!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 143 !!
कुरुक्षेत्र में प्रेमियों का महाकुम्भ
भाग 2
🌳🌳🌳🌳🌳
मुझे आप क्षमा करें……..वसुदेव फिर नन्दराय के चरणों में गिरे ।
हे वसुदेव ! बुद्धिमान व्यक्ति बीती हुयी बातों का शोक नही करता ।
ज्ञानी उसे ही कहते हैं …………हे वसुदेव ! जो बीती बातों का शोक नही करता और आनें वाले समय को लेकर भयभीत नही होता …..उसे ही ज्ञानी कहा गया है ………….हे वसुदेव ! शोक को त्यागो ………और यज्ञ के कार्य में लगो ………हम सब तुमसे प्रसन्न हैं ……….
मुस्कुराते हुये वसुदेव को फिर अपनें हृदय से लगाया नन्दराय नें ।
यज्ञ प्रारम्भ हो रहा था ……..वसुदेव ही मुख्य यजमान थे ।
मैं महर्षि शाण्डिल्य – उस समय चकित हो उठा था जब यज्ञ में सप्तऋषि भी पधारे …..मैने और आचार्य गर्ग नें उनसबको आसन दिया और प्रणाम किया …….पर मैने देखा ………..सप्तऋषियों को इस यज्ञ से कोई प्रयोजन ही नही था ………..उनका ध्यान न मन्त्र की ओर था …..न स्वाहा, न स्वधा की ओर ……..वो सब इधर उधर दृष्टि घुमा रहे थे ……….सप्तऋषि इतनें चंचल !
मेरे मन की बात को वो समझ गए थे …….इसलिये मुस्कुराये ……
और मेरे पास आकर धीरे से बोले …….महर्षि शाण्डिल्य ! हम तुम्हारे यज्ञ में नही आये हैं ……….बस एक ही लोभ हमें यहाँ खींच लाया है ।
कौन सा लोभ ऋषि ? ………मैने पूछा ।
उन सनातन प्रेमीयों का दर्शन हो जाए …………….महर्षि ! निकुञ्ज में हमारा प्रवेश नही है ……….. इस बार अवतार हुआ है ……….तो दर्शन कर लें ………वैसे वृन्दावन में हमनें महारास के समय में दर्शन किये थे …….पर इस कुरुक्षेत्र में सौ वर्षों के लम्बे वियोग पश्चात्…..ये दोनों मिलें हैं ……..हम अपनें नेत्रों को शीतल करनें आये हैं ..हम उन युगलवर के दर्शन करके अपनी तपस्या को धन्य करनें आये हैं ………कहाँ है श्रीराधाश्याम सुन्दर ?
शान्त , परमशान्त ऋषि भी आज प्रेम की उन्मत्तता के कारण ……..चंचल हो उठे थे …….।
मैने उन सब को आदर सहित कहा ……….आनें वाले हैं …… आप दर्शन करके ही जाइयेगा ।
मेरी बात सुनकर सप्तऋषि बहुत प्रसन्न हुए ……और युगल सरकार के दर्शन की प्रतीक्षा करनें लगे थे ।
बलराम ……..”मुझे मैया यशोदा से मिलना है” ।
पर अकेले कैसे जाऊँ ? मेरी मैया मुझ से पूछेगी……तेरी बहू कहाँ है ?
रेवती को साथ में लेकर ,
मैया यशोदा के पास, बलराम पहुँच गए थे ।
दुःख होता है आजकल …………….द्वारिका से चलते समय कृष्ण नें मुझ से कहा था ……….आर्य ! आप चलेंगें कुरुक्षेत्र ?
बस इसी बात का दुःख होता है ……..दाऊ ! दाऊ दादा ! कितनें प्रेम से बोलता था वृन्दावन में………पर द्वारिका आते ही मैं “आर्य” बन गया …….मैं अगर मना कर देता कुरुक्षेत्र आनें के लिये… ……..तो मुझ से कोई जिद्द करनें वाला था भी नही………इसलिये मैने शीघ्र ही कह दिया ……’मैं तो जाऊँगा” ।
मुझे कुरुक्षेत्र से क्या मतलब…….मुझे सूर्यग्रहण से भी कोई प्रयोजन नही था……..विशाल यज्ञ का आयोजन ग्रहण पश्चात् पिता जी रखनें वाले हैं ………पर मुझे यज्ञ से भी मतलब नही है ।
मुझे मिलना है अपनी मैया यशोदा से ……….बाबा से ………मेरी कन्हैया की राधा से………….मैं गया था वृन्दावन ……….उफ़ ! दो महिनें रहा वहाँ …………सब एक ही बात पूछते थे ……..कब आएगा कन्हैया ? मैं क्या उत्तर देता ।
क्रमशः…
शेष चरित्र कल –
🙌 राधे राधे🙌
🌱☘️🌱☘️🌱☘️🌱
कुरुक्षेत्र में प्रेमियों का महाकुम्भ
भाग 2
🌳🌳🌳🌳🌳
मुझे आप क्षमा करें……..वसुदेव फिर नन्दराय के चरणों में गिरे ।
हे वसुदेव ! बुद्धिमान व्यक्ति बीती हुयी बातों का शोक नही करता ।
ज्ञानी उसे ही कहते हैं …………हे वसुदेव ! जो बीती बातों का शोक नही करता और आनें वाले समय को लेकर भयभीत नही होता …..उसे ही ज्ञानी कहा गया है ………….हे वसुदेव ! शोक को त्यागो ………और यज्ञ के कार्य में लगो ………हम सब तुमसे प्रसन्न हैं ……….
मुस्कुराते हुये वसुदेव को फिर अपनें हृदय से लगाया नन्दराय नें ।
यज्ञ प्रारम्भ हो रहा था ……..वसुदेव ही मुख्य यजमान थे ।
मैं महर्षि शाण्डिल्य – उस समय चकित हो उठा था जब यज्ञ में सप्तऋषि भी पधारे …..मैने और आचार्य गर्ग नें उनसबको आसन दिया और प्रणाम किया …….पर मैने देखा ………..सप्तऋषियों को इस यज्ञ से कोई प्रयोजन ही नही था ………..उनका ध्यान न मन्त्र की ओर था …..न स्वाहा, न स्वधा की ओर ……..वो सब इधर उधर दृष्टि घुमा रहे थे ……….सप्तऋषि इतनें चंचल !
मेरे मन की बात को वो समझ गए थे …….इसलिये मुस्कुराये ……
और मेरे पास आकर धीरे से बोले …….महर्षि शाण्डिल्य ! हम तुम्हारे यज्ञ में नही आये हैं ……….बस एक ही लोभ हमें यहाँ खींच लाया है ।
कौन सा लोभ ऋषि ? ………मैने पूछा ।
उन सनातन प्रेमीयों का दर्शन हो जाए …………….महर्षि ! निकुञ्ज में हमारा प्रवेश नही है ……….. इस बार अवतार हुआ है ……….तो दर्शन कर लें ………वैसे वृन्दावन में हमनें महारास के समय में दर्शन किये थे …….पर इस कुरुक्षेत्र में सौ वर्षों के लम्बे वियोग पश्चात्…..ये दोनों मिलें हैं ……..हम अपनें नेत्रों को शीतल करनें आये हैं ..हम उन युगलवर के दर्शन करके अपनी तपस्या को धन्य करनें आये हैं ………कहाँ है श्रीराधाश्याम सुन्दर ?
शान्त , परमशान्त ऋषि भी आज प्रेम की उन्मत्तता के कारण ……..चंचल हो उठे थे …….।
मैने उन सब को आदर सहित कहा ……….आनें वाले हैं …… आप दर्शन करके ही जाइयेगा ।
मेरी बात सुनकर सप्तऋषि बहुत प्रसन्न हुए ……और युगल सरकार के दर्शन की प्रतीक्षा करनें लगे थे ।
बलराम ……..”मुझे मैया यशोदा से मिलना है” ।
पर अकेले कैसे जाऊँ ? मेरी मैया मुझ से पूछेगी……तेरी बहू कहाँ है ?
रेवती को साथ में लेकर ,
मैया यशोदा के पास, बलराम पहुँच गए थे ।
दुःख होता है आजकल …………….द्वारिका से चलते समय कृष्ण नें मुझ से कहा था ……….आर्य ! आप चलेंगें कुरुक्षेत्र ?
बस इसी बात का दुःख होता है ……..दाऊ ! दाऊ दादा ! कितनें प्रेम से बोलता था वृन्दावन में………पर द्वारिका आते ही मैं “आर्य” बन गया …….मैं अगर मना कर देता कुरुक्षेत्र आनें के लिये… ……..तो मुझ से कोई जिद्द करनें वाला था भी नही………इसलिये मैने शीघ्र ही कह दिया ……’मैं तो जाऊँगा” ।
मुझे कुरुक्षेत्र से क्या मतलब…….मुझे सूर्यग्रहण से भी कोई प्रयोजन नही था……..विशाल यज्ञ का आयोजन ग्रहण पश्चात् पिता जी रखनें वाले हैं ………पर मुझे यज्ञ से भी मतलब नही है ।
मुझे मिलना है अपनी मैया यशोदा से ……….बाबा से ………मेरी कन्हैया की राधा से………….मैं गया था वृन्दावन ……….उफ़ ! दो महिनें रहा वहाँ …………सब एक ही बात पूछते थे ……..कब आएगा कन्हैया ? मैं क्या उत्तर देता ।
क्रमशः…
शेष चरित्र कल –
🙌 राधे राधे🙌
( “सिद्धान्त सुख” – 34 )
गतांक से आगे –
- मृगलोचनी जू की *
सुनि मालमनि मधुमालती मित्रारुमोदा मनरमा ।
महाबिचित्रा मेधिनी अरु मदनमंजरि अष्टमा ॥
- मणिकुंडला जू की *
गुन-जु-माला कला चंदन तड़िप्रभा शरदेंदुका ।
रंभाभरणी श्रृंगिका कुसुमा ए आठ अलौकिका ॥
- सुभचरिता जू की *
लताआनंद अद्भुता अनुरागिनी अनुपमअली ।
लाड़िली आभासहेली अतिप्रभा आनँदरली ॥
- चंद्रा जू की *
लाड़परिका चंद्रमुखिनी गर्बिली सुरसालिनी ।
पुनीता बालारु मधुरा पारगामिनिआलिनी ॥
- चंद्रलतिका जू की *
मकरंदिनीरु मदोनमत्ता सुरिंदा मधुकंदला ।
प्रगुनस्वच्छा छबीली अरु कुमुदअक्षि कुमोदिका ॥
- मंडली जू की *
सुगुणधारा धीसुमान्या बृन्दा बारिजलोचनी ।
कलावलिरु कुरंगिनी पुनि सोभनी उद्दीपनी ॥
- कंदुकनयनी जू की *
इंदुहासा सुधानादा सारअंगा सुधाकरा ।
कलसुकंठा सुधाकंठा सुकंठा सुगुनाकरा ॥
- सुमंदिरा जू की *
सुधाभासा सभाचूड़ा गोरी गर्बितअंगिनी ।
चारुकंठा कामपाला जोतिजाला जोत्सिनी ॥
*हे रसिकों ! निकुँज रहस्य को समझना अत्यन्त दुरूह कार्य है …..फिर भी हम समझने का असफल प्रयास कर रहे हैं ….प्रयास इसलिए क्यों की इसी प्रयास में हमारी जन्म-जन्मों की प्यास छुपी है ….इस प्यास द्वारा प्रेरित प्रयास को तो हमारे निकुँज के राजा रानी समझते ही होंगे ना ? क्यों नही समझेंगे ! और जब समझेंगे तो हमारे लिए व्यवस्था भी करेंगे । देखिए ! एक बात पक्की मानिये ….प्यास होनी चाहिए ….बाकी अस्तित्व सब व्यवस्था करेगा । आप निकुँज रहस्य को समझते हैं या नही ? या समझ रहे हैं या नही । ये बात मुख्य नही है …..मुख्य है ….आप समझना चाहते हैं और इसलिए इस मार्ग का अन्वेषण कर रहे हैं । क्या ये बात युगल सरकार नही जान रहे ? जान रहे हैं …..इसलिए आपका मार्गदर्शन भी होगा ….आप परेशान मत होईए ….आप बस , सखियों के द्वारा गाये गये इन वाणी जी के पदों को गाइये …..और उसी निकुँज में अपने मन को ले जाइये …वैसे मन की गति वहाँ तक नही है ….फिर भी ये हमारा प्रयास है …ताकि युगल सरकार इस बात को समझें । अजी वो खूब समझ रहे हैं । कल एक साधक कह रहे थे कि …..आपने जो युगल सरकार की अष्ट सखियों में पाँचवीं सखी श्रीचम्पकलता जी का वर्णन किया और ये बताया कि …ये इत्र फुलेल आदि की सेवा करती हैं ….और उसका वर्णन भी था ….पढ़ते हुए मुझे लगा कि वही सुगन्ध मेरे कक्ष में भी आगया है …गुलाब , वेला मोगरा आदि का । बस , यही स्थिति होनी पड़ेगी ….महावाणी जी के पदों को गाते हुए …आपको अनुभव हो कि …फूल निकुँज में महक रहे हैं और आप उसकी सुगन्ध ले रहे हो ।
इसी तरह आप आगे बढ़ते जायेंगे ….यही भावना दृढ़ हो । हे रसिकों ! भाव जगत की चर्चा है ये ..आपको बड़ी सावधानी पूर्वक अपने मन को ले जाना है निकुँज की वीथियों में । मैंने उन साधक से कहा …..सखियों के मध्य अपने को खोजिये । आप भी हैं । ये बहुत सूक्ष्म साधना है ….सूक्ष्म भाव जगत की साधना ।
- हरिशरण
श्रीहरिप्रिया जी परम आनंदित हैं ….इत्र महक रहा है निकुँज में । श्रीचम्पकलता जी इत्र बना रही हैं …..और अपनी सखियों को बता रहीं हैं । बड़ी सी डलिया में फूल हैं । उसमें से चुनने हैं …. चुन लिए हैं ….छीना वस्त्र है ….उसमें चुने हुए पुष्प डाले हैं …..थोड़ा जल डाल कर उन्हें मल रही हैं ….और एक रजत पात्र में उन्हें डाल दिया है ……लो ! ये इत्र तैयार है ।
श्रीचम्पकलता सखी जी की अष्ट सखियों में प्रथम सखी हैं …..”मृग लोचनी”जी । मृगलोचनी जी ने अपनी सखी जू से जानकर अपनी अष्ट सखियों को बताया …..ये मृगलोचनी जी की अष्ट सखियाँ हैं ….जो अब पुष्पों का चयन कर रही हैं ……मणिमालती जी , मधुमालती जी , मित्रा जी , मोदा जी , मनोरमा जी , महाविचित्रा जी , मेधनी जी और मदन मंजरी जी । ये मृगलोचनी जी की अष्ट सखियाँ हैं ….मुझे हरिप्रिया जी ही बता रहीं थीं ।
इन्हीं के पास चहकती हुयी ….दूसरी सखी श्रीचम्पकलता जी की आगयीं थीं …..इनका नाम है “मणिकुण्डला”जी । इनकी अष्ट सखियाँ हैं …..गुणमाला जी , कलावती जी , चन्द्रनी जी , तड़ितप्रभा जी , शरदेंदुंका जी , रम्भाभरणी जी , भृंगीका जी , और कुसुमा जी । हरिप्रिया जी बोलीं …इनके नाम भी फूलों से मिलते जुलते हैं …..ये सब सखियाँ अद्भुत और सुगन्ध से भरी हैं ।
वो सखी हैं , देखो ….हरिप्रिया जी ने मुझे दिखाया ……ये श्रीचम्पकलता जी की तीसरी सखी हैं …इनका नाम है ….”शुभ चरिता” जी । इनकी वेणी में फूल लगे थे ….ये बड़ी सुन्दर लग रहीं थीं ….इनकी अष्ट सखियाँ इनके साथ ही हैं …..लता जी , आनंदा जी , अद्भुता जी , अनुरागिनी जी , अनुपम अलि जी , आभा सहेली जी , अति प्रभा जी और आनन्द रली जी । ये सखियाँ अति आकर्षण से भरी हुयी थीं । फूलों से इत्र निकालने लगीं थीं अब सखियाँ …..ये हैं चौथी सखी श्रीचम्पकलता जी की ….इनका नाम है …”चन्द्रा” जी । इनकी अष्ट सखियाँ बड़ी उत्सुकता से इत्र निकालने लगीं …..और निकाल कर एक पात्र में रख रहीं थीं । इन चन्द्रा जी की अष्ट सखियाँ वो रहीं …….लाड़ परिका जी , चन्द्र मुखीनी जी , गर्विली जी , सुर सालिनी जी , पुनीता जी , बाला जी , मधुरा जी और पार गामिनी जी ।
इसके बाद – श्रीचम्पक लता जी की पाँचवीं सखी – “चन्द्रलतिका” जी । इनकी अष्ट सखियाँ हैं …..वो देखो ….हरिप्रिया जी ने मुझे दर्शन कराए …..मकरंदिनी जी , मदोमत्ता जी , सुरिंदा जी , मधुकन्दला जी , प्रगुणस्वच्छा जी , छबिली जी , कुमोदअक्षि जी और कुमोदिका जी ।
मैंने दर्शन किए ……एक अत्यंत सुंदर सखी हैं ….वो कौन हैं ? हरिप्रिया जी ने मुझे मुस्कुराते हुए उत्तर दिया ….वो छटी सखी हैं , श्रीचम्पकलता जी की छटी सखी ….”मंडनी” जी । इनकी सखियाँ , इनकी भी अष्ट सखियाँ हैं ……सगुण धारा जी , सुमान्या जी , वृंदा जी , वारिजलोचनी जी , कलावली जी , कुरंगीनी जी , सोभनी जी और उद्दीपनी जी ।
मुझे बड़ा आनन्द आया ….इन सबके दर्शन करके मेरा मन भी सुगन्ध से भर गया था ।
अब सुगन्धी तैल तैयार हो गया था ….जिसके कारण सुगन्ध की वयार सी चल पड़ी थी …किन्तु उसे ढ़क दिया …ताकि इसका सुगन्ध अब युगल ही ग्रहण करें ।
ये सातवीं सखी हैं …..श्रीचम्पकलता जी की सातवीं सखी ….जो इत्र को सजाकर रख रहीं हैं …इनका नाम है ….”कंदुकनयनी” जी । इनकी अष्ट सखियाँ ….इन्दुहासा जी, सुधानादा जी , सारअंगा जी , सुधाकरा जी , कल कंठा जी , सुधाकंठा जी , सुकंठा जी और सगुणाकरा जी ।
हरिप्रिया जी ने मुझे बताया …चाँदी की छोटी छोटी डिब्बियों में इत्र को सखियाँ रख रहीं हैं …..ये हैं आठवीं सखी ….श्रीचम्पकलता जी की आठवीं सखी ….”सुमंदिरा” जी । इनकी भी अष्ट सखियाँ हैं ……सुधाभासा जी , सभा चूडा जी , गौरांगी जी , गर्विता जी , चारुकंठा जी , कामपाला जी , जोतीजाला जी और ज्योत्सिनी जी ।
इन सबने मिलकर सुगन्ध तैयार किया था …जब युगल सरकार जायेंगे तब इत्र से युगल के महल को महकाने की तैयारी इन सबकी है । मैंने सबको प्रणाम किया था । अद्भुत सेवा भाव से भरी हैं ये सब सखियाँ ।
शेष अब कल –
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (116)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
गोपियों में दास्य का हेतु-1
जब पुरुषभूषण की इच्छा होती है कि हमको पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण प्राप्त हों जो परमेश्वरों के भी परमेश्वर हैं, तो सांसारिक और दिव्य भोगों की इच्छा समाप्त हो जाती है। श्रीमद्भागवत में वर्णन आता है कि ब्राह्मण का लड़का मर गया था तो अर्जुन को साथ लेकर श्रीकृष्ण भूमापुरुष के पास गये। इस पर हमारे भक्तों ने यह प्रश्न उठाया कि भूमापुरुष बड़े थे जिनका दर्शन करने के लिए अर्जुन और कृष्ण गये या कि कृष्ण बड़े थे? बोले कि भूमापुरुष आठ बाहुवाले थे, यह बात सच्ची थी, क्योंकि अष्टधा प्रकृति उनकी बाहु हैं। बाहु माने कर्म करने की शक्ति। और श्रीकृष्ण के तो दो या विष्णुरूप में चार ही बाहु हैं। फिर भी श्रीकृष्ण ही, बड़े थे। श्रीकृष्ण जो अर्जुन के साथ भूमापुरुष के पास दर्शन को गये उसका एक रहस्य है। एक दिन नारदजी भूमापुरुष के पास गये और उनके कान में इन्होंने सुनाया कि व्रज में एक बालक पैदा हुआ है, नन्दनन्दन, श्यामसुन्दर, मुरलीमनोहर, पीताम्बरधारी और फिर वही द्वारका में आकर ऐसे-ऐसे खेल रहा है। परंतु उसके समान सुन्दर तो सृष्टि में कोई है ही नहीं। तो भूमापुरुष ने कहा- अच्छा तो समय आ गया।
जिस श्वेतवाराहकल्प के वैवस्वत मन्वन्तर की अट्ठाईसवीं चतुर्युगी के द्वापर में हमसे बड़ा जो पुरुषभूषण है, परमपुरुष, परमसुन्दर, परममधुर, उसका अवतार हो गया, प्राकट्य हो गया। अरे भाई, तो उसके दर्शन के बिना तो हमारी आँख व्यर्थ है, जाना पड़ेगा; परंतु यदि हम जायेंगे तो हमारी अनेक बाहु और नेत्र देखकर बेचारे गाँव के लोग डर जायेंगे, और कृष्ण तो वहाँ छिपकर मधुरातिमधुर बनकर क्रीड़ा कर रहे हैं। इसलिए उनको यहीं बुलावें। कैसे आवेंगे? तो अपने भक्त को बचाने के लिए आ सकते हैं; इसलिए आओ, अर्जुन को ऐसी विपत्ति में डालें कि अर्जुन की रक्षा के लिए श्रीकृष्ण हमारे पास आ जायँ, और हमारी आँखें तृप्त हो जायँ। तो श्यामसुन्दर का दर्शन करने के लिए भूमापुरुष ने यह षड्यन्त्र रचा, कि ब्राह्मण के लड़के मर जायँ, अर्जुन प्रतिज्ञा कर बैंठे, और अर्जुन की प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए स्वयं भगवान श्रीकृष्ण उन्हें दर्शन देने के लिए जायँ। गौड़ेश्वर सम्प्रदाय के रसिकों ने इसका ऐसा वर्णन किया है।+
तो पुरुषभूषण- एक तो हीरा, और वह भी ऐसे सोने में मढ़ा गया हो जो बिल्कुल ‘कुन्दन’ हो और हीरा भी कैसा कि ऐसा सुडौल काटा गया हो और उसमें ऐसी चिलक निकले; वैसी महाराज श्यामसुन्दर की मुस्कान है। त्वत्सुन्दरस्मिता निरीक्षण। उसी की मारी ये गोपी हैं- तीव्रकामतप्तात्मनाम्। तो गोपी को आत्मा-पुरुष नहीं चाहिए, अन्तर्यामी पुरुष नहीं चाहिए, ब्रह्मपुरुष नहीं चाहिए, उनको तो चाहिए पुरुषभूषण-
श्रवसो कुबलयं अक्षणो अञ्जनं उरसो महेंद्रमणिदानं,
वृन्दावनरमणीनां मण्डनमखिलं हरिर्जयति ।
गोपियों का अभूषण कौन है? उनकी आँख का अञ्जन कौन है? उनके हृदय पर नीलमणि कौन है? उनके कान पर कुण्डल कौन है? अरे, उसके लिए ही वे व्याकुल हैं- तीव्रकामतप्तात्मनां। जब श्रीकृष्ण की प्राप्ति की इच्छा हुई, तो यह इच्छा काम नहीं है, यह तो काम का परदादा है, भला। काम तो वह होता है जो दुनिया की छोटी-छोटी चीजों में फँसा दे। देखो, मन में मोह हो तो मोहन से करो, संसार से क्यो करतें हो? मोहन से मोह का नाम भक्ति है, भला।
एक बार हम किसी महात्मा के पास थे, तो व्याख्या कर रहे थे कि धन के लिए तुम्हारे मन में लोभ है तो लोभ को रहने दो, परंतु धन को निकल दो, लोभ भगवान का करो। तुम्हारे मन में काम है तो काम भगवान के साथ करो। ये काम, लोभ आदि विकार नहीं रहेंगे, भक्ति हो जायेंगे। ज्यादा ढोंग नहीं करना चाहिए कि हम तो निष्काम, निर्लोभ हैं। एक दिन मैंने एक हँसी की बात पढ़ी, किसी अखबार में। दो बच्चे आपस में लड़ रहे थे कि उनके बीच जो एक कुत्ता (खिलौना) था उसे कौन ले कि छोटा भाई ले। इतने में उनका बाप आ गया। उसने पूछा कि क्यों लड़ रहे हो? बच्चों ने कहा कि हम लोगों में शर्त लगी है कि जो ज्यादा झूठ बोले वही इस कुत्ते को ले ले, इसलिए ये एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर झूठ बोल रहे हैं।++
बाप-बोला- तुम लोग बड़े दुष्ट हो, तुम लोग इतनी छोटी उम्र में इतनी छोटी बात के लिए झगड़ रहे हों; मैं जब तुम्हारी उम्र का था तब यह जानता ही नहीं था कि झूठ क्या है? इस पर दोनों लड़के के ताली पीटकर हँसने लगे। बोल-पिताजी, इस कुत्ते को आप ही ले जाओ, क्योंकि इतना बड़ा झूठ कोई नहीं होगा कि मैं झूठ नहीं बोलता। तो यह जो ख्याल है कि मैं कभी झूठ नहीं बोलता, ऐसा समझने वाला ना समझ है या तो ढोंग करता है, क्योंकि बोलेगा तो कुछ-न-कुछ झूठ भी निकलेगा ही। जो लोग थोड़ी दाढ़ी रख लेते हैं, गेरुआ कपड़ा पहन लेते हैं, कोई वेशभूषा धारण कर लेते हैं और कहते हैं कि हम निष्काम हो गये, तो दो ही बात उनके बारे में सोची जा सकती है- या तो वे समझते नहीं कि ‘काम’ किस चीज को कहते हैं, और या तो वे सकाम होने पर भी अपने निष्काम होने का ढोंग करते हैं, दम्भी हैं। अरे, ईश्वर की कामना से तो सृष्टि बनी, और माता-पिता के काम से यह संतान-परंपरा चली आ रही है, नारायण। तो अपना अंतःकरण रखते हुए यदि कहे कि हमारे अंतःकरण में कामना नहीं है तो या तो वह ना-समझ है या ढोंगी है। अच्छा, जब अंतःकरण में कामना है तो उसको किसी ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे के साथ मत जोड़ो; किसी उद्धू-बुद्धू के साथ काहे को अपनी कामना को जोड़ते हो? अपनी कामना को जोड़ो परमेश्वर के साथ; हम उसी के साथ हँसेंगे, बोलेंगे, उसी के साथ खेलेंगे, मिलेंगे- न मय्यावेशितधियाँ कामः कामाय कल्पते। भर्जिता क्वथिता धाना प्रायो बीजाय नेष्यते ।
भगवान ने कहा कि तुम अपने काम को मेरे साथ जोड़ दो, अपने लोभ को मेरे साथ जोड़ दो, अपने मोह को, क्रोध को मेरे साथ जोड़ दो। ढोंग नहीं चलता, ईश्वर के रास्ते में दम्भ की गति नहीं है। जैसे कोई स्त्री चाहती तो हो कि हमारा पति खूब मना-मनाकर, हमारा पाँव छूकर हमको खिलावे, और कहे कि हमको बिलकुल भूख ही नहीं है; तो उसका यह कहना ढोंग है। उसी प्रकार महाराज, जब तक अंतःकरण है तब तक इसको पूर्ण चाहिए; पूर्ण का आश्रय लिए बिना ही हम पूर्ण हो गये, ऐसा ढोंग नहीं करना चाहिए।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
[ Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 6 : ध्यानयोग
🪻🪻🪻🪻🪻🪻
श्लोक 6 . 41
🪻🪻🪻🪻🪻
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्र्वती: समाः |
श्रुचीनां श्रीमतां ग्रेहे योगभ्रष्टोSभिजायते || ४१ ||
प्राप्य – प्राप्त करके; पुण्य-कृताम् – पुण्य कर्म करने वालों के; लोकान् – लोकों में; उषित्वा – निवास करके; शाश्र्वतीः – अनेक; समाः – वर्ष; शुचीनाम् – पवित्रात्माओं के; श्री-मताम् – सम्पन्न लोगों के; ग्रेहे – घर में; योग-भ्रष्टः – आत्म-साक्षात्कार के पथ से च्युत व्यक्ति; अभिजायते – जन्म लेता है |
भावार्थ
🪻🪻🪻
असफल योगी पवित्रात्माओं के लोकों में अनेकानेक वर्षों तक भोग करने के बाद या तो सदाचारी पुरुषों के परिवार में या धनवानों के कुल में जन्म लेता है |
तात्पर्य
🪻🪻🪻
असफल योगियों की दो श्रेणियाँ हैं – एक वे जो बहुत थोड़ी उन्नति के बाद ही भ्रष्ट होते हैं; दुसरे वे जो दीर्घकाल तक योगाभ्यास के बाद भ्रष्ट होते हैं | जो योगी अल्पकालिक अभ्यास के बाद भ्रष्ट होता है वह स्वर्गलोक को जाता है जहाँ केवल पुण्यात्माओं को प्रविष्ट होने दिया जाता है | वहाँ पर दीर्घकाल तक रहने के बाद उसे पुनः इस लोक में भेजा जाता है जिससे वह किसी सदाचारी ब्राह्मण वैष्णव के कुल में या धनवान वणिक के कुल में जन्म ले सके | योगाभ्यास का वास्तविक उद्देश्य कृष्णभावनामृत की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करना है, जैसा कि इस अध्याय के अन्तिम श्लोक में बताया गया है, किन्तु जो इतने अध्यवसायी नहीं होते और जो भौतिक प्रलोभनों के कारण असफल हो जाते हैं, उन्हें अपनी भौतिक इच्छाओं की पूर्ति करने की अनुमति दी जाती है | तत्पश्चात् उन्हें सदाचारी या धनवान परिवारों में सम्पन्न जीवन बिताने का अवसर प्रदान किया जाता है | ऐसे परिवारों में जन्म लेने वाले इन सुविधाओं का लाभ उठाते हुए अपने आपको पूर्ण कृष्णभावनामृत तक ऊपर ले जाते हैं |
[] Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (117)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
गोपियों में दास्य का हेतु-1
भगवान ने देखा कि संसार के जीव छोटी-छोटी कामना में फँस जाते हैं; इनको तो संसार का भोग चाहिए, और वह भी पांचों इंद्रियों का नहीं, एक-एक इन्द्रिय के भोग में ही वे गिरते दिखाई देते हैं। इसलिए भगवान ने अपने को सर्वांग-सुंदररूप में प्रस्तुत किया। इनके साथ अपने को जोड़ लो, भक्ति हो जाएगी, तुम्हारे विकार भी चिन्मय हो जायेंगे- इसी में जीवन की सफलता है।
त्वत्सुन्दरस्मितनिरीक्षणतीव्रकामतप्तात्मनाम् को देखकर हमारी गोपी कहती हैं- श्यामसुन्दर, तुम्हारी सुन्दर मुस्कान को देखकर हमारी सारी मर्यादाएं टूट गयीं। ‘कान’ माने मार्यादा और ‘मूस’ माने चुरा लेना। इसलिए जो मर्यादा को चुरा ले, उसका नाम मुसकान; जिस मुस्कान को देखकर, अपने कुल की, परिवार की जाति की, सम्प्रदाय की, परंपरा की मर्यादा का बन्धन टूट जाय उसका नाम है मुसकान। और चितवन क्या है? यह भीतर जो चित्त है वह आकर जिस झरोखे में से झाँकता है, उसको चितवन बोलते हैं। चितवन क्या है- तो आँख है। ये आँख खिड़की हैं जिसमें से आत्मा झाँकता है। जिसकी ओर देखते हैं और मुसकरा देते हैं, उसके हृदय को अपनी ओर खींच लेते हैं। तो कामना हो तो हो, परंतु संसार की नहीं, श्रीकृष्ण की हो- यह भक्ति है।
तीव्रकामतप्तात्मनां पुरुषभूषण देहि दास्यम् ।
रासलीला के बाद की बात है: एक दिन एक गोपी और कृष्ण मिले, बड़े प्रेम से हँसी-मजाक हो रहा था। गोपी ने कहा- हम लोगों को क्या समझते हो? हम कोई ऐसी-वैसी थोड़े ही हैं। श्रीकृष्ण ने कहा कि आज तुम ऐसे-वैसे बता रही हो, वह दिन भूल गया जब कहा था कि-
त्वत्सुन्दरस्मितनिरीक्षणतीव्रकामतप्तात्मनां ।
अर्थात् हमारी अंतरात्मा तुम्हारे प्रति तीव्रकाम से जल रही है और हमको अपनी सेवा दो, सेवा दो, सेवा दो; उस दिन तुम लोगों ने भीख नहीं माँगी थी समझने में गलती हो गयी; हमने यह नहीं कहा था। फिर क्या कहा था?+
यह कहा था कि ‘त्वत्सुन्दरस्मितनिरीक्षणतीव्रकामतप्तात्मना’ अन्नशां, केषाञ्चित्, गोपीजनानां देहि दास्यम्- अरे बाबा, जो तुम्हारे लिए मर रही हो, उनको तुम अपनी सेवा दो। हमको तुम्हारी सेवा के बिना कोई तकलीफ नहीं है, माफ करो। कृष्ण ने कहा- तुमने कहा था कि हमारे ऊपर खुश हो जाओ। बोली- हमने कहा था कि हमें खुश होकर छोड़ दो, हमें घर जाने दो। बोले- तुमने कहा नहीं था कि नाचो। बोली- हमने कहा था- वृजिनार्दन माने हमसे अपराध मत करवाओ, तुम तो अपराध से छुड़ाने वाले हो। तुम अपनी शर्तें उनसे मनवाओ जो तुम्हारे चरणों में आयी हों, जिन्होंने तुम्हारे लिए त्याग किया हो, जो तुमसे प्रेम करती हों। जिनके हृदय में तुम्हारे लिए पीड़ा हो, उनको तुम अपना दास्य दो। बाबा, हमें तो माफ करो; मैं तो इधर आ गयी थी और तुम्हारे फन्दे में फँस गयी।
एक निष्काम कर्मयोगी सज्जन थे। एक बार वह व्रज में आये। तो व्रजवाले लोग तो समझते हैं कि वृन्दावन में जैसा ऊँचा वाङ्मय है भक्ति का, प्रेम का वैसा तो कहीं है नहीं; तो उनसे बहुत आग्रह किया कि चलो रासलीला देखें। अब वह गये रासलीला देखने, तो महाराज श्रीकृष्ण साँवरी सखी बनकर आये।
राधारानी ने पूछा कि तुम कौन हो? बोले- हम सखी हैं, साँवरी सखी हैं, हम यही वन में रहती हैं, हम ऐसी हैं हम वैसी हैं, हमारा गोपदेवी नाम है। फलाना है, ढिकाना है, ऐसे सब बताया और प्रेम की चर्चा की। वह लीला इसीलिए करायी गयी थी कि वे सज्जन प्रेम का भाव समझें। वह तो बहुत बढ़िया लीला है। विश्वनाथ चक्रवर्ती ने लिखी है संस्कृत में, प्रेम-सम्पुट उसका नाम है, डेढ़ सौ श्लोकों का ग्रंथ है। उसमें दोनों ओर से सम्वाद होता है। साँवरी सखी कहती हैं कि श्यामसुन्दर तुमसे (राधारानी से) प्रेम नहीं करते हैं, और राधारानी कहती हैं कि श्यामसुन्दर हमसे बहुत प्रेम करते हैं। साँवरी सखी कहती हैं कि कृष्ण में प्रेम नहीं है, और राधारानी कहती हैं कि कृष्ण में बहुत प्रेम है। यह दोनों का सम्वाद है और प्रेम का रहस्य उसमें खोला है।++
प्रेमाद्वय रसिकयोरतिदीप एव हृदेश्म भासयति निश्चल एष भाति ।
द्वारादयं वदनतस्तु विनिर्गतश्चेद् निर्यात्ति शान्तिमथवा तनुतापैति ।।
प्रेयसी और प्रियतम दोनों के हृदय मंदिर में विराजमान जो प्रेम है वह दीपक है, जो हृदयमन्दिर को प्रकाशित करता है और अचल होकर रहता है- यदि ये मुख के दरवाजे से बाहर गया कि मैं प्रेमी हूँ- मैं प्रेमी हूँ, यह घोषणा की गयी, तो दीपक बुझ जायेगा या कम से कम लड़खड़ा तो जायेगा ही। यह प्रेमदीपक जब तक हृदयमन्दिर में छिपा रहता है, तभी तक सुरक्षित है। अब महाराज बड़ा बढ़िया सम्वाद हुआ; डेढ़-दो घंटे की लीला हुई। लीला हो जाने के बाद उन्होंने कहा कि लीला तो बहुत ही खराब थी क्योंकि इसमें श्रीकृष्ण ग्वालिनी बनकर झूठ बोलते हैं। वृन्दावन के लोगों ने कहा-भाई, तुम प्रेम को नहीं जानते हो, तुम झूठ-सच की बात तो समझते हो, लेकिन प्रेम की बात नहीं समझते हो। प्रेम में तो जो गूढ़ तत्त्व है वह बात की जाती है; प्रेम में गुदगुदाने वाली बात की जाती है। धर्म-अधर्म की जहाँ समस्या होती है वहाँ झूठ-सच होता है। और जहाँ प्रेम होता है, वहाँ तो कभी गर्मी से, कभी ठंडकर से प्रेम को स्वादु बनाया जाता है। कहीं गर्मी से, कहीं सर्दी से, कहीं झूठ से, कही सच से, कहीं सोके, कहीं जाग के, कहीं जानकर, कहीं अनजान बनके प्रेम को सुस्वादु बनाया जाता है। ज्ञान का आदर करने के लिए प्रेम नहीं है। प्रेम की जो लीला है, वह बहुत विलक्षण है।
कृष्ण ने कहा- अरी गोपियो! न तो कभी मैंने तुम लोगों की कोई सेवा की; न तो कभी कोई दान-दक्षिणा दी; न तो कभी तुम लोगों को खिलाया-पिलाया, कोई पार्टी नहीं दी, और न तुम्हारी तारीफ की कि तुम्हारी नाक ऐसी ऊँची है, तुम्हारी आँख ऐसी बड़ी है और तुम्हारे बाल ऐसे सुन्दर हैं- तारीफ कर-करकर तुमको कभी रिझाया नहीं; और डंडा लेकर कभी भेड़ की तरह जंगल में लाया नहीं। यह तुम क्यों चाहती हो कि हमको दासी बनाओ? अरे, जाकर अपने घर की महारानी बनो, हमारी दासी बनकर क्या होगा? क्यों आयी हो दासी बनने के लिए, अपने गर में तुम महारानी की तरह रहो। हमारे पास ऐसा क्या रखा है जिससे तुम घर-द्वार छोड़कर हमारे पास आयी हो?
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877