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July 6, 2025 9:40 pm

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श्री जगन्नाथ मंदिर सेवा संस्थान दुनेठा दमण ने जगन्नाथ भगवान की रथ यात्रा दुनेठा मंदिर से गुंडीचा मंदिर अमर कॉम्प्लेक्स तक किया था यात्रा 27 जुन को शुरु हुई थी, 5 जुलाई तक गुंडीचा मंदिर मे पुजा अर्चना तथा भजन कीर्तन होते रहे यात्रा की शुरुआत से लेकर सभी भक्तजनों ने सहयोग दिया था संस्थान के मुख्या श्रीमति अंजलि नंदा के मार्गदर्शन से सम्पन्न हुआ

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!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!-( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )-!! हितमयी सखी की साध !!

!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!-( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )-!! हितमयी सखी की साध !!

!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!

( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )

!! हितमयी सखी की साध !!

गतांक से आगे –

अनन्त सखियाँ दोनों नव दुलहा दुलहन को लाड़ लड़ा रही हैं ….उसी उत्सवमय रस से भीगें निकुँज में चलिए ….जहाँ इन दिनों ब्याह की धूम मची हुयी है ….अनन्त सखियाँ कोई गा रहीं हैं तो कोई नाच रही हैं …कोई अपलक निहार रही हैं ….कोई इधर उधर मत्त हो डोल रही हैं ।

चिन्मय निकुँज है …सब कुछ यहाँ का चिद है …..जड़ सत्ता यहाँ है ही नही । इसलिए आप भी अपने चिद रूप से वहाँ चलिए ……मैं आग्रह इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि वही है अपना देश …वहीं हैं अपने लोग …यहाँ कहाँ स्वार्थ से भरे जगत में अपनापन खोज रहे हो ….चलो ! हाँ अब ठीक है ….अपने स्वरूप में स्थित हो जाओ ….नेत्र बन्द करलो ….भाव वपु आपको मिल ही गया है ….देखिए ….युगलमन्त्र के साथ ही आपका भाववपु स्पष्ट झलक उठा है ….अब चलिए ….

निकुँज में – दिव्य सरोवर हैं ..कई सरोवर हैं ….छोटे छोटे हैं …उनमें कमल खिले हैं …उन्हीं में हंस हंसिनी खेल रहे हैं …..कुंजें हैं ….छोटी छोटी कुंजें हैं …वातावरण मधुर है …यहाँ सब कुछ रसपूर्ण है …अरे ! यमुना की ओर मण्डप बना है ….यही है विवाह मण्डप ….पुष्पों की लड़ियों से , पुष्पों के छप्पर से …ये मण्डप तैयार हुआ है ….पुष्प भी , अनेक पुष्पों का मिश्रण है इस विवाह मण्डप में ….सुगंध फैल रही है ….जिससे पूरा निकुँज ही महक उठा है । उसी मण्डप के चारों ओर सखियाँ खड़ी हैं ….जो आगे हैं वो बैठी हैं ….और जो दूर हैं वो खड़ी हैं । सखियों में जो प्रमुखा हैं ….जिन्हें सखियों की युथेश्वरी कहा जाए ….वो हैं श्रीरंगदेवि जू । वो दर्शन करते हुए मुग्ध हैं इसलिए बस निहारे ही जा रही हैं …..उनके पीछे श्रीहितू सहचरी हैं जो परम शान्त हैं …और शान्त भाव से ये दर्शन कर रही हैं ….उनके पीछे हरिप्रिया सखी हैं ….यही सखी हमारी हैं…यानि हम इन्हीं के चलते यहाँ तक पहुँचे हैं ..अब इस सम्पूर्ण ब्याहुला का दर्शन इन्हीं की कृपा से ही होगा ।

यही तो हमें चार घड़ी से अपनी अभिलाषायें बता रही हैं ….अपनी नही …इनकी अभिलाषा हम सबकी अभिलाषा है ….चलिए ..अभी भी ये अपनी साध बता रही हैं ….गा रही हैं …हरिप्रिया फिर नृत्य करने लगती हैं ……इनकी हर बात पर युगल बहुत प्रसन्न हैं । चलिए …यहीं कहीं बैठ जाते हैं ….किन्तु बैठ जायेंगे तो युगल दीखेंगे नहीं …खड़े रहते हैं । “मैं तो अपनी प्यारी सखी हरिप्रिया जू के पास ही चली गयी …और वहीं बैठ गयी”।

हरिप्रिया जू अपनी साध बता रही हैं …..

                     !! दोहा !!

        हुलसाये हंस हंसनि, अब-करूँ और बनाव।
       तेजपुंज तन नैंन-भरि भूषन अंग लगाव ॥ ॥

                     !! पद !! 

तेज पुंज तन लै तरुनाई , बंक बिलोकनि लाऊँ जू।
कोकिल सुरनि मिलाऊँ ता में , मधुक अंब रस राऊँ जू ॥
कचकपोल-लट-रंग रचाऊँ , नैंननि माहिं भराऊँ जू।
बरन बरन के बेस बनाऊँ , ललना लाल लड़ाऊँ जू ॥
कबहूँ करूँ महावर प्रिय के , पदनख लगि ज्यौ ज्यावैं जू।
कबहूँ बिछिया अनवट कबहूँ , पदसोभा बनि आवैं जू॥
नूपुर पद परिपानन है कें , जेहरि चित्त लगावैं जू।
कबहुँक लहिंगहिं मध्य देसमें , केतकि केलि ललावैं जू॥
कबहूँ किंकिनि करूँ छीन कटि’ कोकिल कलरव मोहैं जू।
कबहुँ चौक हियेकें अंगियनि , कमल-निकुंजनि जोहैं जू॥
कबहूँ बाहु निहारि वारिकें , बाजूबंध सुधारें जू।
कबहुँक चूरा चूरी पहुँची , है करि हैं रस सारें जू॥
करपर कल करफूलन कबहूँ , अँगुरिन मुँदरा मुंदरी जू।
अंतर के अनुराग रंगसों , रँगै हस्तनख-हथरी जू॥
कबहूँ हार माल करि हिय में , करि हूँ दुलरी तीलरी जू।
चौकी चंपकली चौलररी , मोतिन पोतिन बररी जू॥
चंपक बरनि तरननि करि सारी, चंपनि चंपक मोती जू ।
कमल कमोद सुगंध मनोहर , लेत होत जग जोती जू ।।
करनन में आभरन कमल के , झूमक मधुक हलावैं जू ।
लोयन में ह्वै अंजन लगि हैं , खंजन अंग लजावैं जू ।।
सीस फूल लगि माँग मोतिलर , राज चौक दरसाऊँ जू ।
कचननि लाय लटनि लटकाऊँ , झूलन सुख बिलसाऊँ जू ।।
झूलत फूलत फूल फूल ह्वै, कमल कमल सरसावैं जू ।
श्रीहरिप्रिया निहारि रीझिकें , रूप रंग परसावैं जू ।। महा. उत्साह सुख . 150

*मैं देख रही हूँ …..हंस हंसिनी के समान प्रिया प्रियतम मण्डप में विराजे हैं ….सेहरा माथे पर बाँधे ……एक दूसरे को देखकर मुस्कुराए जा रहे हैं …..अनन्त सखियाँ इनको निहार रही हैं …इनके तेजपूर्ण अंग को देखकर सबके मन में साध जाग उठती है ….कि हम भी इनको सजायें ….यहाँ तो इच्छा करने से ही सब हो जाता है …सखियाँ अब अपने नयनों से निहारते हुए सुंदरतम उन श्रीअंगों को सजाती हैं …सुन्दर से सुन्दर आभूषण धारण कराती हैं ….कर रही हैं ।

हरिप्रिया सखी एकाएक हंसते हुए बोल उठती हैं ….”मेरी भी साध है”। तब श्रीरंगदेवि जू हंसकर कहती हैं …ये तो विवाह उत्सव है …यहाँ हम सब सखियों की साध पूरी होगी …हरिप्रिये ! तू बोल …इस निकुँज में रस को घोल । तभी हरिप्रिया युगल सरकार को देखते हुए जब बोलना आरम्भ करती हैं …तब युगलवर भी उसको देखते ही प्रसन्न हो उठे हैं ।

“मेरी भी साध है” , हरिप्रिया कहती हैं …क्या साध है ? सब सखियों के साथ मैंने भी पूछ लिया ।

“कि इनके तेजपुंज अंगकांति को मैं बंक विलोकन से देखती ही रहूँ “।

बंक विलोकन से क्यों ? सीधे क्यों नहीं ? उनकी ही एक सखी ने पूछा ।

हरिप्रिया बोलीं …नही, नज़र चुराकर ही देखूँगी …क्यों की फिर इन्हें संकोच होगा ना , धीरे से हरिप्रिया बोलीं …रस राज राजेश्वर हैं ये …रस की स्वामिनी हैं वो …बस रस में ही डूबे रहते हैं …इसलिए नज़र चुराकर ही देखना उचित होगा । हरिप्रिया की ये बातें निकुँज में रस घोलने लगीं थीं …अब सब सखियाँ आनंदित हो युगल को देख रहीं हैं और हरिप्रिया की बातें सुन रही हैं …..हरिप्रिया सच में ब्याहुला उत्सव की मुखिया हो उठीं थीं ।

गायन करने लगीं ….उच्च स्वर में हरिप्रिया ने गायन आरम्भ किया ….सखियाँ रस सिन्धु में अवगाहन कर रही हैं ….हरिप्रिया के गायन में कोई सखी नृत्य करने लगीं …तो कोई आलाप ।

“मेरी तो यही साध है कि , इसी तरह महामधुर उज्ज्वल प्रेम रस को इसी प्रकार पंचम स्वर में गान करूँ”। गीत गाने के पश्चात् हरिप्रिया प्रसन्नता को ओढ़े हुए बोलीं । अति प्रेम के कारण वो हाँफ रहीं थीं …उनकी साँस से सुगंध प्रकट था …और भाल के स्वेद से उनकी सुन्दरता और बढ़ गयी थी ।

“मैं तो प्रिया जू के सुन्दर उन्नत वक्ष , सुन्दर कपोल , इनकी लट …इनको सजाऊँगीं इन्हें और सुन्दर बनाऊँगीं “। फिर क्या करोगी ? हरिप्रिया कहती हैं …”फिर मैं – नयनों में उस शोभा को बसाकर मुग्ध हो जाऊँगी “ आहा ! ।

ब्याहुला उत्सव में दुलहा दुलहिन को मण्डप में बैठाकर सखियाँ रसमयी चर्चा कर रही हैं ….इससे युगल बहुत प्रसन्न हैं । और इनको प्रसन्नता मिल रही है ..इसलिए सखियाँ ये सब कर भी रही हैं । अब हरिप्रिया ने जब देखा कि …युगल अति प्रसन्न हो रहे हैं तो वो आगे बोलीं …दोनों का मैं विचित्र भेष बनाऊँगी …और दोनों को लाड़ लड़ाऊँगी ।

क्या विचित्र भेष बनाओगी ?

हरिप्रिया बोलीं …..लाल को ललना बनाऊँगी ..और ललना को लाल । ये सुनते ही सब सखियाँ अब तो खुल के हंसने लगीं ……सखियों को हँसता देख प्रिया जू की हंसी नही रुक रही ।

अब हरिप्रिया के सजल नेत्र हो गये ….वो गम्भीर हो गयी …सबने देखा उसकी ओर …वो हाथ जोड़कर प्रिया जू से कहती हैं ….प्रिया जू ! मेरी तो यही साध है कि …आपके चरणों में महावर लगाने के बहाने से बस आपके पद नख के सौन्दर्य को निहारती रहूँ …नही , नही …मैं ही बिछुआ बन जाऊँ और आपके चरणों से चिपकी रहूँ । हरिप्रिया यहाँ नेत्र बंद कर लेतीं हैं …फिर कुछ देर में नेत्र खोल कर कहती हैं ….मैं प्रिया जू की नूपुर बन जाऊँ …और रुन झुन करती हुई लाल जू को सुख पहुँचाऊँ । नही , नही , लाल जू के चित्त का हरण कर लूँ । वाह ! अपनी ही बात पर हरिप्रिया प्रसन्न हो जाती हैं …क्यों की लाल जू मुस्कुरा दिये थे हरिप्रिया की इस बात पर ।

कभी तो मेरी इच्छा होती है …प्रिया जू के मध्य भाग पर अपना ध्यान लगाऊँ ….और रस केलि का अनुपम दर्शन करूँ …..इस “रस रहस्य” पर सब ठहाका लगाकर हंसीं …तो हरिप्रिया हंसती हुयी बोली ….मेरी तो ये भी इच्छा है कि …करधनी बन जाऊँ …और प्रिया जू की क्षीण कटि से लिपट जाऊँ ….ये सुनते ही निकुँज की एक कोकिला बोल उठी …तो हरिप्रिया बोलीं …करधनी में जो छोटी छोटी घंटियाँ होंगी ना …वो बजूँगी ….तो इस कोयली की मधुरता को भी मात कर दूँगी । ये कहते हुए हरिप्रिया कोयली की ओर देख रही थी ….युगल ने भी उसकी ओर देखा था ।

“कभी युगल के हृदय रूपी आँगन में आसन लगाकर बैठ जाऊँगीं और इनकी कमल पुष्पों से सजी सेज पर होने वाली केलि का दर्शन करूँ ..और खो जाऊँगीं “। हरिप्रिया नयनों को मूँद लेती है ।

कभी बाजुबंद बनकर उनकी भुजाओं में बंध जाऊँ , हये सखी ! कभी तो ऐसी इच्छा होती है कि प्रिया जू की चूड़ी बनकर इनकी कलाई से लग जाऊँ ।

कभी अंगूठी बन जाऊँ , कभी रँग बनकर इनके हथेलियों को रंग बिरंगा कर दूँ ….अरी सखियों ! और क्या कहूँ ….मैं तो इनकी साड़ी ही बन जाऊँ …और इनके अंगों के सौरभ का रस लेती रहूँ ।

सखी जू ! लाल जी को देखिये …वो आप से जलने लगे हैं । एक सखी ने विनोद किया ।

हरिप्रिया बोली …जलने दो …स्वामिनी हमारी हैं ….पहले हमारी हैं ।

हरिप्रिया यहाँ कुछ देर तक हंसती ही रहती हैं …सब हंसते हैं ….फिर हंसते हुए ही ये कहती हैं …इनके आँखों का काजल बन जाऊँगी ….मुझे और कुछ नही चाहिए …मैं तो प्रिया जू के माँग में लगने वाली मोती की लर बन जाऊँगी ….वहाँ से लालन को निहारूँगी । बड़ी ठसक से बोल रही हैं यहाँ हरिप्रिया । कभी प्रिया जू के केशों की लट बनकर इनके कपोल को छूती रहूँगी …और ….क्या और ? सखियों ने पूछा तो हरिप्रिया बोलीं ….इनके केशों की लट बनकर झूलती रहूँगी ….हरिप्रिया फिर हंसती हैं ….सखियाँ पूछती हैं …आगे ? हरिप्रिया कहती हैं …इनके कपोल को छूते हुए मैं झूला झूलूँगी तो गर्व से फूल जाऊँगी …मैं फूल बन जाऊँगी …और फूल फूल कर इन “कमल मुख फूल” को और सरस बना दूँगी , सखी ! मैं तो धन्य हो जाऊँगी …और तुम सब को भ्रमर बनाकर युगल के “मुख कमल” के रस का पान कराऊँगी । आहा ! हरिप्रिया के मुख से ये सुनते ही पूरा निकुँज सुख के समुद्र में डूब गया था ।

क्रमशः

: !! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!

( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )

!! भाव विलास !!

गतांक से आगे –

भाव बीज है …प्रेम , भाव-बीज के वृक्ष का फल है । हे रसिकों ! यहाँ जो भी बातें हो रहीं हैं …वो भाव राज्य की बातें हैं …उस निकुँज में भाव के माध्यम से ही पहुँचा जा सकता है ….इसलिए अपने भाव को “रस-चर्चा” से नित्य सींचते रहो , ये अति आवश्यक है । हाँ , अहंकार तो त्यागना ही पड़ेगा । जाति,रूप ,बल और साधना का अहंकार ।

पूर्व में कहा जा चुका है कि …साधना से वहाँ तक न कोई पहुँचा है न पहुँचेगा । साधना क्रिया या कर्म ही है ….भक्ति नही है । हाँ , भक्ति का अंग होने से उसे भक्तिरूप भले कह दो …किन्तु कर्म या क्रिया जिसे आप लोग साधना कहते हो ..वो भाव तो बिल्कुल नही है, भाव एक अलग वस्तु है । इस भाव राज्य में प्रवेश तभी मिलेगा जब आप भाव से भरे होंगे ।

अच्छा एक काम कीजिये …युगल सरकार से अपनत्व स्थापित कीजिए …”मेरे सिर्फ वही हैं”…इस बात को हर घड़ी अनुभव करते रहिए ….ये अपनत्व गहरा जाएगा तो उनके स्मरण मात्र से आपको रस आयेगा ….रस आएगा ….तो आप का ये हृदय भाव से भरने लगेगा । फिर कोई उनका नाम भी ले ले तो आपका हृदय भाव से भर जाये …बस , बस इसी को दृढ़ बनाइये …पक्का कीजिए …फिर देखिए …आपका कैसे निकुँज में प्रवेश होता है ।

हे रसिकों !

निकुँज उपासना वालों के लिए ये बात बहुत महत्व की है – भाव के बिना ये सब व्यर्थ हैं ।

चलिये अब निकुँज में ……वहाँ के ब्याहुला उत्सव में ।


            !! दोहा !! 

रूप रंग परसाय कें, मुकुट बनावत भाल।
मुरलीधर धरि निर्तही, तरु कदंब मिलि बाल ॥

              !! पद !! 

प्रिया कोकनद मुकुट बनावैं मुरली अधर बजावैं जू।
नव नव कला लला गुन गावैं तत थेई तान सुनावैं जू ॥
चरन चरन पर नृत्य दिखावैं बंक चितै बलि जावैं जू।
लंक लचकि लचकें लचकावैं रीझि महारस पावैं जू ॥
गौरांगी को रंग लगावैं उज्जल जोति करावैं जू।
अंग अंग में चौंप चढ़ावैं प्यारी पद सिर नावैं जू॥
मैंन सैंन में ऐंन करावैं रजरंजित पद ध्यावैं जू।
श्रीहरिप्रिया प्रिय रूप बनावैं लखि सोभा बलि जावैं जू ॥ महा. उत्साह सुख. 151

*मध्य में ब्याह मण्डप है ….चारों ओर अनन्त सखियाँ हैं जो इन नव दम्पति को निहार रहे हैं ….कोई गा रहीं हैं तो कोई नाच रही हैं …..दम्पति को चँवर ढुराती हुयी श्रीरंगदेवि जू हरिप्रिया को संकेत करके कहती हैं …..हरिप्रिये ! तू बोल । क्यों बोल ? क्यों की तेरे बोलने से युगल बड़े ही प्रसन्न हो रहे हैं ….तू बोल । हरिप्रिया बैठ गयी थी …वो सखी जू की आज्ञा से फिर उठ गयी ….और हंसते हुए लाल जू को हाथ जोड़कर बोली …..प्रिया जू के रूप-रंग को छूकर हे लाल जू ! मैं आपको उनकी तरह सुन्दर बना दूँगी । ये कहकर हरिप्रिया हंसते हुये बैठ गयी थी ।

अब तो दुलहा सरकार ने ये बात गुन ली …..और तत्क्षण अपनी प्रिया जू को छूआ …लाल जू के स्पर्श करते ही प्रिया जू का कुछ सौन्दर्य लाल जू के हाथों में आगया ….लाल जू ने उसी समय अपने हाथ को सिर में फेरा …सेहरा बंधा हुआ था ….वही सेहरा अब तो दिव्य सुन्दर मुकुट बन गया …उस मुकुट में मोर पंख भी लग गया । रस के रसीले लाल जू ने मुस्कुराते हुए विद्युत गति से प्रिया जू के अधरों में अपने अधर धर दिए ….ये इतनी जल्दी हुआ कि …सखियों को बस ऐसा लगा मानौं “नीले गगन में बिजली चमकी”….सखियाँ कुछ समझ पातीं कि रस से भरी मुरली उनके अधरों में विराज गयी थी । अब तो खड़े हो गये उसी मण्डप पे लाल जू ..और आनन्द में डूबकर मुरली बजाने लगे । ब्याह मण्डप के स्थान पर अब यहाँ सुन्दर घना कदम्ब का वृक्ष था ।

हरिप्रिया सखी चौंक गयीं …..चौंकीं तो सभी थीं किन्तु ये तो उठ गयीं ….और सखियों को कहने लगीं …..अरी देखा तुम लोगों ने ! कैसे रूप-रंग प्रिया जू के अंग से चुराकर लाल जू ने मुकुट बना ली ….और इतना ही नही ….प्रिया जू के अधरामृत का पान करते ही मुरली प्रकटा दी । ये क्या है ? हरिप्रिया इस आनंद के द्वारा चमत्कृत हो उठी थीं….अब ये मुरली और बजा रहे हैं …..ओह ! यही तो है आनन्द का आल्हाद । हरिप्रिया देख रही हैं वो और चकित होकर बता रही हैं….देखो , देखो तो …ये आनन्द सिन्धु श्याम अब अपनी आल्हादिनी को उठा रहे हैं ….क्यों उठा रहे हैं ? इसलिए कि अब ये नाचना चाहते हैं ….आनन्द अपनी सीमा तोड़ चुका है ।

ओह ! ये मुरली की मादकता क्यों फैला दी इस ब्याह उत्सव में ….अरी ! हम तो वैसे ही मरी जा रहीं थीं ….इनके रूप में इतनी मादकता भरी है …कि ज़्यादा पी ली …रूप-माधुरी की मधु ….किन्तु ये लाल जू ने तो मुरली और बजा दी ….अब ये तो अति हो गया । पूरा निकुँज इस रस मधु में मत्त हो उठा था ….तभी प्रिया जू और उठ गयीं …..जै हो , जै हो , जै हो की ध्वनि गूंज उठी थी । हरिप्रिया कहती हैं ….ये देखो ….लाल जू ही पर्याप्त थे अब प्रिया जू भी उठ गयीं ….अब तो सखियों ! हमें डर लग रहा है ….काहे का डर ? हरिप्रिया कहतीं हैं ….कहीं हम इसी रस में खो न जायें …और विवाह का उत्सव यहीं रुक जाए । ऐसा नही होगा ….एक सखी ने कहा …तो हरिप्रिया बोलीं …क्या नही होगा ? देखो ! लाल जू कैसे नृत्य कर रहे हैं …अपनी कमर लचका के कैसा अनुपम नृत्य हैं इनका तो ….हरिप्रिया कहती हैं …नाचते हुये तो इनको कई बार देखा है …किन्तु आज का सा नृत्य तो देखा नही था । ब्याह हो रहा है ना उसी की ख़ुशी में नाच रहे हैं …..एक सखी आनन्द से भरी बोली । हरिप्रिया कहती हैं ….प्रिया जू कैसे हंसते हुए लालन का नृत्य देख रही हैं …और लालन भी नृत्य कर रहे हैं और अपनी प्रिया की बलैया भी लेते जा रहे हैं ….ओह ! अब तो ! जै जै , जै जै …..चारों ओर से ये गूंज चल पड़ी थी । क्यों ? क्यों की अपने प्यारे को तरह भाव में नृत्य करते देख प्रिया जू से भी रहा नही गया और वो भी नृत्य करने लगीं ….हरिप्रिया उछल पड़ती हैं …कहतीं हैं -दो सौन्दर्य के सुकुमार नृत्य कर रहे हैं ..आनन्द और आल्हादिनी नृत्य कर रही हैं …गौर श्याम दोउ नृत्य कर रहे हैं….बोलो – युगल सरकार की ..जय ।
सखियाँ जय जयकार कर रही हैं । अरी देखो …जयजयकार बाद में कर लेना ..पहले इस झाँकी को निहारो तो …हरिप्रिया सबको चिल्लाकर बोली थीं…..कैसे प्रिया जू कमर लचका रही हैं …तो लाल जू भी उनके साथ ही ..वैसे ही कमर मटका रहे हैं ….और दोनों ही मुस्कुरा रहे हैं ….कितने रीझ रहे हैं दोनों , ओह ! तभी लाल जू ने अपनी प्रिया जू को छू लिया ….फिर दूर चले गये …फिर नाचते नाचते पास में आए और फिर छू लिया ….इस बार तो हृदय से ही लगा लिया । ये क्यों कर रहे हैं ? हरिप्रिया कहतीं हैं …..”उज्ज्वल ज्योति करावैं जू”….इनका श्याम रंग है ना …उज्ज्वल रंग को छूकर ये स्वयं श्याम रंग से उज्ज्वल होना चाहते हैं ….यानि सीधी बात ….कि काले से गोरा होना चाहते हैं । अब सारी सखियाँ इस बात पर हंस पड़ी थीं । किन्तु लाल जू का नृत्य अभी रुका कहाँ था …वो नाच रहे हैं ….और नाचते नाचते प्रिया जू के पास आते हैं …और स्वामिनी के चरणों में अपना मस्तक झुका देते हैं ….ये देखकर सखियाँ गदगद हो जाती हैं …..तभी लाल जू प्रिया जू के सामने बैठ गये ….ये क्या कर रहे हैं ? हरिप्रिया ने सबको चुप रहने को कहा ….फिर बोलीं …ओह ! ये तो प्रिया जू के चरणों में त्राटक कर रहे हैं ….और फिर ….अब नेत्रों को बन्द कर लिया …हरिप्रिया कहतीं हैं ….अब ये ध्यान कर रहे हैं ….अपनी प्रिया जू के चरण कमल का ये ध्यान कर रहे हैं । हरिप्रिया ये सब देखकर बलैयाँ लेती हैं ……सखियाँ इस अपार रस वारिधि में डूब रही हैं …..इन्हें बचाने वाला कोई नही है …इन्हें बचना भी तो नही है ।

क्रमशः ….

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