] Niru Ashra: 🙇♀️🙇♀️🙇♀️🙇♀️
!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 142 !!
सूर्यग्रहण के दिन….
भाग 2
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आइये ! रुक्मणी कान्त ! आओ ! सत्यभामा के प्राण प्रिये ! कैसे हो ? इतनी रानियों को सम्भालना पड़ता है ……….मेरे प्रिय ! थक जाते होगे ना ! वो उल्लास वो उमंग जो आपके मुखारविन्द में निरन्तर दिखाई देता था ………..पर इधर ऐसा कुछ दिखाई नही देता ………….थके से …..हारे से लग रहे हो …………..क्या बात है !
श्रीराधारानी नें आज सब कुछ कह दिया था ।
तुम नही हो राधे ! ……तो कृष्ण में उल्लास और उमंग कहाँ से आएगा !
इतना ही कहा था कृष्ण नें ……….कि श्रीराधा तो उस सरोवर में ही मूर्छित हो गयीं ……………..ये क्या ! कृष्ण नें तुरन्त अपनी गोद में लिया श्रीराधा को …….और बाहर आगये ।
अष्ट सखियाँ नें देखा …….साँसे बिल्कुल बन्द हो चुकी थीं श्रीराधारानी की ………..धड़कनें नही चल रही थीं ।
ललिता सखी को आवेश आगया ……….हे श्याम सुन्दर ! ये क्या किया तुमनें ? हमारी प्राणेश्वरी श्रीराधा को तुमनें मार दिया !
तुम्हारा मंगल हो ……..हमारी श्रीराधा को जीवित कर दो ………..ललिता सखी क्रोधित हो उठी थीं …………हे श्याम सुन्दर ! हम अपनी श्रीराधा के साथ वापस वृन्दावन जाना चाहती हैं ……….इसलिये इन्हें आप जीवित करो …………ललिता सखी बारबार बोल रही हैं ।
अगर तुमनें ऐसा नही किया ………तो मैं कह रही हूँ स्त्री हत्या का पाप हे कृष्ण ! तुम्हारे ऊपर लगेगा …………इतना कहकर चुप हो गयीं थीं ललिता सखी ।
मन्द मुस्कुराये कृष्ण ……ललिता की बातें सुनकर ………
वाह ! ललिता सखी ! वाह ! क्या राधा मेरी नही है ?
क्या राधा की मुझे चिन्ता नही है ………जो इतनें कड़े शब्दों का प्रयोग किया मेरे लिए ! पर कोई बात नही …………मुझे अच्छा लगा कि स्वामिनी श्रीराधारानी के प्रति आप लोगों का कितना अद्भुत प्रेम है …..दिव्य प्रेम है …………मुझे अच्छा लगा ।
क्रमशः …..
शेष चरित्र कल –
🌺 राधे राधे🌺
Niru Ashra: आज के विचार
!! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख”- 31 )
गतांक से आगे –
॥ पद ॥
लाड़िली-लाल लड़ावत छिन-छिन । चित में चोंप बढ़ावत दिन-दिन ।
रीझि रहसि निधि पाई जिन-जिन। उर अभिलाख पुराये तिन-तिन ॥
प्रीतम प्रानप्रिया रस राँची। मोहन मदन मोद में माँची ॥
काहू बिधि कर नाँहिन काँची। सकल कला संपूरन साँची ॥
अहल महल चहलें रस लागी । भावनि भरी खरी बड़भागी ॥
विपुल पुलक प्रेमावलि पागी । लाखनि अभिलाखनि अनुरागी ॥
चौथी सखी विसाखा नामुनि । जाननिहारि जुगल हिय की गुनि ॥
माधवि आदि आठ इनिकें पुनि। आठ आठ इनिकें सोऊ सुनि ॥
*ये कौन हैं ? चन्द्र से आनन वाली , ये सखी कौन हैं ?
ये हैं प्रिया जी की अष्ट सखियों में चौथी सखी …श्रीविशाखा सखी जू ।
हरिप्रिया जी ने बताया ।
अद्भुत रूप लावण्य था श्रीविशाखा जी का । और इनकी स्नेह भरी आँखें । हृदय में प्रेमानन्द का सागर लहरा रहा था ….किन्तु गम्भीर थीं , इनकी गम्भीरता सागर की गम्भीरता थी …मुझे ऐसा लगा कि जैसे सागर उछलता नही है …जल कितना भी हो किन्तु अगाधता का वो प्रदर्शन नही करता ….ऐसे ही ये विशाखा सखी जी थीं …..इनके अंग अंग से प्रेम की सुवास प्रकट हो रही थी …..क्षीण कटि में कौंधनी , सुवर्ण की कौंधनी कितनी शोभायमान थी । वो इधर उधर देख रहीं थीं ।
गम्भीर हैं ना श्रीविशाखा सखी जी ? हरिप्रिया जी ने मुझ से मुस्कुराते हुए पूछा था ।
हाँ …मैंने उत्तर दिया ।
देखो , प्रेम अगाध है इस निकुँज में …..निकुँज के इस अगाध-अनन्त प्रेम को पचाना सबके वश की बात नही है । ये तो सखियाँ ही हैं ….जो पचाकर चलती हैं । नही तो तुम सोचो …युगल के दर्शन करते ही रोमांच होता है ….अरे दर्शन करते नही …युगल के रूप माधुरी के चिन्तन करते ही ….फिर उनके दर्शन , और अत्यंत निकट से दर्शन ! फिर उनकी सेवा ! हरिप्रिया जी बोलीं …ये सामान्य बात नही हैं …सेवा के समय रोमांच नही होना चाहिए ….सावधान ! रोमांच का होना स्वसुख में डूबना है…किन्तु यहाँ स्वसुख को अपराध में गिना जाता है …..यहाँ तो युगल के सुख को ही प्रमुखता है ….अपना सुख जैसा कुछ नही । ये सबसे ऊँचा प्रेम है ….हरिप्रिया जी बता रहीं थीं । अपने आपको सावधान रखती हैं ये सखियाँ । गहन प्रेम है इनका । और ये श्रीविशाखा सखी जी तो प्रेम को गाढ़ करके हृदय में ही पचा गयीं हैं । सारे रसों को पचा कर गम्भीर हो गयीं हैं ….किन्तु ये गम्भीरता युगल के लिए नही हैं …वहाँ तो ये अत्यन्त सरस बनकर सेवा में तत्पर रहती हैं । ये अपनी सखियों को भी गहन प्रेम में डुबोकर रखती हैं । ये श्रीविशाखा जी युगल के अंतरमन को जानती हैं ….और जो उनको चाहिए ये उसी समय प्रदान करती हैं । मैं दर्शन कर रहा था श्रीविशाखा सखी जी के । अभी भी देखो ….ये गम्भीर होकर युगल के विषय में ही सोच रही हैं ……मैंने देखा …..फल तोड़ रही हैं । तोड़ नही रहीं …पहले फलों को देखती हैं …..जब उन्हें लगता है – पक्व फल हैं , मधुर रस भरे फल हैं ….तब वो तोड़ रही हैं । उत्थापन के लिए । युगल जागेंगे तब उन्हें फल भोग लगाया जाएगा …ये उसी सेवा में लगी हैं …पूर्ण तन्मयता से । ये अत्यन्त आह्लादकारी हैं ..किन्तु अपने आह्लाद को छिपा कर रखती हैं । ये छिपाना भी इनकी साधना है …नही तो आह्लाद के प्रकट होने से सेवा में विघ्न होगा ना ! हरिप्रिया जी की बातों को सुनकर मैं श्रीविशाखा सखी जू की ओर ही देख रहा था ।
ये कच्ची सेवा नही करतीं ……..कुछ देर बाद हरिप्रिया जी बोलीं ।
तभी ….अष्ट सखियाँ खिलखिलाती …..इनके पीछे आकर खड़ी हो गयीं ….अत्यन्त हर्षित थीं ये सब अलियां । हरिप्रिया जी ने मुझे कहा ……ये श्रीविशाखा सखी जी की अष्ट सखियाँ हैं ।
मैंने देखा …..अपनी सखी जू से हंस हंस कर बतिया रहीं थीं । श्रीविशाखा जी उनको फल आदि को कैसे अमनिया करना है, और किस फल को थाल में कैसे सजाना है, ये सब भी सिखा रही थीं।
श्रीविशाखा सखी जी की इन अष्ट सखियों के नाम इस प्रकार हैं ……हरिप्रिया जी उनके नाम बताने लगीं ।
माधवी जी , मालती जी , चन्द्रलेखा जी , चपला जी , हिरनी जी , कुंजरी जी , सुरभि जी और सुभानना जी । मैंने हरिप्रिया जी के कहने से इन सबको प्रणाम किया …साष्टांग मैंने श्रीविशाखा सखी जू को किया था । मुझे ये सखी जू बहुत प्यारी लगीं ….क्यों की कम हंसती थीं ये …लेकिन जब हंसतीं तब निकुँज महक उठता था ।
शेष अब कल –
[2/24, 8:47 PM] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 6 : ध्यानयोग
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श्लोक 6 . 38
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कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति |
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि || ३८ ||
कच्चित् – क्या; न – नहीं; उभय – दोनों; विभ्रष्टः – विचलित; छिन्न – छिन्न-भिन्न; अभ्रम् – बादल; इव – सदृश; नश्यति – नष्ट जो जाता है; अप्रतिष्ठः – बिना किसी पद के; महा-बाहो – हे बलिष्ठ भुजाओं वाले कृष्ण; विमुढः – मोहग्रस्त; ब्रह्मणः – ब्रह्म-प्राप्ति के; पथि – मार्ग में |
भावार्थ
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हे महाबाहु कृष्ण! क्या ब्रह्म-प्राप्ति के मार्ग से भ्रष्ट ऐसा व्यक्ति आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों ही सफलताओं से च्युत नहीं होता और छिन्नभिन्न बादल की भाँति विनष्ट नहीं हो जाता जिसके फलस्वरूप उसके लिए किसी लोक में कोई स्थान नहीं रहता?
तात्पर्य
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उन्नति के दो मार्ग हैं | भौतिकतावादी व्यक्तियों की अध्यात्म में कोई रूचि नहीं होती, अतः वे आर्थिक विकास द्वारा भौतिक प्रगति में अत्यधिक रूचि लेते हैं या फिर समुचित कार्य द्वारा उच्चतर लोकों को प्राप्त करने में अधिक रूचि रखते हैं | यदि कोई अध्यात्म के मार्ग को चुनता है, तो उसे सभी प्रकार के तथाकथित भौतिक सुख से विरक्त होना पड़ता है | यदि महत्त्वाकांक्षी ब्रह्मवादी असफल होता है तो वह दोनों ओर से जाता है | दूसरे शब्दों में, वह न तो भौतिक सुख भोग पाता है, न आध्यात्मिक सफलता हि प्राप्त कर सकता है | उसका कोई स्थान नहीं रहता, वह छिन्न-भिन्न बादल के समान होता है | कभी-कभी आकाश में एक बादल छोटे बादलखंड से विलग होकर बड़े खंड से जा मिलता है, किन्तु यदि वह बड़े बादल से नहीं जुड़ता तो वायु उसे बहा ले जाती है और वह विराट आकाश में लुप्त हो जाता है | ब्रह्मणः पथि ब्रह्म-साक्षात्कार का मार्ग है जो अपने आपको परमेश्र्वर का अभिन्न अंश जान लेने पर प्राप्त होता है और वह परमेश्र्वर ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् रूप में प्रकट होता है | भगवान् श्रीकृष्ण परमसत्य के पूर्ण प्राकट्य हैं, अतः जो इस परमपुरुष की शरण में जाता है वही सफल योगी है | ब्रह्म तथा परमात्मा-साक्षात्कार के माध्यम से जीवन के इस तथ्य तक पहुँचने में अनेकानेक जन्म लग जाते हैं (बहूनां जन्मनामन्ते) | अतः दिव्य-साक्षात्कार का सर्वश्रेष्ठ मार्ग भक्तियोग या कृष्णभावनामृत की प्रत्यक्ष विधि है |
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877