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July 6, 2025 9:27 pm

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श्री जगन्नाथ मंदिर सेवा संस्थान दुनेठा दमण ने जगन्नाथ भगवान की रथ यात्रा दुनेठा मंदिर से गुंडीचा मंदिर अमर कॉम्प्लेक्स तक किया था यात्रा 27 जुन को शुरु हुई थी, 5 जुलाई तक गुंडीचा मंदिर मे पुजा अर्चना तथा भजन कीर्तन होते रहे यात्रा की शुरुआत से लेकर सभी भक्तजनों ने सहयोग दिया था संस्थान के मुख्या श्रीमति अंजलि नंदा के मार्गदर्शन से सम्पन्न हुआ

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महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (058) & (059) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (058) & (059) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (058)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

जो जैसिह तैसेहि उठ धायीं-2

कृष्ण के पास जाना धर्म नहीं है- यह दुनिया में कोई बोल नहीं सकता, वेद भी नहीं बोल सकता, श्रुति भी नहीं बोल सकती। बोले- नहीं, हमको छोड़कर जाना धर्म नहीं है। गोपी ने कहा- मैं जहाँ जा रही हूँ तुमको अपने साथ लिए जा रही हूँ, मुझे तुम वहाँ मिलोगे? कहकर गोपी भागी।

ता वार्यमाणाः पितृभिः भ्रातृबन्धुभिः- पिता ने पकड़ा। पिता ने स्नेह और वात्सल्य से वारण किया। बोले-बेटी! रात के समय घर से बाहर नहीं जाना, कहीं बिच्छू न काट ले। पिता को शंका नहीं थी अपनी बेटी पर! यह नहीं समझो कि वह समझता था कि हमारी बेटी बाहर जाकर कहीं गलत काम करेगी। माँ- बाप प्रायः अपनी बेटी-बेटों पर इतना विश्वास करते हैं कि देखकर दंग रह जाना पड़ता है, और बेटी-बेटा हमेशा से ही माँ-बाप को धोखा देते आये हैं और माँ-बाप हमेशा से ही विश्वास करते आये हैं। तो, गोपी ने कहा- पिताजी, तुम्हारा आशीर्वाद, तुम्हारा स्नेह, तुम्हारा वात्सल्य हमारी रक्षा करेगा। जहाँ भी जायेंगी वहाँ हमारी रक्षा करेगा। भ्रातृबन्धुभिः- भाई आये; बोले-बहिन। अकेले-अकेले मत जाओ, मैं साथ चलूँ? गोपी बोली- अभी बोलो मत। बन्धुभिः माने परिवारवाले लोग आये, बोले अरे- सुनो, कहाँ जाती हो? पर वहाँ सुनने वाला कौन था।

गोपी का चित्त तो गोविन्द ने चुरा लिया था।
ता वार्यमाणाः गोविन्दापहृतात्मानो न न्यवर्तन्त मोहिताः ।

वह महाराज, चोर-जार शिखामणि, गोविन्द जिसका नाम है उसने गोपी का चित्त चुरा लिया था। असल में ‘गोपेन्द्र’ जो शब्द है, वही लौकिक व्याकरण से गोविन्द बनता है। वैदिक व्याकरण से गोविन्द बनता है। वैदिक व्याकरण से तो गोविन्द बनता है- इन्द्र का इन्द हो गया। गवीन्द्र-गवेन्द जैसे होता है न, वैसे गोविन्द हुआ। पर उसकी भी व्युत्पत्ति निकालें। गां विन्दति इति- गायों के पीछे-पीछे चलता है, इसलिए गोविन्द है। ‘गोभिः विहिते इति’ वेदवाणी के द्वारा प्राप्त होता है, इसलिए गोविन्द है। गोविन्द शब्द का बहुत मजेदार मतलब है। यह जो वेदान्तियों का ब्रह्म है वह तो स्वयं है, वह किसी से मिलता नहीं द्रष्टा जो है वह विवेक से मिलता है; बुद्धि से विवेक कर लो तो द्रष्टा जो है वह विवेक से मिलता है; बुद्धि से विवेक कर लो तो द्रष्टा मिलेगा। सगुण भगवान् जो है वह भक्ति से, प्रेम से मिलता है।+

स्वर्गादि जो हैं वे धर्म से मिलते हैं; उनमें भी कोई शरीर से मिलता है, कोई मन से मिलता है। परंतु हमारे जैसा ईश्वर दुनिया में किसी ईश्वरवादी के पास नहीं है। हम चुनौती देकर बोल सकते हैं परंतु किसी धर्म पर आक्षेप नहीं करते हैं, भला! ना मुसलमान के पास ऐसा ईश्वर है, ना ईसाई के पास, ना बौद्ध के पास, न जैन के पास, न सिख के पास और न तो पारसी के पास! जो हैं वे माफ करें। हमारे पास ईश्वर, ऐसा ईश्वर है जो इन्द्रियों से मिलता है। इसको बोलते हैं- गोविन्द हमारे यहाँ तो जो अधिष्ठान है सोई अध्यस्त है। जिनके मत में केवल आश्रय ही आश्रय ब्रह्म है, उनके मत में इन्द्रियों से वह कैसे मिलेगा? निराकार-ही-निराकार है तो इंद्रियों से कैसे मिलेगा? अन्तर्यामी ही अन्तर्यामी है तो इंद्रियों से कैसे मिलेगा? जो इंद्रियातीत है वही इंद्रियाग्रह्या है- यह हमारा सिद्धांत है, बिलकुल वैदिक, औपनिषदिक, स बाह्याभ्यनतरोह्यजः बाहर भी वही, भीतर भी वही, गोविन्द माने यही है कि अरे! आओ, आओ! हम तुमको ऐसा ईश्वर देते हैं जिसको तुम आँख से खूब देख लो, नाक से सूँघ लो, त्वचा से छू लो, जीभ से चाट लो और कलेजे से लगा लो, और कान से सुन लो, उसकी नाक से नाक सटा लो, और उसकी साँस से साँस मिला लो, उसके शिर से शिर टकरा लो, ऐसा ईश्वर, ऐसा ईश्वर सिर्फ हमारे पास है।

यह भागवत- धर्म की महिमा है। और जो लोग वेदान्त को ठीक-ठीक समझते हैं, केवल व्यतिरेक दृष्टि में जो फँसे हुए नहीं हैं कि ये नहीं- ये नहीं; जिनको अन्वय दृष्टि प्राप्त है, जिनको सर्वात्म-बोध है वे जानते हैं कि- यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः। जहाँ-जहाँ मन जाता है वहाँ-वहाँ समाधि है; यद् यद् पश्यति चक्षुर्भ्यां तद् तद् ब्रह्म- आँख से जो-जो दिखता है सो ब्रह्म है। यह लो ब्रह्म- साँवरा ब्रह्म, सलोना ब्रह्म, सुरीला ब्रह्म, मुस्कानवाला ब्रह्म, चितवनवाला ब्रह्म, कुण्डलवाला ब्रह्म, बुलाकवाला ब्रह्म, तिलकवाला ब्रह्म, काले बादालों वाला ब्रह्म, मयूर मुकुटवाला, बाँसुरीवाला ब्रह्म, पीताम्बरवाला ब्रह्म, यह ब्रह्म, यह गोविन्द जिसका नाम है, इसने क्या किया? कि अपहृतात्मानः-

गोविन्दापहृतात्मानो न न्यवर्तन्त मोहिताः ।

गोविन्द ने ऐसा ठगा महाराज। और ठग ही नहीं लिया, लूट लिया। अपहृत शब्द का अर्थ है लूट लिया। देखो- भगवान् को जब पालन-पोषण करना होता है तब राजकुमार बनते हैं और ज्ञानोपदेश करना हुआ तो ब्राह्मण बनते हैं- कपिल बन गये, दत्तात्रेय बन गये, व्यास बन गये, शुकदेव बन गए और जब लूटमार करना हुआ लोगों का मन लूटना हुआ, तो महाराज अहीर बन गये। यह अहीर का जो है न, वह कैसा है कि- कढ़ि गयो अबीर पै अहीर को कढ़ै ना- अबीर तो आँख से निकल भी जाय, पर यह अहीर आँख से नहीं निकलता। तो आओ-नारायण-गोविन्दापहृतात्मानः, लूटा भी क्या?++

हीरा-मोती नहीं लूटता है, देह नहीं लूटता है, यह तो मन लूटता है, यह तो आत्मा लूटता है। यह तो सारे अन्तःकरण को ही, इन्द्रिय समूह को ही, मनोवृत्ति- समूह को ही, अपनी ओर खींच लेता है। अब तो महाराज! मोहिताः- मोहित हो गयीं। मुह् वैचित्ये- गोपियों का चित्त विचित्त हो गया पहचाने ही नहीं। बाप बोल रहा है कि क्या बोल रहा है, सुनायी नहीं पड़ा; यह पति बोल रहा है। कौन है? यह पति है, पहचान में नहीं आया, मानो पति से, पिता से, भाई से कोई जान-पहचान ही न हो।
मोहिताः मा अहितं याषाम्- मोहित माने जिसमें अहित नहीं है, अहित नहीं है माने ये माँ है, ये बाप हैं, ये भाई हैं, ये पति हैं, पहचान का ही लोप हो गया। और ‘न न्यवर्तन्त’ और बात सुनने के लिए भी खड़ी नहीं हुई, लौटी नहीं। परंतु कोई-कोई ऐसी थी, जो महाराज! रुक गयीं, विवश थी-

अन्तर्गृहगताः काश्चिद् गोप्योऽलब्धविनिर्गमाः।
कृष्णं तद्भावनायुक्ताः तध्युर्मीलितलोचनाः ।।

कहते हैं जो पूर्वजन्म की योगिनी थीं, उनका वैसा ही अभ्यास रहा। गाँव की ग्वालिनें जो गाय दुह रही थीं या जो खुले कमरे में थीं, आँगन में थी, जिनका रास्ता खुला हुआ था, वे तो चली गयीं और कोई तो बन्द कमरे में थी- अंतर्गृहगताः काश्चिद्; अरे, उनको इतना भी छेद बाहर निकलने को नहीं मिला कि चिड़िया बनकर उड़ जायँ- अलब्धविनिर्गमाः। ‘वि’ माने होता पक्षी, ‘वि’ माने शकुनि, ‘अलब्धविनिर्गमा’ जिस रास्ते से चिड़िया उड़कर, निकलकर उड़ जाती थीं, वह झरोखा, वह खिड़की भी उनको नहीं मिली, रास्ता दीखना ही बन्द हो गया, तब ‘निमीलितलोचनाः।’ ये आँख अगर भगवान् से अलग ले जाती हों तो आँख नहीं चाहिए, ये ईश्वर को देखने के लिए बनी हैं। परंतु प्रेम होवे तन न! तब क्या किया? कि- ‘मीलितलोचना, लोचनं ज्ञानं’- उनका ज्ञान जो है वह लुप्त हो गया, और ‘तद्भवनायुक्ताः कृष्णं दध्युः’ कृष्ण का ध्यान किया। भला गोपी को इतनी जल्दी ध्यान कैसे लगा गया? तो तद्भावना, कृष्णं दध्युः यतः तद्भावनायुक्ताः- हमेशा से भावना तो वही थी। कृष्ण की भावना, कृष्ण की भावना; जिसके प्रति भावना होती है उसका ध्यान लग जाता है। ध्यान लगने का यही तरीका है।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (059)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

जो जैसिह तैसेहि उठ धायीं-2

एक ने पूछा- जब माला फेरने बैठते हैं तब कृष्ण का ध्यान नहीं आता। तब किसका आता है? कहा- बेटे का आता है। वाह भाई वाह! कृष्ण का नहीं आता है, बेटे का ध्यान आता है, क्यों? तो देखो, दुनिया में जिससे प्रेम होता है, जिससे संबंध होता है, उसी का ध्यान आता है, यह नियम है। तुम्हारा कृष्ण से कोई संबंध नहीं है, उससे प्रेम नहीं है, पुत्र से प्रेम है, संबंध है इसलिए हाथ में माला होती है कृष्ण की ध्यान आता है बेटे का। देखो आत्मा, ब्रह्म तो संबंधरहित है परंतु कृष्ण की जो प्रियता है वह सम्बन्धयुक्त है। तुम्हारे मन में कृष्ण के संबंध का बन्धन है कि नहीं? अरे, तुम्हारे सैकड़ों रिश्तेदार, नातेदार हैं, उनमें कोई एकाध रिश्ता कृष्ण से भी तो जोड़ो-

तात मात गुरु भ्रात सखा तू सब विधि हितु मेरो,
तोहि मोहि नाते अनेक मानिये जो भावे ।
ज्यों त्यों तुलसी कृपालु चरन शरन पावे ।

देखो, जब तक यह शरीर है और जब तक दिल है, इसको मेरा करके रखोगे तो रोओगे और इसको तेरा करके छोड़ दो तो सुखी रहोगे। भक्ति का यही रहस्य है। मैंको काटता है ज्ञान और मेरे को काटती है भक्ति। दुनिया में जो मेरापन है- यह मेरा, यह मेरा, वह मेरा, इसका जगह भक्ति बताती है- मेरा ईश्वर; ईश्वर के सिवाय मेरा और कोई नहीं है, भगवान् मेरा, नारायण मेरा, लो, बन गयी बात। यही भक्ति है। ईश्वर के प्रति अतिशय ममत्व का नाम भक्ति है-

सम्यग् मश्रिणित स्वान्तो ममात्वातिशयान्तकः ।
भावः स एव सान्द्रात्मा बुधैः प्रेमा निगद्यते ।। +

विद्वान लोग, प्रेम किसको कहते हैं? एक तो दिल को खुर्दरा मत रखो, चिकना कर दो, स्निग्ध बना दो, मश्रृण कर लो। तुम्हारा दिल ऐसा हो जाय कि इसको देखकर भगवान् के मन में ऐसा होने लगे कि इसको खा जावें, इतना मीठा दिल होना चाहिए कि मिठास ही मिठास दिल में होवे, कड़ुवाहट न हो। दुनिया में अगर किसी को देखकर तुम्हारा दिल कड़वा हो जाता है तो भगवान् को कड़वी चीज नापसन्द है। अगर तुम्हारा दिल हमेशा मीठा-मीठा रहता है तो तुम्हारे मीठे दिल को भगवान् अपना भोग्य बना लेंगे। वे जब तुम्हारे दिल में रूप होगा तो उसको देखेंगे, रस होगा तो चखेंगे और गन्ध होगा तो सूँघेगे और शब्द होगा तो सुनेंगे?

तुम्हारे दिल में जो होगा, उसको भगवान् अपना भोग्य बना लेंगे। लेकिन पहले दिल को मीठा कर लो। देखो गन्ना के देश में पैदा होते हैं भगवान्- आपको मालूम है कि नहीं? जिस देश में गन्ना ज्यादा पैदा होता है उस देश में भगवान् के अवतार ज्यादा होते हैं। आप पता लगा लेना, गन्ना कहाँ ज्यादा पैदा है। दूसरे प्रदेशों में आचार्य लोग जो वैराग्यग्रस्त लोग हैं, वे पैदा होते हैं- जैसे रामानुजाचार्य, बल्लभाचार्य, निम्बार्काचार्य; लेकिन भगवान् वहाँ पैदा होते हैं जहाँ खूब गन्ना पैदा होता हो, गुड़ हो, शक्कर हो; उनको खिलाने के लिए शक्कर चाहिए; कटु वाक्य भगवान् को पसन्द नहीं। मिष्ट, मधुर वाक्य चाहिए उनको। दिल को खुब सोंधी- सोंधी, मीठी चासनी बनाकर रखो और उसमें सबको डुबाते जाओ। भगवान् को चाहिए प्रेम- भोग, सूखा- योग नहीं और श्रीकृष्ण के प्रति ममता भाव ही प्रेम है।

तो कृष्ण का ध्यान, भगवान् का होगा यदि एक तो भगवान् के साथ सम्बन्ध बनाओ और दूसरा उनके साथ प्रेम जोड़ो। तद्भावनायुक्ताः- गोपी के मन में भावना है- तद्भावभावानुकृताशयाकृतिः- कृष्ण की भावना करते-करते गोपी का दिल हो गया कृष्णाकार। जब आँख बन्द करके उसने देखा तो कृष्ण वहाँ मौजूद! वे तीन टेढ़े टेढ़ हैं न। कुब्जा को देखते ही जो कृष्ण मोहित हुए उसका कारण था कि बोले- जैसा मैं ऐसी यह। यह भी त्रिवक्रा है और मैं भी त्रिवक्र हूँ। रूप का भी मेल खा गया और नाम का भी मेल खा गया और नाम का मेल तो खाता ही था कुब्जा और कृष्ण दोनों क- कारर से ही प्रारम्भ होते हैं। ज्योतिष की गणगौरी तो बैठ गयी न। चलो टेढ़े-टेढ़े का अच्छा योग है।++

त्रिवक्र भगवान टेढ़े क्यों हैं? भगवान टेढ़े क्यों हैं कि प्रेम सीधा नहीं चलता। प्रेम की गति टेढ़ी है और कृष्ण प्रेम हैं। अतः टेढ़े हैं! अच्छा और देखो श्रृंगार का रंग साँवरा है; श्रीकृष्ण भी साँवरे हैं। और भक्त बिचारे सीधे हृदय के, सरल-सरल, उनमें से टेढ़े-टेढ़े घुस जाते हैं, तो अटक जाते हैं। सीधी में टेढ़ी चीज डाल दो तो अटक जाएगी, निकलेगी नहीं। भगवान भी यदि सीधे होते तो जल्दी से निकल जाते; इसलिए उन्होंने अपने को टेढ़ा बना दिया। अब गोपी के इस ध्यान का फल क्या हुआ नारायण, पहले तो ऐसा लगा कि श्रीकृष्ण से हमारा विरह है-

दुःसहप्रेष्ठिविरह तीव्रतापधुताशुभाः ।
ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेष निर्वृत्याक्षीणमंगलाः ।।
तमेव परमात्मानं जारबुद्धयापि संगताः ।
जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः ।।

यह भगवान का जो विरह है वह सामान्यतः किसी को फुरता नहीं है; क्योंकि यदि स्फुरता हो तो उसका दुःख भी स्फुरित होगा और अगर विरह का दुःख होगा तो संसार से त्याग, वैराग्य करना नहीं पड़ेगा, अपने काम आप हो जाएगा। ये जो वेदान्ती लोग विवेक करते हैं- ‘अत्यन्तमलिनो देहो-देही चात्यन्तनिर्मलः।’ – देह बड़ा मलिन है और देही अत्यन्त निर्मल है; बिचारे विवेक भी करते हैं और फिर देह को ही मैं मानकर सब व्यवहार करते हैं लेकिन अगर भगवान से प्रेम हो जाए तो देह के बारे में सोचना नहीं पड़ेगा। चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि अगर हमसे कोई कहे कि तुम भगवान का समागम चाहते हो कि विरह? तो हम कहेंगे कि हमको विरह चाहिए। अरे भलेमानुस विरह क्यों माँगते हो? तो बोले- देखो समागम में तो प्रेमास्पद अकेला रहता है परंतु विरह में तो वह सब जगह दिखाई पड़ता है। वृत्ति तदाकार हो जाती है।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

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