Explore

Search

November 21, 2024 5:47 pm

लेटेस्ट न्यूज़

!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 150 !!(1),: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!,श्रीमद्भगवद्गीता & महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (132) : Niru Ashra

!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 150 !!(1),: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!,श्रीमद्भगवद्गीता & महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (132) :  Niru Ashra

Niru Ashra: 🙏🙏🙏🙏

!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 150 !!

प्रेम की सदाहीं जय हो …
भाग 1

🌳🌳🌳🌳🌳

वो दौड़े आये थे ……ऐसा लग रहा था कि नीला आकाश चला आरहा है …………….वही भृकुटि मत्तता …….रसिक शिरोमणि ऐसे ही तो नही कहते इन्हें ……….राधे ! राधे ! पुकार थी उनकी……….

हाँ ……..श्रीराधारानी एकाएक उठ गयीं ………बाहर गयीं …..पीताम्बर धारी दौड़ रहे थे…….कुछ उद्विग्न से लग रहे थे………….

हाँ हाँ प्यारे ! आप क्यों दौड़ रहे हैं……….मैं आगयी ।

हूँ………..मैं तुमसे ही मिलनें आया था ………….रुक गए कृष्ण ……..

आज कोई सैनिक सिपाही सारथि, कोई नही ……

नहीं ………..आज सिर्फ मेरी आल्हादिनी श्रीराधा.. ………….लम्बी साँस ली थी कृष्ण नें …………..

चलो ……..सागर किनारे कुछ देर बतियाते हैं ।

पैदल चल पड़े थे ये दोनों सनातन प्रेमी …………

देखो राधे !

……अगाध जल राशि …….सागर को दिखाते हुए कृष्ण बोले थे ……..

पर खारा है ………..बस इतना ही बोलीं ।

वो दूर देखो ! कदम्ब की छाँव ……..तमाल की कुँजें …….

क्रमशः….
शेष चरित्र कल …

🍃 राधे🍃
Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!

( “सिद्धान्त सुख” – 54 )

गतांक से आगे –

॥ दोहा ॥

बिपुल पुलक अँग-अंग भरें, नवल चारु चैतन्य ।
अरस परस दरसत सदा, कोटि काम लावन्य ॥

॥ पद ॥

कोटि कंदर्प दुति ललित लावन्य ।
दिपति दंपति दरस सरस दिन-दिनहिं प्रति, अमित अभिरम्यता पुंज परजन्य ॥
परसपर विपुल पुलकावलिन निकर नव, नित्य नागर नवल चारु चैतन्य ।
श्रीहरिप्रिया निरखि निजनैंन छबि ऐन अलि, सैंन सब मानहीं भाग बड़ धन्य ॥ २८।

****तभी हरिप्रिया जी ने दर्शन किए युगलवर के …यमुना तट पर युगल विहार कर रहे हैं ….कोटि कोटि काम को पराजित करने वाले …रस रंग के आदि कारण – ये युगलवर । मुझे देखकर हरिप्रिया जी बता रहीं हैं …देखो ! इन नवल किशोर किशोरी को …कैसे भुजा में भुजा दिए मंद मंद मुस्कुराते हुए चल रहे हैं ….इनकी गज गति अतीव सुख प्रदान करने वाली है ….दोनों एक दूसरे को देख रहे हैं …देखते देखते रुक जाते हैं ….गति अवरुद्ध हो जाती है ….दोनों के नयन मिल गए हैं ….बस ….दोनों के कपोलों से किरणें छिटक रहीं हैं ….सब भूल गए हैं ये दोनों ….सौन्दर्य और यौवन के मद से मत्त हैं …..ये मत्तता और मधुर लग रही है …..हरिप्रिया जी को ही दर्शन हो रहे हैं ….वो मुझे बताती जा रहीं हैं ……चन्दन से चर्चित तथा पुष्प पराग के पद पाँवड़े से मण्डित सघन वन पथ पर …यमुना के किनारे …ये सुन्दरता के धनी क्या कर रहे हैं ! ये प्रेम रस में डूब गये हैं ….ये दोनों ही भूल गए हैं कि …हम श्याम हैं और हम श्यामा हैं ….इन्हें अपनी ही सुध नही है । सौन्दर्य की किरणें निकुँज में फैल रही है …..जिसके कारण वृक्षावलियाँ झूम झूम कर मानौं नृत्य करने लगी हैं ….भ्रमरों का झुण्ड वहाँ आचुका है ….उनकी गुनगुनाहट से संगीत का भान होने लगा है ……मोरों ने आकर नृत्य करना आरम्भ कर दिया है ….हंसों के अनगिनत जोड़े यमुना में स्तब्ध , इन युगल को देखने के लिए रुक गया है …

हरिप्रिया जी मुझे कहती हैं …देखो ! निकुँज कैसा जगमग कर रहा है …ये जगमगाहट किसकी है ? युगल के श्रीअंगों की ….देखो ! दोनों एक हो रहे हैं …कुछ समझ में नही आरहा ….बादल में बिजली या बिजली में बादल …अब दो कोई नही कह सकता …ये दोनों तो एक ही हैं ….हरिप्रिया जी अभी तक मुझे बता रहीं थीं दिखा रहीं थीं …किन्तु मुझे कुछ दीख नही रहा था …तभी एक बिजली सी कौंधी और सुवर्ण की तरह चमकती और नीलमणि दोनों एक हो गए हैं …..धीरे धीरे सुवर्ण की पीताभ नीलमणि में खो रही थी …या कहें नीलिमा ने सुवर्ण के तेज में अपने आपको खो दिया था । इस में पूरा निकुँज जगमग कर उठा था ।

मैं देखती रह गयी ।

शेष अब कल –
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 7 : भगवद्ज्ञान
🌹🌹🌹🌹🌹🌹
श्लोक 7 . 14
🌹🌹🌹🌹

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया |
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते || १४ ||

दैवी – दिव्य; हि – निश्चय ही; एषा – यह; गुण-मयी – तीनों गुणों से युक्त; मम – मेरी; माया – शक्ति; दुरत्यया – पार कर पाना कठिन, दुस्तर; माम् – मुझे; एव – निश्चय ही; ये – जो; प्रपद्यन्ते – शरण ग्रहण करते हैं; मायाम् एताम् – इस माया के; तरन्ति – पार कर जाते हैं; ते – वे |

भावार्थ
🌹🌹
प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है | किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं |

तात्पर्य
🌹🌹
भगवान् की शक्तियाँ अनन्त हैं और ये सारी शक्तियाँ दैवी हैं | यद्यपि जीवात्माएँ उनकी शक्तियों के अंश हैं, अतः दैवी हैं, किन्तु भौतिक शक्ति के सम्पर्क में रहने से उनकी परा शक्ति आच्छादित रहती है | इस प्रकार भौतिक शक्ति से आच्छादित होने के करण मनुष्य उसके प्रभाव का अतिक्रमण नहीं कर पाता | जैसा कि पहले कहा जा चुका है परा तथा अपरा शक्तियाँ भगवान् से उद्भूत होने के करण नित्य हैं | जीव भगवान् की परा शक्ति से सम्बन्धित होते हैं, किन्तु अपरा शक्ति पदार्थ के द्वारा दूषित होने से उनका मोह भी नित्य होता है |अतः बद्धजीव नित्यबद्ध है | कोई भी उसके बद्ध होने की तीथि को नहीं बता सकता | फलस्वरूप प्रकृति के चंगुल से उसका छूट पाना अत्यन्त कठिन है, भले ही प्रकृति अपराशक्ति क्यों न हो क्योंकि भौतिक शक्ति परमेच्छा द्वारा संचालित होती है. जिसे लाँघ पाना जीव के लिए कठिन है | यहाँ पर अपरा भौतिक प्रकृति को दैवीप्रकृति कहा गया है क्योंकि इसका सम्बन्ध दैवी है तथा इसका चालन दैवी इच्छा से होता है | दैवी इच्छा से संचालित होने के कारण भौतिक प्रकृति अपर होते हुए भी दृश्यजगत् के निर्माण तथा विनाश में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है | वेदों में इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है – मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्र्वरम् – यद्यपि माया मिथ्या या नश्र्वर है, किन्तु माया की पृष्ठभूमि में परं जादूगर भगवान् हैं, जो परं नियन्ता महेश्र्वर हैं (श्र्वेताश्र्वतर उपनिषद् ४.१०) |

गुण का दूसरा अर्थ रस्सी (रज्जु) है | इससे यह समझना चाहिए कि बद्धजीव मोह रूपी रस्सी से जकड़ा हुआ है | यदि मनुष्य के हाथ-पैर बाँध दिये जायें तो वह अपने को छुड़ा नहीं सकता – उसकी सहायता के लिए कोई ऐसा व्यक्ति चाहिए जो बँधा न हो | चूँकि एक बँधा हुआ व्यक्ति दूसरे बँधे व्यक्ति की सहायता नहीं कर सकता, अतः रक्षक को मुक्त होना चाहिए | अतः केवल कृष्ण या उनके प्रामाणिक प्रतिनिधि गुरु ही बद्धजीव को छुड़ा सकते हैं | बिना ऐसी उत्कृष्ट सहायता के भवबन्धन से छुटकारा नहीं मिल सकता | भक्ति या कृष्णभावनामृत इस प्रकार के छुटकारे में सहायक हो सकता है | कृष्ण माया के अधीश्र्वर होने के नाते इस दुर्लंघ्य शक्ति को आदेश दे सकते हैं कि बद्धजीव को छोड़ दे | वे शरणागत जीव पर अहैतुकी कृपा या वात्सल्यवश ही जीव को मुक्त किये जाने का आदेश देते हैं, क्योंकि जीव मूलतः भगवान् का प्रिय पुत्र है | अतः निष्ठुर माया के बंधन से मुक्त होने का एकमात्र साधन है, भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण करना |

मामेव पद भी अत्यन्त सार्थक है | माम् का अर्थ है एकमात्र कृष्ण (विष्णु) को, ब्रह्म या शिव को नहीं | यद्यपि ब्रह्मा तथा शिव अत्यन्त महान हैं और प्रायः विष्णु के ही समान हैं, किन्तु ऐसे रजोगुण तथा तमोगुण के अवतारों के लिए सम्भव नहीं कि वे बद्धजीव को माया के चंगुल से छुड़ा सके | दूसरे शब्दों में, ब्रह्मा तथा शिव दोनों ही माया के वश में रहते हैं | केवल विष्णु माया के स्वामी हैं, अतः वे ही बद्धजीव को मुक्त कर सकते हैं | वेदों में (श्र्वेताश्र्वतर उपनिषद् ३.८) इसकी पुष्टि तमेव विदित्वा के द्वारा हुई है जिसका अर्थ है, कृष्ण को जान लेने पर ही मुक्ति सम्भव है | शिवजी भी पुष्टि करते हैं कि केवल विष्णु-कृपा से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है – मुक्तिप्रदाता सर्वेषां विष्णुरेव न संशयः – अर्थात् इसमें सन्देह नहीं कि विष्णु ही सबों के मुक्तिदाता हैं |
[3

Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (132)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

प्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रम

इति विक्लवितं तासां…..इवोडुभिर्वृतः

श्रीशुक उवाच

इति विक्लवितं तासां श्रुत्वा योगेश्वरेश्वरः ।
प्रहस्य सदयं गोपीरात्मारामोप्यरीरमत् ।।
ताभिः समेताभिरुदारचेष्टितः प्रियेक्षणोत्फुल्लमुखीभिरच्युतः ।
उदारहासद्विजकुन्ददीधितिर्व्यरोचतैणांक इवोडुभिर्वृतः ।।

भगवान से राग का उदय होना-

इसका अर्थ है संसार से राग का छूट जाना, क्योंकि राग की प्रकृति है एक से होना। जब भगवान से राग होता है तो संसार से वैराग्य हो जाता है; नहीं तो जिन्दगी भर लोग घटाकाश-मठाकाश करते रह जाते हैं, अधिष्ठान और अध्यस्त की चर्चा करते-करते जिंदगी बीत जाती है लेकिन संसार से वैराग्य नहीं होता। वैराग्य हुए बिना अंतःकरण शुद्ध नहीं होता, अंतःकरण शुद्ध हए बिना तत्त्वज्ञान नहीं होता, तत्त्वज्ञान हुए बिना अविद्यानिवृत्ति नहीं होती, अविद्यानिवृत्ति हुए बिना अपने नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वरूप में अवस्थिति नहीं होती। वैराग्य तो साधन है, होना चाहिए। तो पहली बात है भगवान से राग होकर संसार से वैराग्य होना। अब जिससे राग होता है, जिससे मिलने के लिए प्रयत्न भी होता है।। तो जब गोपियों के मन में श्रीकृष्ण से मिलने के लिए राग हुआ- तब उन्होंने ‘कात्यायनी’ व्रत किया। यह धर्म हुआ। भगवान ने स्वीकार किया। तो रोज-रोज सायंकालीन भगवान का जो दर्शन है न –

गोरजश्छुरितकुन्तलबद्धबर्हं और जो वंशीध्वनि का श्रवण है वह पूर्वराग का प्रसंग है और कात्यायनी- पूजन आदि जो है वह भगवत्प्राप्ति के प्रयास का प्रसंग है। वरदान मिला।

वंशी सुनकर मोहित होना, रूप देखकर मोहित होना और कृष्ण के लिए प्रयत्न करना-इतना तो गोपियों का पौरुष था; और जब भगवान की स्वीकृति मिल गयी, उन्होंने बाँसुरी बजायी तो सबकी सब गोपियाँ आयीं, घेरकर खड़ी हो गयीं और श्रीकृष्ण स्वयं उदासीन, तटस्थ, निरपेक्ष असंग आत्मा। अब गोपियों के हृदय में जो उद्गार निकला उससे यह प्रतीत होता है कि गोपियों के हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति कितना प्रेम है और भगवान से कोई प्रेम करे तो कैसा प्रेम करे। गोपियों ने कह दिया कि अब हम एक कदम इससे पीछे नहीं हट सकतीं और कृष्ण यदि स्वीकार नहीं करेंगे तो हम विरहाग्नि से शरीर को प्रज्वलित करके और ध्यानाग्नि में अपने सूक्ष्म शरीर को तपाकर तुम्हारी पदवी को प्राप्त करेंगी। इतनी दृढ़ता, इतनी निष्ठा, इतनी प्रीति। असल में न तो इस सम्वाद से कोई गोपियों का हित था और न तो कोई श्रीकृष्ण का हित था।+

श्रीकृष्ण तो मजा ही ले रहे थे क्योंकि गोपियों के दिल की बात तो उनको मालूम थी और गोपियों को अपने प्रेम को जाहिर करना कोई जरूरी नहीं था। बहुत प्रेम दिखाना, प्रेम को बहुत जाहिर करना, वह प्रेम का विकार ही है। वह तो अपने प्रियतम पर एहसान लादना है। यह तो अधूरेपन का ही लक्षण है। तब फिर गोपियों ने यह संवाद क्यों किया? गोपियों ने यह संवाद अपनी इच्छा से नहीं किया, कृष्ण की इच्छा से यह बात चली, क्योंकि कृष्ण का अवतार तो भक्तिमार्ग की, प्रेममार्ग की स्थापना के लिए हुआ है। भगवान के प्रति लोगों का प्रेम बढ़े तो कैसे प्रेम बढ़े य जाहिर करना जरूरी था। लोगों के हृदय में श्रीकृष्ण का प्रेम, रागभक्ति कैसी होनी चाहिए इसका नमूना गोपियों के द्वारा दिखाया।

कृष्ण को तो पहले से ही मालूम था- कि गोपियों का कितना प्रेम है और गोपियों को अपना प्रेम जाहिर करने से डर ही लगता था कि प्रेम जाहिर करेंगे तो हमें भी अभिमान होगा, प्रियतम के ऊपर भार होगा, और प्रेम झूठा हो जायेगा पर श्रीकृष्ण की इच्छा थी कि जरूर बोलें, क्योंकि इनके बोलने से इनके हृदय का भाव संसार में प्रकट हो जायेगा और सब लोग ऐसी ही भक्ति करेंगे। तो-

इति विक्लवितं तासां श्रुत्वा योगेश्वरेश्वरः ।

इतनी गोपियाँ और उनकी इतनी विकलता को सुनकर- ‘विक्लवितं’ शब्द का अर्थ है- विकलता। गोपियों ने प्रेम की विकलता से ये बातें कही थीं, होश-हवाश में यह बात नहीं कही थी। विक्लविंत शब्द का अर्थ श्रीधरस्वामी ने किया है- ‘प्रेमपारवश्यम् प्रलपितम्’ प्रेम के पराधीन होकर बेहोशी में जैसे कोई बोले- ऐसे गोपियाँ प्रेम-परतंत्र होकरके, प्रेम से परवस होकरके, प्रेमाधीन हो करके, विवश होकरके अन्जान में ही ये सब बोल गयीं और योगेश्वर श्रीकृष्ण ने उसको सुना- ‘श्रुत्वा योगेश्वरेश्वरः।’ एक दिन एक गोपी से भगवान श्रीकृष्ण ने पूछा-क्यों भूल गयीं उस दिन कैसी विकलता थी। बोली- विकलता नहीं थी, तुम्हारे ऊपर गुस्सा था, तुम हमारे साथ छेड़छाड़ कर रहे थे तो क्या हम गुस्सा नहीं करती?++

‘विक्लवितं’ का अर्थ है- गुस्सा है, हमने क्रोध किया तुम्हारे ऊपर। गोपियों के अंदर दीनता भी आ गयी थी, दैन्य भी आ गया था, और प्रेम की परवशता भी आ गयी थी। लिखा है कि कम से कम तीन करोड़ गोपियों की संख्या थी। यह तीन करोड़ भी मैं बहुत थोड़ा करके कह रहा हूँ। वहाँ संख्या बहुत विलक्षण है वनिता शतकोटिभिराकुलितः शतकोटि हो गयी न!

हमारे एक मित्र पूछने लगे कि श्रीकृष्ण ने इतने ब्याह क्यों कर लिए? इतनी गोपी क्यों रखा? कहा- अरे भोले भाई! यह तो बहुत कम लिखा है, थीं तो इससे बहुत ज्यादा यह तो गिनती है न, सौ करोड़ या तीन करोड़ नहीं, शतकोटिभिः का अर्थ है- शतकोटिश्च शतकोटिश्च शतकोटिश्च ताभिः शतकोटिभिः अब लो, इसका मतलब है कि संसार में जितने भी पदार्थ हैं और उन पदार्थों में जितनी भी अधिष्ठातृ देवी-देवता हैं- एक-एक गुलाब के फूल में एक-एक देवी, एक-एक मकान में एक वास्तुदेवी, एक-एक पत्ते में, एक-एक फल में, एक-एक वृक्ष में, एक-एक लता में, एक-एक पशु में, पक्षी में, मनुष्य में, एक-एक इंद्रियों में जितने देवी-देवता हैं इनका ईश्वर कौन है? वही महाभोक्ता है इन सबका वही भोग कर रहा है। यह आत्मदेव का जो वर्णन आता है- महाकर्ता, महाभोक्ता, महात्यागी, उसको लोग भूल जाते हैं।

असंग करते-करते, विभु करते-करते, नित्य, शुद्ध-मुक्त करते-करते, ये भूल ही जाते हैं कि वही महाकर्ता, महाभोक्ता, महात्यागी भी हैं। संसार में जितनी भी वृत्ति-पशु में, पक्षी में, मनुष्य में, देवता में, दैत्य में जड़ में हुई हैं और होंगी वे सब परमेश्वर की भोग्या हैं, परमेश्वर की पत्नी हैं, परमेश्वर के अधीन है। उनको सोलह हजार लिखने का तो एक खास कारण होता है भला-शतं च एका च हृदयस्य नाड्यः उनकी गिनती तो ऐसे समझो कि- सोलह हजार उपासना के मंत्र हैं श्रुति में। उन सोलह हजार श्रुतियों को ही, सोलह हजार उपासना के मंत्र हैं श्रुति में। उन सोलह हजार श्रुतियों को ही, सोलह हजार पत्नी या सोलह हजार गोपी बता देते हैं क्योंकि वे परमात्मा का प्रतिपादन करती हैं और उनका परमतात्पर्य परमात्मा में है। असल में, गिनती नहीं है, जितनी स्त्री हैं, सब परमेश्वर की हैं। पुरुष तो कोई है ही नहीं उपासना में पुरुष भी स्त्री ही हैं। तो बोले कि इतने लोगों की बात श्रीकृष्ण ने कैसे सुनी? अरे महाराज। दस स्त्री आपस में बात करने लगें तो उनकी बात सुनना मुश्किल हो जायेगा फिर अनगिनत गोपियों की इतनी बातें श्रीकृष्ण ने कैसे सुनीं, कैसे समझीं?

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

admin
Author: admin

Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877

Leave a Comment

Advertisement
लाइव क्रिकेट स्कोर
कोरोना अपडेट
पंचांग