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!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 150 !!
प्रेम की सदाहीं जय हो …
भाग 2
🌳🌳🌳🌳🌳
चलो ……..सागर किनारे कुछ देर बतियाते हैं ।
पैदल चल पड़े थे ये दोनों सनातन प्रेमी …………
देखो राधे !
……अगाध जल राशि …….सागर को दिखाते हुए कृष्ण बोले थे ……..
पर खारा है ………..बस इतना ही बोलीं ।
वो दूर देखो ! कदम्ब की छाँव ……..तमाल की कुँजें …….
कहाँ ? श्रीराधारानी आनन्दित हो उठीं ।
वो देखो ! सच में कुञ्ज , तमाल की कुँजें ……..सामनें गिरिराज, यमुना की वो पावन लहरें ……
श्रीराधारानी कुञ्जों की और दौड़ीं ..........
प्यारे ! ये तो वृन्दावन है …….मेरा प्यारा वृन्दावन ……हमारा प्यारा वृन्दावन ……….नाच उठीं श्रीराधारानी …………
दोनों युगलवर मिल गए थे……..क्या अवतार लीला यहीं विश्राम है ?
श्रीराधारानी नें पूछा…..सिर हिलाकर “हाँ” में जबाब दिया था श्याम सुन्दर नें ।
सखियाँ पीछे से बोले उठीं …………”प्रेम की सदाई जय हो” ।
शेष चरित्र कल …
🍃 राधे🍃
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (133)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
प्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रम
श्रीशुकदेवजी कहते हैं कि श्रीकृष्ण योगेश्वर हैं। वे तो सबकी जीभ पर बैठकर, सबके दिल में बैठकर, बोलने के पहले ही समझ जाते हैं। फिर बोलने पर समझ गये इसमें क्या आश्चर्य? बोले- भाई! इतने लोगों के साथ कैसे रासलीला करेंगे? तो कहा- योगेश्वरेश्वरः। एक योगी भी जब अपने को हजार बना लेता है तो ये तो योगेश्वरों के भी ईश्वर हैं; ये अपने को इतना बना लें तो क्या आश्चर्य? इनकी अचिन्त्य-सामर्थ्य है। योगेश्वर में देखो- इतनी बात है। सौभरि ऋषि योगी थे। उन्होंने अपने को पचास रूपों में बना लिया था और मान्धाता की पचास कन्याओं के साथ विवाह किया था। शंकर भगवान् योगेश्वर हैं और श्रीकृष्ण योगेश्वरेश्वर हैं। एक योगेश्वर सत्ता से एकत्व प्राप्त करके संपूर्ण विश्व से अपने तादात्म्य का अनुभव करता है, तो श्रीकृष्ण यदि इतनी गोपियों से तादात्म्य का अनुभव करें तो क्या आश्चर्य? ‘योगेश्वरेश्वरः हैं’ – निरुद्ध वृत्तियाँ जो हैं वे एकीभूत हो गयीं और उनके असंग द्रष्टा का कृष्ण हैं। नारायण। एक आनन्द स्वरूप श्रीकृष्ण और ये सब आनन्द की वृत्तियाँ-
अंगनामंगनामन्तरे माधवो माधवं माधवं चान्तरेणांगना ।
इत्थमाकल्पिते मण्डले मध्यगः सञ्जगौ वेणुना देवकीनन्दनः ।।
एक गोपी एक कृष्ण, एक गोपी एक कृष्ण, बीच में राधा कृष्ण- नीलाम्बरधारिणी श्रीराधा, पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण, अधरों में बाँसुरी, सिर पर मुकुट और ये पाँव के पटकन, वह मुकुटकी लटकन, वह कुण्डल की चटकन; तो ये कृष्ण के लिए क्या आश्चर्य हैं-
योगेश्वरेश्वरः प्रहस्य सदयं गोपीः आत्मारामोऽप्यरीरमत् ।।
प्रहस्य का भाव कल सुनाया था कि इन्होंने कहा कि रोज तो तुम लोग उलट चाल चलती थीं। श्रृंगारशास्त्र में बताया है कि कामदेव के पाँव बाणों में- से तीन स्त्री के पास रहते हैं-
दुर्लभत्वं च दैन्यं च स्त्रीणां जातिनिवारणा ।
तदेव पञ्चबाणश्च मन्ये परममायुधम् ।।
ये कामदेव के तीन हथियार हैं जो स्त्री के हाथ में उन्होंने पहले से ही सौंप दिया है- दुर्लभ होना, वामपक्ष में होना, (माने उल्टी चाल चलना जैसे कि कहो कि हमारे साथ चलो तो मना कर दें और कहो कि मत चलो, तो चलने के लिए तैयार हैं) और निवारणा (माने रोकना)।+
श्रृंगारशास्त्र में स्त्रियों का गुरुपद में ही अभिषेक किया हुआ है, कितनी विद्या ऐसी होती हैं जो सिखा सकती हैं- दूसरा कोई नहीं सिखा सकता। आप लोग करोगे तो आश्चर्य लेकिन हमको तो शौक था शास्त्र के स्वाध्याय का। तो हमने अपनी जान में अपने आर्ष-ऋषि-महर्षियों के जो शास्त्र हैं उनको क़रीब-क़रीब बाँच लिया, सब। ऐसा तो नहीं कि सब गुरु से स्वाध्याय किया- पर बाँच लिया। सब ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद किसी का सायणभाष्य, किसी का अन्य भाष्य। तो मैंने कामशास्त्र भी बाँच लिया क्योंकि वे भी तो ऋषि विरचित हैं न? हमारे चार पुरुषार्थों में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चार महापुरुषों में एक पुरुषार्थ काम भी है। ये तो जबसे हमारा शास्त्र केवल बाबाजीओं के हाथ में पड़ गया है तबसे उसमें वैराग्य की पुट लग गयी।
ये वैरागी वैष्णव, श्रीवैष्णव, निम्बार्की वैष्णुव, संन्यासी-उदासी-ये शास्त्र को पढ़ें तो यही बतावें कि मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है और उसके लिए वैराग्य करना, और भोग छोड़ना और यह करना र वह करना- तो वह शास्त्र एक पक्ष में पड़ गया। आपको मैं बिलकुल ईमानदारी के साथ बताता हूँ, शास्त्र में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थों का वर्णन है। मनुष्य का जीवन धर्म, अर्थ, काम के समन्वय से चलता है। अगर धर्म में अति कर देगा तो अर्थ और काम से वंचित होगा। अगर अर्थ की अति कर दी तो भोग छूट गया और उधर, दान, व्रत, तप सब छूट गया और भोग की अति की तो उधर अर्थ भी गया और धर्म भी छूटा। तो यह जीवन जो है वह धर्म, अर्थ, काम इन तीनों का समन्वय करके चलता है।
अब गृहस्थों के गुरु बहुत करके बाबाजी लोग हैं और बाबाजिओं के संस्कार ज्यादा करके वैराग्य का, त्याग का होता है, तो वे तो यहीं बतायेंगे कि ये भोग छोड़ो, यह धन छोड़ो, ये-फलाना करो, ये सुख हैं, ये सुख नहीं हैं। शास्त्र का जो परम तात्पर्य है वह मनुष्य के जीवन को एकांगी बनाने में नहीं है। धन भी कमाना चाहिए, भोग भी करना चाहिए, धर्म भी करना चाहिए, पर चित्त जब वैराग्यवान् हो, तब चित्त शुद्ध होवे, जब परब्रह्म परमात्मा की जिज्ञासा होवे तो वेदान्त का स्वाध्याय भी करना चाहिए। जब परमेश्वर से प्रीति जुड़े तो भक्ति भी करनी चाहिए। अपने घर-द्वार का, परिवार का, धर्म, संस्कृति का सत्यानाश करने का कहीं उल्लेख नहीं है।++
अब हम समूचे शास्त्र को ध्यान में रखकर यह बात बोल रहे हैं। धर्म पुरुषार्थ दो तरह का है: एक तो भौतिक सुख के लिए और एक आधिदैविक सुख के लिए। मरे के बाद स्वर्ग मिले इसके लिए और जीवन में हम सुखी रहें इसके लिए हैं। जीवन में सुखी रहें इसके दो विभाग हैं- (1) वासना पूरी करके सुखी होवें। (2) निर्वासन होकर सुखी होवें। धर्म दोनों में मदद करता है। तो यह जो वासना-निवारण करने का मार्ग है उसको अंतःकरण की शुद्धि कहते हैं। जब वासना की निवृत्ति होती है तो मोक्ष-मार्ग में गति होती है।
अब देखो- यह जो काम पुरुषार्थ है यह जब संसार में होता है तब इसे काम कहते हैं। और बिलकुल वही वृत्ति जो पत्नी की अपने पति के प्रति होती है, वही वृत्ति जब ईश्वर के प्रति होती है तो उसका नाम प्रेम हो जाता है। इस प्रकार काम पुरुषार्थ के दो भेद हैं- एक अशुद्ध काम और एक शुद्ध काम। अशुद्ध विषय में, हड्डी-चाम आदि में जो संलग्न है, उसको अशुद्ध काम कहते हैं और परमेश्वर में जो संलग्न है उसको शुद्ध काम कहते हैं। शुद्ध काम पुरुषार्थ का नाम ही प्रीति है और अशुद्ध काम का नाम काम है। लोक में अशुद्ध काम भी होता है और शुद्ध काम भी होता है। अब यह जो भक्ति है वह कहाँ है? मोक्ष पुरुषार्थ में है कि धर्म पुरुषार्थ में है, कि काम पुरुषार्थ में है?
कहते हैं कि भक्ति की गति बहुत विलक्षण है। भक्ति जहाँ तक क्रिया में है वहाँ तक धर्म है; भाव में जहाँ धर्म आया, माने धर्म अंतरंग होते ही भक्ति हो गया। और धर्म जहाँ चाँदी, सोना नोट के लिए है अर्थ के लिए है, वहाँ लौकिक है। जहाँ भगवान अर्थ हो गये वहाँ धर्म परमार्थ हो गया। इसी प्रकार काम स्त्री-पुरुष आदि के संबंध से जहाँ तक है वहाँ तक काम है, जहाँ काम भगवान से जुड़ा वहाँ प्रेम हो गया। तो नारायण!! इनकी गति जो है वह बड़ी विलक्षण है। यह भी बात है कि सामान्य रूप से ग्रंथों को कोई बाँच जाय, तो उसके ध्यान में ये बातें आती भी नहीं हैं। तो देखो- भगवान गोपियों की प्रीति को अपनी ओर खींच रहे हैं। ये काम पुरुषार्थ में भी बड़े निपुण हैं, युद्धनीति के ज्ञाता हैं, गणतंत्र के- यदुवंशियों के गणतंत्र के और कौरवों के गणतंत्र के नेता हैं। लोकतंत्र नहीं, गणतंत्र के।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: 🙏🙏🙏🙏
!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 150 !!
प्रेम की सदाहीं जय हो …
भाग 2
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चलो ……..सागर किनारे कुछ देर बतियाते हैं ।
पैदल चल पड़े थे ये दोनों सनातन प्रेमी …………
देखो राधे !
……अगाध जल राशि …….सागर को दिखाते हुए कृष्ण बोले थे ……..
पर खारा है ………..बस इतना ही बोलीं ।
वो दूर देखो ! कदम्ब की छाँव ……..तमाल की कुँजें …….
कहाँ ? श्रीराधारानी आनन्दित हो उठीं ।
वो देखो ! सच में कुञ्ज , तमाल की कुँजें ……..सामनें गिरिराज, यमुना की वो पावन लहरें ……
श्रीराधारानी कुञ्जों की और दौड़ीं ..........
प्यारे ! ये तो वृन्दावन है …….मेरा प्यारा वृन्दावन ……हमारा प्यारा वृन्दावन ……….नाच उठीं श्रीराधारानी …………
दोनों युगलवर मिल गए थे……..क्या अवतार लीला यहीं विश्राम है ?
श्रीराधारानी नें पूछा…..सिर हिलाकर “हाँ” में जबाब दिया था श्याम सुन्दर नें ।
सखियाँ पीछे से बोले उठीं …………”प्रेम की सदाई जय हो” ।
शेष चरित्र कल …
🍃 राधे🍃
[Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख” – 55 )
गतांक से आगे –
॥ दोहा ॥
दौरत बहुत बिसाल बन, जहाँ लगि कहियत दौर।
श्रीहरिप्रिया निजधाम छबि, बरनत है बुधिबौर ।।
॥ पद ॥
बरनत ही बुधि होत है बौर।
दौरत बहुत बिसाल विपिन में, जहँ लगि कहियत मन की दौर ॥
सूर कें नीचें न सेस के ऊपर, गोपुर हू तें अगोचर ठौर।
श्रीहरिप्रिया बिराजत हैं तहाँ, जुगलकिसोर सकल सिर मौर ॥ २९ ॥
*मन नही लगता ? लगाओ तो निकुँज में , निकुँज के वन प्रान्त में , निकुँज के सरोवरों में और निकुँज के राजा रानी यानि युगल सरकार में । फिर देखो ये मन कैसे नही लगता । कहाँ तक जाएगा , कहाँ तक दौड़ेगा ? दौड़ाओ ….यही उपाय है इस मन-बुद्धि को थकाने का । हरिप्रिया जी कितनी सरलता से मुझे मन जैसे उलझे विषय को समझा रहीं थीं ….जिसे बड़े बड़े योगी समझते-समझाते थक गये किन्तु ये मन है कि मानता ही नही , बुद्धि है कि तर्क करना छोड़ता ही नहीं । अब देखो – सर्वोपरि श्रीधाम वृन्दावन में उत्कृष्टता , मधुरता , रस रुपता तथा सत् चिद आनन्द का पूर्ण विकास तो यहीं है ….यानि इस दिव्य श्रीवृन्दावन में । इस निकुँज में अनन्त वन हैं …दिखाइये अपने मन को वो वन , यहाँ अनन्त सरोवर हैं ….उन सरोवरों का दर्शन कराइये ना अपने मन को ….क्यों ! बड़ी कल्पना में डूबा रहता है ना ये मन ….अब डूबे ना इस कल्पना में कि मणि माणिक्य के घाट हैं ….उसमें हीरे जड़े हैं …..उस सरोवर में कमल खिले हैं ….ले जाइये इस कल्पना में अपने मन को …..कमल भी कई रंगों के हैं …एक एक कमल को निहारिये …..फिर दर्शन कीजिए निकुँज की भूमि का ….ये प्रेम की भूमि है ….इसका कोई ओर छोर थोड़े ही है ….दौड़ाइये बुद्धि के अश्व को ….ले जाइये मन को कल्पना में ….हरिप्रिया जी कहती हैं ….इसी कल्पना के आधार से …मन के परे जा पाओगे …..इसी कल्पना से बुद्धि के पार निकल जाओगे …क्यों कि मन बुद्धि से परे ही है ये निकुँज । हरिप्रिया जी कहती हैं …मैंने देखा ….बुद्धि दौड़ती है …भागती है …..किन्तु वो समझ नही पाती कि ये कहाँ तक है ? ये निकुँज कहाँ तक है ? नही , ये ना सूर्य के तले है न शेषनाग के ऊपर …..ये तो सब लोकों से परे है ….अरे ! भगवद्धाम गोलोक से भी परे है ये निकुँज । हरिप्रिया जी कहती हैं ….सर्वोपरि यही हैं …..यही श्रीवृन्दावन ……जहाँ युगल सरकार नित्य विहार करते हैं । प्रेम सदा खिला रहता है यहाँ …संग की सहचरी सेवा में मग्न रहती हैं । अरी ! ऐसे श्रीवृन्दावन में अपना मन लगा ना ! हरिप्रिया जी यही कहती हैं…..और मन को लगाने का उपाय भी बताती है …उपाय भी यही कि …ले जाओ मन को उसकी कल्पना की ऊँचाई पर ….लेकिन कल्पना दिव्य निकुँज श्रीवृन्दावन की करना …..जैसे – रसिकों ने कहा …बताया वैसी कल्पना करना ….फिर देखो …पट्ठा मन कैसे अमन की स्थिति में आजाएगा । हरिप्रिया जी ने कितनी सरलता से ये उपाय बता दिया था ।
मैंने हरिप्रिया जी को नमन किया ।
शेष अब कल –
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 7 : भगवद्ज्ञान
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श्लोक 7 . 16
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चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोSर्जुन |
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ || १६ |
चतुः विधाः – चार प्रकार के; भजन्ते – सेवा करते हैं; माम् – मेरी; जनाः – व्यक्ति; सु-कृतिनः – पुण्यात्मा; अर्जुन – हे अर्जुन; आर्तः – विपदाग्रस्त, पीड़ित; जिज्ञासुः – ज्ञान के जिज्ञासु; अर्थ-अर्थी – लाभ की इच्छा रखने वाले; ज्ञानी – वस्तुओं को सही रूप में जानने वाले, तत्त्वज्ञ; च – भी; भरत-ऋषभ – हे भरतश्रेष्ठ |
भावार्थ
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हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते हैं – आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी |
तात्पर्य
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दुष्कृती के सर्वथा विपरीत ऐसे लोग हैं जो शास्त्रीय विधि-विधानों का दृढ़ता से पालन करते हैं और ये सुकृतिनः कहलाते हैं अर्थात् ये वे लोग हैं जो शास्त्रीय विधि-विधानों, नैतिक तथा सामाजिक नियमों को मानते हैं और परमेश्र्वर के प्रति न्यूनाधिक भक्ति करते हैं | इस लोगों की चार श्रेणियाँ हैं – वे जो पीड़ित हैं, वे जिन्हें धन की आवश्यकता है, वे जिन्हें जिज्ञासा है और वे जिन्हें परमसत्य का ज्ञान है | ये सारे लोग विभिन्न परिस्थितियों में परमेश्र्वर की भक्ति करते रहते हैं | शुद्ध भक्ति निष्काम होती है और उसमें किसी लाभ की आकांशा नहीं रहती | भक्तिरसामृत सिन्धु में (१.१.११) शुद्ध भक्ति की परिभाषा इस प्रकार की गई है –
अन्याभिलाषिताशून्यं ज्ञानकर्माद्यनावृतम् |
आनुकूल्येन कृष्णानुशीलनं भक्तिरुत्तमा ||
“मनुष्य को चाहिए कि परमेश्र्वर कृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति किसी सकामकर्म अथवा मनोधर्म द्वारा भौतिक लाभ की इच्छा से रहित होकर करे | यह शुद्धभक्ति कहलाती है |”
जब ये चार प्रकार के लोग परमेश्र्वर के पास भक्ति के लिए आते हैं और शुद्ध भक्त की संगती से पूर्णतया शुद्ध हो जाते हैं, तो ये भी शुद्ध भक्त हो जाते हैं | जहाँ तक दुष्टों (दुष्कृतियों) का प्रश्न है उनके लिए भक्ति दुर्गम है क्योंकि उनका जीवन स्वार्थपूर्ण, अनियमित तथा निरुद्देश्य होता है | किन्तु इनमें से भी कुछ लोग शुद्ध भक्त के सम्पर्क में आने पर शुद्ध भक्त बन जाते हैं |
जो लोग सदैव सकाम कर्मों में व्यस्त रहते हैं, वे संकट के समय भगवान् के पास आते हैं और तब वे शुद्धभक्तों की संगति करते हैं तथा विपत्ति में भगवान् के भक्त बन जाते हैं | जो बिलकुल हताश हैं वे भी कभी-कभी शुद्ध भक्तों की संगति करने आते हैं और ईश्र्वर के विषय में जानने की जिज्ञासा करते हैं | इसी प्रकार शुष्क चिन्तक जब ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र से हताश हो जाते हैं तो वे कभी-कभी ईश्र्वर को जानना चाहते हैं और वे भगवान् की भक्ति करने आते हैं | इस प्रकार ये निराकार ब्रह्म तथा अन्तर्यामी परमात्मा के ज्ञान को पार कर जाते हैं और भगवत्कृपा से या उनके शुद्ध भक्त की कृपा से उन्हें साकार भगवान् का बोध हो जाता है | कुल मिलाकर जब आर्त, जिज्ञासु, ज्ञानी तथा धन की इच्छा रखने वाले समस्त भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो जाते हैं और जब वे यह भलीभाँति समझ जाते हैं कि भौतिक आसक्ति से अध्यात्मिक उन्नति का कोई सरोकार नहीं है, तो वे शुद्धभक्त बन जाते हैं | जब तक ऐसी शुद्ध अवस्था प्राप्त नहीं हो लेती, तब तक भगवान् की दिव्यसेवा में लगे भक्त सकाम कर्मों में या संसारी ज्ञान की खोज में अनुरक्त रहते हैं | अतः शुद्ध भक्ति की अवस्था तक पहुँचने के लिए मनुष्य को इन सबों को लाँघना होता है |
Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877