!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!
( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )
!! ब्याहुला में सखी की कामना” !!
गतांक से आगे –
इस “सखी भाव” को समझने के लिए शुद्ध हृदय अति आवश्यक है । कलुषित हृदय इस “सखी भाव” को समझने में समर्थ नही होगा । इसलिए मेरे पागल बाबा के पास कोई आता और इन “निकुँज रस सखी भाव” के विषय में पूछता तो वो यही कहते – पहले चार लाख युगलमन्त्र का जाप करके आओ फिर उत्तर दूँगा । हे रसिकों ! जिनका मन सांसारिक कामनाओं से दग्ध है …वो इन पवित्र प्रेम से भरे भावों को क्या समझें….ये तो उनके लिए है …जो निष्काम हैं …प्रेम से भरे हैं …स्वसुख जिनके लिए कोई मायने नही रखते ….श्रीमहावाणी जब ये कहती है …कि
“प्रात कालही ऊठिके , धारि सखी को भाव ।
जाय मिले निज रूप सौं , याकौ यहै उपाव “।। महा. सेवा सुख ।
हृदय में भाव धारण करो …महावाणी जी की आज्ञा है । अब भाव में तो अनेक भेद हैं ..भाव है , विभाव है , अनुभाव है , महाभाव है संचारी भाव और स्थाई भाव आदि आदि हैं …साहित्य भरा पड़ा है इन भावों की व्याख्याओं से , मैं उन सब में नही जाऊँगा ….किन्तु जैसे – हीरा है , मोती है , मणि है माणिक्य है , सोना है , चाँदी है , ताम्बा है , लोहा है ….इन सबके भाव अलग अलग हैं …इन सब पदार्थों के भी भाव एक नही हैं …क्या हीरा और लोहे का भाव एक है ? नही ना । ऐसे ही भाव मात्र कहने से नही होगा ….स्वरूप और स्थान भेद से भावों में उतार और चढ़ाव देखा गया है ….किन्तु हम तो बात कर रहे हैं उस भाव की …जो सर्वोच्च है ….सर्वोच्च इसलिए है क्यों की स्वसुख की कामना नही है । और स्मरण रहे जब आप पूर्ण निस्वार्थ होकर सेवा करते हैं …किसी से प्रेम करते हैं ….तब आपका हृदय एक असीम सुख से भर जाता है ….क्योंकि हमें कुछ चाहिए नही …हम तो प्रीतम को देने चलें हैं …और देकर ही राजी है ।
अब इस सर्वोच्च “सखीभाव” को पाने के लिए क्या करें ?
अपने गुरुदेव से निज रूप जानिये ….क्यों की गुरुदेव निकुँज में सखी हैं …वही तो हमें वहाँ युगल सरकार तक ले जायेंगे ….गुरुदेव की आज्ञा है कि …नित्य निकुँज विलासी युगल सरकार की सेवा में हमें “निरन्तर” लगे रहना है …यही है “सखी भाव”।
“श्रीमहावाणी का ब्याहुला उत्सव” लिखते हुए मुझे बहुत बार रुक जाना पड़ा …इसमें सीधे सीधे विवाह की विधि नही है …इसमें जो कुछ बताया है …हमें दिखाया है …वो बड़ा ही रहस्यपूर्ण है …जब मैं लिखने बैठा तब गुरुकृपा से वो रहस्य खुलते गये ..और मैं चकित होता गया ।
“श्रीहरिप्रिया सखी जू” ये श्रीमहावाणी के रचयिता “श्रीश्रीहरिव्यास देवाचार्य जू ही हैं” जिस दिव्य परम्परा में ये हैं ….उस परम्परा के आचार्य श्रीनिम्बार्क प्रभु हैं …जो पृथ्वी में आचार्य के रूप में हैं तो निकुँज में श्रीरंगदेवि सखी जू के रूप में …ये प्रमुखा हैं । अब श्रीहरिव्यास देव के गुरुदेव श्रीश्रीभट्ट जी हैं , जिन्होंने “श्रीयुगलशतक” नामक अपूर्व रस ग्रन्थ को लिखा है ….ये गुरुदेव हैं श्रीहरिव्यास देव के श्रीश्रीभट्ट जी । इनका नाम निकुँज में है “श्रीहितू सहचरी”।
अब आप लोग झाँकी का दर्शन करें …मण्डप में विराजे हैं श्रीश्यामा श्याम , जो दुलहा और दुलहिन के अद्भुत भेष में हैं …उनको चंवर ढुरा रही हैं श्रीरंगदेवि जू …उनके थोड़ा पीछे हैं श्रीहितू सखी जू ….वो बस दर्शन कर रहे हैं …शान्त सखी हैं ये …बस मंद मंद मुस्कुराते हुए ब्याह मण्डप में सजे धजे बैठे अपने प्राणधन युगल को निहार रही हैं …उनके थोड़ा पीछे हैं हरिप्रिया सखी जू ।
वो कभी अपनी यूथ की प्रमुखा श्रीरंगदेवि सखी जू को देख रही हैं ..तो कभी अपनी गुरु श्रीहितू सहचरी जू को । पर ये क्या ! नेत्र बन्द हो गये श्रीहितू सहचरी जू के ….नेत्रों के कोरों से अपारसुख के अश्रु बहने लगे ….हरिप्रिया देख रही हैं …अपनी गुरु की ये स्थिति । हरिप्रिया सुन रही हैं ….कि इस ब्याहुला उत्सव में युगल को निहारते निहारते श्रीहितू सखी जू के मन क्या कामना आगयी थी ! ओह ! और उस कामना को जानते ही ….हरिप्रिया अद्भुत आनन्द से भर गयीं …उनका हृदय उन्मद होने को तैयार है …आहा ! मेरी सखी जू के मन में ऐसी उत्कण्ठा ! हरिप्रिया आनंदित हो उठी थीं ।
हे रसिकों ! ये निकुँज के रहस्यों को खोलने वाली है ….”ब्याहुला उत्सव”। इसलिए अनधिकारी मेरे ऊपर कृपा करें और इसे न पढ़ें ….और जो रसिक हैं …वो इसमें डूब जाएँ …क्यों की इससे सुन्दर मार्ग उनके लिए कोई है नही ।
अब चलिए शीघ्र निकुँज में जहाँ विवाह उत्सव धूमधाम से मनाया जा रहा है ।
!! दोहा !!
सुख पावैं सुनि गान गुन , हितू अली मन मानि ।
कामन गावत पीय को , कामिनी कौ हित जानि ।।
!! पद !!
कामन करैं जु कामिनी , रंगनि रँगाऊँ लाल ।
सुन्दर सरूप करि , श्यामता मिटाऊँ लाल ।।
श्रीराधा राधा राधा प्यारी जपनि जपाऊँ लाल ।
डोरी को डोरो पीय हिय में पुवाऊँ लाल ।।
पानन के पान पीय आनन भराऊँ लाल ।
लाल लाल मुनि करि , लरन झुलाऊँ लाल ।।
प्यारी पद कमल में , भ्रमर भ्रमाऊँ लाल ।
तौ हितू की सहेली हरिप्रिया की कहाऊँ लाल ।। महा, उत्साह सुख 147
अनन्त सखियाँ हैं । सुन्दर निकुँज और उसमें सुन्दर सखियाँ , ब्याह मंडप है उसमें सुन्दरतम दुलहा दुलहिन विराजे हैं ….सखियाँ नृत्य कर रही हैं …गायन में मत्त हैं …मधुर स्वर से उनका गान पूरे निकुँज में गूंज रहा है …यहाँ ऐसा लग रहा है कि सब कुछ नृत्यमय हो उठा है …हरिप्रिया आनंदित हैं ….वो इधर उधर देख रही हैं …उनकी सखियाँ नृत्य कर रही हैं …कोई गान कर रही हैं …उन्मत्त हैं सब ।
तभी हरिप्रिया जू ने देखा …मण्डप के बायीं ओर श्रीरंगदेवि जू के पीछे से , शान्त गम्भीर इनकी गुरु सखी श्रीहितू सहचरी जू आकर खड़ी हो गयीं हैं ….और युगल को बड़ी प्रसन्नता से निहार रही हैं ….मुस्कुराते हुए निहार रही हैं …उनकी दृष्टि इधर उधर कहीं नही जा रही ..बस अपने प्राण धन श्रीश्यामा श्याम जू को ही देख देख कर ये प्रमुदित हैं । स्वाभाविक है शिष्य अपने गुरु की ओर ही देखता है …देखना भी चाहिए ….इन्हीं ने तो “इन्हें” दिखाया है ।
अब श्रीहितू सहचरी जू ने अपने नेत्र बन्द कर लिए थे ….उन्हें परम सुख मिल रहा था युगल के विवाह उत्सव में गाये जाने वाले मंगल गीत से । गुरु के भाव शिष्य न जाने तो वो शिष्य ही क्या हुआ ? हरिप्रिया सखी ने तुरन्त जान ली …और मुस्कुराईं ।
श्रीहितू सहचरी जू के मन में प्रिया प्रियतम के गुनगान को और और सुनने की कामना जाग रही है ….क्यों ? इसलिए कि इनका नाम है हित सखी …हित यानि प्रेम …ये कामना इनकी नही है ये कामना प्रिया प्रीतम की ही है …और प्रीतम की इच्छा है कि इस ब्याहुला उत्सव को और और आनन्दमय बनाया जाए …गाया जाए , बजाया जाए …उत्सव ऐसा हो कि बस सब कुछ रस रंग से रँग जाए ….इसलिए …ये जानते ही हरिप्रिया सखी तो आनन्द से भर गयीं ….और बड़े प्रेम से समस्त सखियों से बोलीं ….हमारी प्यारी कामिनी सहचरी जू ने जो कामना करी है ….उसी प्रकार मैं श्रीलाल जू के प्रेम रँग में अपने को और अपनों को रँग दूँगी । लाल जू का सुन्दर शृंगार करूँगी ….और उनका श्रृंगार करके अपने हृदय की कालिमा को मिटा दूँगी ….हरिप्रिया गाते हुये अपनी सखी जू को ये सुना रही हैं । वो ये सुनाते हुए नृत्य भंगिमा के साथ एकाएक बैठ जातीं हैं ….फिर अपने नेत्रों को मूँद लेती हैं ….और कहती हैं ….अपनी प्राणधना स्वामिनी श्रीराधा के नाम का मैं खूब जाप जपूँगी ….ये कहते हुए हरिप्रिया श्रीराधा , राधा राधा राधा ….नाम जपना आरम्भ कर देती हैं …अब तो पूरा निकुँज ही राधा नाम जपने लगा था …..फिर तुरन्त हरिप्रिया कहती हैं ….ना , केवल प्रिया जू का ही नाम नही …”अपने हृदय में प्रिया जू की गर्व रूपी डोरी में लाल जू का नाम पिरोकर भी रखूँगी”….ये कहकर हरिप्रिया अपनी गुरु सखी को देखती हैं ….वो अब मुस्कुरा रही हैं ….अरे ! हरिप्रिया की बातों से तो युगल भी प्रसन्न हो गये हैं । हरिप्रिया उन्मत्त हैं …ब्याह में भी उन्मत्तता नही आयी तो फिर कब आएगी । हरिप्रिया कहती हैं ….पान खाऊँगी ….मुँह रचाऊँगी ….कृष्ण नाम के पान में राधा नाम की मीठी गिलोरी डालकर मुँह रचाऊँगी ….और मत्त हो जाऊँगी । हरिप्रिया की ये कामना सुनकर प्रिया प्रियतम अब हंस पड़े हैं …अनन्त सखियाँ करतल ध्वनि करने लगी हैं ….श्रीरंगदेवि जू नृत्य करती हरिप्रिया के ऊपर पुष्प बरसाती हैं …ये देखकर श्रीहितू सखी बहुत प्रसन्न हो रही हैं । हरिप्रिया आज प्रेम के उन्माद से भर गयीं हैं ….वो कहती हैं ….लाल जू के नामों को प्रेम की डोरी में गूँथ कर उन्हें उस डोरी में झूला झुलाऊँगी । फिर कहती हैं …नही नहीं …लाल जू के नामों को गाती हुयी लाड़ली जू के चरणों की परिक्रमा लगाऊँगी….ये कहते हुए हरिप्रिया वर्तुल में घूमते हुए श्रीहितू सहचरी जू के पास आयीं …और पास आकर बोलीं …अगर ये न कर सकी तो मैं श्रीश्री हितू सहचरी की हरि प्रिया नही कहलाऊँगी । बस , हरिप्रिया वहीं साष्टांग लेट गयीं थीं ।
सब सखियाँ जय जय कार करने लगीं हैं, युगल अतिप्रसन्नता से प्रफुल्लित हो उठे थे ।
क्रमशः …


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