महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (060)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
जो जैसिह तैसेहि उठ धायीं-2
संगमविरहविकल्पे वरमिह विरहो न संगमस्तस्य
यहाँ है तो, ‘तस्याह’ लेकिन चैतन्य महाप्रभु ने इसको तस्य कर दिया है। तो हम सुना रहे हैं कि आप आस्तिक हैं, सभी देवी-देवता को हाथ जोड़ लेते हैं- कृष्ण का मंदिर पड़ गया, हाथ जोड़ लिया, कहीं भूत-भैरव का मंदिर पड़ गया उसको भी हाथ जोड़ लिया; कभी दुर्गा का मंदिर पड़ा उसको भी हाथ जोड़ लिया। आस्तिकता की बात दूसरी है। लेकिन जब दिल में भगवान् का प्रेम आता है तो एक-एक क्षण का विरह कल्प के समान हो जाता है। जिसके हृदय में विरह की फुरना नहीं हुई, उसके अंदर संयोग का सुख भी नहीं आयेगा। जिसके बिना हम दुःखी नहीं होते उसके लमिलने पर सुखी कहाँ से होंगे? अगर फोड़े का दर्द नहीं हुआ तो उसके फूटने पर सुख क्या मिलेगा?
शान्ति कहाँ से मिलेगी? मजा क्या आवेगा? यह तो जिसको दुःख है उसी को सुख होता है। भगवान् का विरह जिसको जब जगता है और सताता है तो कैसा होता है-
उत्तापीपुटपाकतोऽपि गरलग्रामादपि क्षोभणः
दम्भोलेरपि दुःसहकटुरलं हृन्मग्नशल्यादपि ।
प्रौढ़ः तीव्र विशूचिका निचयतोऽप्युच्चैर्ममायं बलिः
मर्माण्यद्यभिनत्ति गोकुलपतेर्विश्लेषजन्माञ्वराः ।।
जब विरह का विष व्यापता है तब मिलन अमृत बनकर आता है-
मैं बौरी ढूँढ़न चली रही किनारे बैठ ।
तो, गोपी को ध्यान लग गया और ध्यान में भगवान् से ऐसी मिली कि उनको पान खिलावे, उनके बाल सँवारे, उनका पीताम्बर सुधारे, उनके हृदय पर अपना सिर रख दे, ऐसी मिली कि उसको दर्शनसमानाकार वृत्ति हो गयी, भूल गया कि ध्यान है, उसका ख्याल हुआ कि हम सचमुच मिल गये भगवान् से।+
जो जैसेहि तैसेहि उठि धायीं-3
*प्रेम मे विरहजन्य ताप से मोक्ष
*दुःसह श्रेष्ठ…………… जारबुद्ध्यापि संगताः*
दुःसहप्रेष्ठविरह तीव्रतापधुताशुभाः ।
ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेष निर्वृत्या क्षीणमंगलाः ।।
तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्यापि संगताः ।
जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः ।।
शिष्टास्तव यदि सखे बन्धुसंगेऽस्ति रंगः- यदि तुम्हें दुनियादारी की रंगीनी देखनी है, उसका मजा लेना है, तो कृष्ण के ऊपर नजर मत डालना। यह तो इसीलिए अहीर होकर आया कि नाचने में शर्म नहीं आवेगी- बाँसुरी बजावेंगे, नाचेंगे, जामेय पहनेंगे, कम्बल रखेंगे कन्धें पर, लाठी रखेंगे हाथ में, सोने का नहीं मोर-पंख का मुकुट बाधेंगे, मार-पीट की भी जरूरत पड़ेगी तो घड़ा फोड़कर, कपड़ा फाड़कर भी अपनी ओर खींचेगें;
यह कृष्ण तो खींचने के लिए ही आया है।
गोविन्दापहृतात्मानो नन्यवर्तन्त मोहिताः ।
गोपियाँ नहीं लौटीं, नही लौटी। उसी बीच में देखते हैं कि इस जन्म के जितने प्रेम के प्रतिबन्ध थे अर्थ के, भोग, के धर्म के- सब पर गोपियों ने विजय प्राप्त कर ली। पर कुछ गोपियाँ ऐसी थीं जिनके पूर्व प्रतिबन्धक विद्यमान थे; सांसारिक प्रारब्ध उनका बड़ा प्रबल था। कर्म-भोग के संचित और क्रियमाण कट भी जायँ किन्तु प्रारब्ध का तो- भोगादेव क्षयः- बिना भोग के क्षय होता नहीं- नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि। अपने प्रारब्ध कर्म का फल तो भोगना ही पड़ता है। तो अभी जिनके कर्म शेष थे, भोग शेष थे, इनको कई तरह के दुःक भी भोगने बाकी थे और कई तरह के सुख भी भोगने बाकी थे और जब तक संसार में सुख-दुःख का चक्कर लगा है, जब तक प्रबल पूर्व कर्म प्रतिबन्धक हैं, तब तक मनुष्य ईश्वर की ओर कैसे बढ़े? उसका भी रास्ता बताया-
अन्तर्गृहताः काश्चिद् गोप्योऽलब्धविनिर्गमाः ।
कष्णं तद्भावनायुक्ता दध्युर्मीलितलोचनाः ।।
दुःसहप्रेष्ठविरह तीव्रतापधुताशुभाः ।
ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेषनिर्वृत्या क्षीणमंगलाः ।। ++
भक्त लोग जब भक्ति बल का निरूपण करते हैं तो कहते हैं कि देखो हमारी भक्ति तुम्हारे ज्ञान बलवान है। कैसे, क्या प्रमाण? बोले- ज्ञान से सब कर्मों का क्षय हो जाता है, लेकिन प्रारब्ध का क्षय नहीं होता। शंकराचार्य भगवान् भी- ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते- इसके भाष्य में लिखते हैं- सामर्थ्याद् येन कर्मणा शरीरं आरब्धं तत् प्रवृत्तिफलत्दवाद् उपभोगेन एव क्षीयते। ज्ञान की आग जब जली है तब सब कर्मों को भस्म कर देती है लेकिन प्रारब्ध को भस्म नहीं करती, क्योंकि वे तो फल देने के लिए प्रवृत्त हो चुके हैं अतः उनका भोगकर ही क्षय होगा। लेकिन, जब प्रेम की आग जलती है तो प्रेमाग्नि बड़ी प्रबल है। भागवत के तीसरे स्कन्ध में इसका वर्णन है-
देवानां गुणलिंगानां आनुश्रविककर्मणाम् ।
सत्त्व एवैक मनसो वृत्तिः स्वाभाविकी तु या ।।
अनिमित्ता भागवती भक्तिः सिद्धेर्गरीयसी ।
जरयत्याशु या कोशं निगीर्णमनलो यथा ।।
जैसे खाये हुए को जठराग्नि पचा देती है, ऐसे भक्ति की आग जब हृदय में जलती है, तो पंचकोष को भस्म कर देती है और शुद्ध आत्मा परमात्मा से मिल जाती है। श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कन्ध में कपिल-देवहूति के सम्बंद में यह बात आयी है- ‘जरयत्याशु या कोशं निगीर्णमनलो यथा।’
अब आपको उसका नमूना दिखाते हैं। घर का दरवाजा बन्द है और वह ग्वाला (गोपी का पति) भी महाराज बड़ा प्रौढ़ था। दरवाजे पर बैठ गया। बोला- देखो, मैं कोई ऐरा-गैरा-नत्थूखैरा नहीं हूँ। जैसे सब गोपियाँ चली गयीं, वैसे यदि तू भी चली गयी तो हड्डी-पसली तोड़ दूँगा। किवाड़ी बन्द करके, ताला बन्द करके बैठ गया। खिड़की भी बन्द कर दी, चिड़िया उड़ने भर की जगह भी निकलने को नहीं मिली। गोप्योऽलब्धविनिर्गमाः। अब देखो कर्म जलाने की प्रक्रिया चली। यह भागवत-कृपा है। इसका नाम पुष्टि है, इसका नाम मर्यादा नहीं है। यह भगवान् की ओर से भक्त को सहायता मिल रही है। गोपियों ने क्या किया- तद्भावना युक्ताः हृदय में श्रीकृष्ण की भावना से युक्त हो करके मीलितलोचनाः आँख बन्द करके बैठ गयीं। *‘मीलितलोचना’ शब्द जा मामूली सा है, परंतु इसका आशय यह है कि गोपी कहती हैं कि यदि इन आँखों से श्रीकृष्ण का दर्शन नहीं होता है, तो फिर कोई दूसरी चीज भी हम नहीं देखेंगी।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹


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