुए है तब भी अधिकाधिक सुन्दर लगती है। किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनां- जिनकी आकृति मधुर है, उनके लिए कौन सी ऐसी वस्तु नहीं है और कौन सी ऐसी वस्तु है, जो श्रृंगार नहीं बन जाती है आभूषण नहीं बन जाती है। सुन्दरें किं न सुन्दरम्- मधुराणां आकृतीनां किमिव वस्तु मण्डनम् न भवति। तो, प्रेम का आभूषण क्या? स्त्री का सबसे बड़ा चातुर्य क्या है? उसकी मुग्धता उसका भोलापन ही उसका चातुर्य है। वह बहस में किसी को जीत ले, दो थप्पड़ मारकर के हरा दे, अपने को बड़ी विद्यावती सिद्ध कर दे, साक्षात् सरस्वती अपने को सिद्ध कर दे, परंतु यह उसका सौन्दर्य नहीं है। स्त्री का सौन्दर्य है उसकी मुग्धता, उसका भोलापन, यही इसकी चातुरी है।
स्त्री का सौन्दर्य क्या है? उसके हृदय में प्रेम होना। उसके प्रेम में सौन्दर्य है। कृष्ण-प्रेम में वस्त्र की जरूरत नहीं, उसमें आभूषण की जरूरत नहीं, श्रृंगार ठीक हुआ कि नहीं, इसकी जरूरत नहीं। जैसे ब्रह्मात्मैक्यदर्शन में देहात्मबुद्धि का त्याग होता है, वैसे भगवत्-प्रेम में वस्त्राभूषण का जो बाह्य सौन्दर्य है उस पर दृष्टि नहीं जाती। प्रेमी से मिलने के लिए जा रहे हैं, बस नदी की तरह बहे जा रहे हैं।
यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तंगच्छन्ति नामरूपे विहाय ।
उपनिषद् में आया है- जैसे नदी अभिसार करती है, सरकती, बहती-बहती समुद्र में जाकर मिलती है और अपना नाम और अपना रूप छोड़ देती है; इसी प्रकार प्रेम जब अपने प्रियतम की ओर बहता है तब हमारा नाम बना रहे, हमारा रूप बना रहे, हम भी कुछ बने रहें, यह ख्याल नहीं रहता है।
‘अहं’ की पूजा और प्रेम की पूजा- ये परस्पर विपरीत हैं। अहं की पूजा कभी हो सकती है, यदि वह प्रियतम का हो और उससे प्रियतम को प्रसन्नता होती हो, यह मालूम पड़े कि इस वस्त्राभूषण से वे प्रसन्न होंगे तो वही धारण कर लेंगे। जा वेषां म्हारा साँई रीझे सोई वेष धरों। जब चुम्बकने खींचा, तो लौह को कोई ख्याल नहीं रहा, कि नहन्नी हूँ कि मैं चाकू हूँ, कि मैं कैची हूँ। जब चुम्बन ने खींचा तब लौह अपनी शकल-सूरत भूल गया। कृष्ण जो हैं ये क्या है? कि श्याम-चुम्बक है। राधा रानी सोना हैं तो श्रीकृष्ण कसौटी हैं; गोपियाँ लोहा है तो कृष्ण चुम्बक हैं। कृष्ण माने कर्षक, जो अपनी ओर खींचे।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹


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