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!! श्रीराधाचरितामृतम्” 151 !!
लीला संवरण
भाग 2
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मैं देखती रही द्वारिका को……..सुवर्ण की द्वारिका अब डूबनें की तैयारी में थी……..श्याम सुन्दर अब आजाओ ! मेरे पास आजाओ ……….सब देखतो लिया तुमनें…….अब क्या देखना शेष है ? लाखों बालक हो गए ……..लाखों पौत्र प्रपौत्र हो गए……..महाभारत का युद्ध भी करवा ही दिया ……अब आजाओ !
हम सब अर्जुन के रथ में बैठ कर चल रहे थे…….कई नदियाँ पार कीं ……कई भीषण जंगल पार किये…….पर ये क्या ?
चलते चलते …….एकाएक भीलों का झुण्ड आगया था…….
मैं देख रही थी उन भीलों को……….भीलों नें हमें घेर लिया था ।
अर्जुन नें ललकारते हुए अपनें गाण्डीव की टँकार दी…….
पर ये क्या ? भीलों का सरदार हँसता रहा…….और अन्य भील अर्जुन के ऊपर टूट पड़े थे……….
अर्जुन की गांडीव टूट गयी ……..ये आश्चर्य था………….भगवान शंकर से युद्ध करनें वाला अर्जुन ……भीलों से पराजित हो रहा था !
अब हमारे रथ पर कब्जा हो गया भीलों का ……..अब हमारे रथ को यही लोग चला रहे थे………..
सब डर गए थे……..पर मैं ? मैं क्यों डरूँ ?
मैं सब समझ गयी थी……..भीलों का मुखिया ………मैं हँसी ।
प्यारे ! ये क्या लीला है ? मैने कन्धे में हाथ रखा ।
वो मुड़े……..श्याम सुन्दर……….श्याम सुन्दर ही भील बनकर आये थे ……..नही नही, भीलों के सरदार
क्रमशः….
शेष चरित्र कल-
🦚 राधे राधे🦚
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (135)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
प्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रम
निर्ग्रन्थ माने जो ग्रंथ को मुख्य प्रमाण न माने, महात्मा को मुख्य प्रमाण माने, सिख तो ग्रंथ को ही मुख्य प्रमाण मानते हैं, ग्रंथ साहब को गुरु मानते हैं और जैनमत में ग्रंथ को मुख्य प्रमाण नहीं माना जाता, महात्मा को मुख्य प्रमाण माना जाता है। तो ‘निर्ग्रन्थाऽपि’ माने वेदरूप ग्रंथ को न मानने के कारण वे निर्ग्रन्थ हैं और मुनयः माने मननशील हैं और आत्माराम हैं फिर भी कृष्ण से प्रेम करते हैं। क्यों करते हैं?
बोले- इत्थम्भूतगुणो हरिः उसको आँखें कुछ ऐसी हैं, उसकी नाक कुछ ऐसी है, उसके होंठ कुछ ऐसे हैं, उसकी चाल कुछ ऐसी है, बोल न कुछ ऐसी है, मुस्कान कुछ ऐसी है, हसन कुछ ऐसी है कि उसको देखकर वे बोलते हैं कि अरे! आँख बन्द कर आत्माराम रहने से अच्छा तो यही है कि इस नन्द के छोकरे के पीछे-पीछे घूमें-
देखो री यह नन्द का छोरा बरछी मारे जाता है।
बरछी-सी तिरछी चितवन से पैनी छुरी चलाता है।।
हमको घायल देख बेदरदी मन्द-मन्द मुसकाता है।
ललित किशोरी जखम जिगर पर नौन पुड़ी छिड़काता है।।
देखो री यह नन्द का छोरा बरछी मारे जाता है।
ये आत्माराम लोग कहते हैं कि आओ तौलें कि ज्यादा मजा आत्माराम रहने में है कि ज्यादा मजा इस गाय के चरवाहे के साथ-साथ घूमने में है। तो उन्होंने यह निश्चित किया- ‘इत्थम्भूतगुणो हरिः’- कि ऐसे-ऐसे इसमें गुण हैं, ऐसी उदारता, ऐसी शूरता, ऐसी कोमलता, ऐसी भक्तवत्सलता, ऐसी प्रेमपरवशता और उधर ऐसी निर्गुणता, ऐसी असंगता, ऐसी महात्मता, ऐसी जीवन-मुक्ति इसमें है कि हमारा मन तो यही होता है कि ध्यान-समाधि छोड़कर इसके पीछे-पीछे घूमें। उनको अपनी आत्मा की अपेक्षा भी ज्यादा आनन्द, ज्यादा सुख, ज्यादा रस; बाहर-भीतर से भेद से रहित श्रीकृष्ण में आता है। आँख बन्द करने पर समाधि का मजा आता है और आँख खोलने पर विषय का मजा आता है। परंतु कृष्ण का मजा तो खुली आँख से भी वही और बन्द आँख से भी वही। तो महात्माओं ने कहा-यही बढ़िया है और महात्मा लोग श्रीकृष्ण के पीछे पड़ गये। अब देखो, यहाँ कृष्ण को ही आत्माराम बना दिया। ‘आत्मारामोऽप्यरीरमत्’। अब उन्होंने विचार किया कि ज्यादा मजा आँख बन्द करने में है कि ज्यादा मजा इन गोपियों के साथ रास करने में है?+
श्रीकृष्ण को ऐसा लगा कि जो आनन्द हमारे अन्दर है, हममें है, उससे कुछ ज्यादा आनन्द गोपियों में है। कैसे? देखो- इसकी बात बताते हैं। असल में भगवान भक्ति के अधीन हैं। भगवान कहते उसको हैं जो प्रेम के वश में हो, भक्ति के वश में हो। यह प्रश्न विशेष करके प्रीति-संदर्भ में श्रीजीवगोस्वामी जी महाराज ने उठाया है। श्रीचैतन्य महाप्रभु के संप्रदाय का बड़ा भारी प्राणाणिक ग्रंथ है। उन्होंने यह प्रश्न उठाया कि भगवान तो संपूर्ण जगत् को अपने वश में रखने वाला है, यह भला भक्ति के वश में क्यों हो जाता है? भक्ति में ऐसी क्या विशेषता है? तो बोले- पहले यह देखो कि सांख्यवादी कहते हैं कि भक्ति जो है वह सत्त्वगुण की वृत्ति है तो क्या सत्त्वगुण की वृत्ति भगवान को अपने वश में कर सकती हैं? नहीं कर सकती, बिलकुल झूठी बात। योगियों ने कहा कि भक्ति अक्लिष्टवृत्ति है। अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष; अभिनिवेश रूप तो नहीं है, समाधि की ओर ले जानेवाली वृत्ति है; परंतु निरोध तो उसका भी होता है; तो क्या योगाभ्यास के द्वारा निरुद्ध होने वाली अक्लिष्टवृत्ति भगवान को वश में कर सकती हैं? वेदान्तियों ने कहा- भक्ति माया की वृत्ति है। तो भला। माया की वृत्ति मायापति भगवान को वश में कैसे करेगी?
भक्तिरेवेनं गमयति भक्तिरेवेनं वर्द्धयति भक्तिरेवेनं नयति ।
भक्ति ही भगवान का दर्शन कराती है, भक्ति ही अनुभव कराती है, भगवान भक्ति के वश में है। भक्ति में यह सामर्थ्य कहाँ से आया? बोले- अच्छा, सच्चिदानन्दघन भगवान जो हैं उनकी आनन्दमयी वृत्ति है भक्ति। तो नारायण, भगवान की शक्ति कहीं शक्तिमान को वश में करती है? तब यह भक्ति क्या है? तो बोले- देखो, भगवान में तीन शक्ति हैं- आह्लादिनी, संधिनी और संवित्। उनमें जो आह्लादिनी शक्ति है उसके भी तीन रूप हैं- अंतरंगा तटस्था और बहिरंगा। संसार में जो विषय-सुख मिलता है वह बहिरंग का सुख हो जो समाधि सुख है। वह तटस्था का सुख है, वहाँ साक्षी द्रष्टा होकर सुख लेते हैं। और एक अंतरंगा है जो भगवान की स्वरूपभूत आवाज है। तो बोले- क्या भगवान अपने स्वरूप के वश में हो जाते हैं? आदमी अपने वश में स्वयं कैसे हो जाय? बोले- नहीं-नहीं, भगवान की स्वरूपभूता आह्लादिनी है, उस आह्लादिनी का भी जो सारसर्वस्व है उसको बोलते हैं राधा, उसी के वश में भगवान हैं; भक्ति शब्द का मुख्य अर्थ है राधा; इसी भक्ति के वश में है।++
भगवान- माने राधा के वश में हैं भगवान! उन्हीं राधा को जब भगवान गोपियों में स्थापित कर देते हैं तो गोपियों में वह चीज आ जाती है जो योग की अक्लिष्टवृत्ति में नहीं है, सांख्य की सात्त्विकवृत्ति में नहीं है, वेदान्त की मायिकवृत्ति में नहीं है, जो आह्लादिनी शक्ति में नहीं है, जो आह्लादिनी स्वरूपभूता में नहीं है, बल्कि आह्लादिनी सारसर्वस्व भगवान को भी वशीभूत करने वाली, श्रीराधारानी हैं वही भक्ति उनमें आ जाती है। भक्ति का, प्रेम का मुख्य रूप माने श्रीराधारानी! तो ‘आत्मारामोऽपि अरीरमत्’ का अरथ यह हुआ कि वही राधारानी जब हजार-हजार गोपियों का रूप धारण कर लेती हैं (जितनी गोपियाँ हैं सब राधारानी का अंश हैं) तब भगवान् श्रीकृष्ण उनके वशीभूत हो जाते हैं और आत्मारामोऽपि आत्माराम होने पर भी ‘आत्मारामं अपि परित्यज्य’ आत्मारामता का परित्याग करके राधारमण बन जाते हैं। आत्माराम गोपी-रमण बन गये। क्यों बन गये? बोले- आत्मीय शक्ति के वश में होकर के नहीं, आत्मशक्ति के वश में होकर आत्स्वरूप के वश में होकर नहीं, बल्कि उनके आत्मा का भी जो आत्मा श्रीराधा हैं उसके वश में होकर! आत्मा तु राधिका तस्य…..।
श्रीकृष्ण की आत्मा का नाम ब्रह्म नहीं है, राधा है- आत्मा तु राधिका तस्य। शब्द जितने होते हैं व्यावर्तक होते हैं। व्यावर्तक होते हैं माने एक से दूसरे को अलग बताने के लिए होते हैं। जैसे यह घड़ा है, यह कपड़ा है, तो कपड़े को घड़े से अलग बताने के लिए घड़ा शब्द है और घड़े से कपड़े को अलग बताने के लिए कपड़ा शब्द है। शब्द व्यावर्तक होते हैं। यह ब्रह्म शब्द काहे के लिए है? ब्रह्म शब्द का प्रयोग जब वेदान्त में करते हैं तो बोलते समय यह तो मालूम होता है कि इससे बढ़कर और कोई चीज है ही नहीं। लेकिन देखो, आत्मा को ब्रह्म क्यों कहते हैं? आत्मा को ब्रह्म इसलिए कहते हैं कि परिच्छिन्नता की भ्रान्ति है। अगर परिच्छिन्नता को व्यावृत्त करना न होता, परिच्छिन्नता को काटना न होता तो आत्मा को ब्रह्म कहने की कोई जरूरत न होती। वह तो कल्पित परिच्छिन्नता को काटने के लिए कल्पित ब्रह्म शब्द का प्रयोग करके परिच्छिन्नत्व की व्यावृत्ति करते हैं। कल्पित परिच्छिन्नता की व्यावृत्ति के लिए परमार्थ तत्त्व में कल्पित वृत्ति से ब्रह्म शब्द का प्रयोग किया जाता है। यदि श्रीकृष्ण का आत्मा ब्रह्म है, तो कृष्ण में परिच्छिन्नत्व की भ्रान्ति है? कृष्ण में भ्रान्ति तो क्या भ्रान्ति का प्राग्भाव भी नहीं है।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख” – 57 )
गतांक से आगे –
॥ दोहा ॥
बिधि निषेध आदिक जिते, कर्म-धर्म तजि तास ।
प्रभु के आश्रय आवहीं, सो कहिये निज दास ॥
॥ पद ॥
जो कोउ प्रभु कें आश्रय आवैं। सो अन्याश्रय सब छिटकावैं ॥
बिधि-निषेध कें जे जे धर्म । तिनिकों त्यागि रहें निष्कर्म ॥
झूठ क्रोध निंदा तजि देंहीं। बिन प्रसाद मुख और न लेंहीं ॥
सब जीवनि पर करुना राखें। कबहुँ कठोर बचन नहिं भाखें ।
मन माधुर्य-रस माहिं समोवैं। घरी पहर पल वृथा न खोवैं ॥
सतगुरु के मारग पगु धारैं। श्रीहरि सतगुरु बिचि भेद न पारौं ।
ए द्वादस लच्छिन अवगाहैं। जे जन परा परम-पद चाहैं॥
जाके दस पैड़ी अति दृढि हैं। बिन अधिकार कौन तहाँ चढि हैं ।।
पहिलें रसिक जनन को सेवैं। दूजी दया हिये थरि लेवें ॥
तीजी धर्म सुनिष्ठा गुनि हैं। चौथी कथा अतृप्त है सुनि हैं।
पंचमि पद पंकज अनुरागैं । षष्टी रूप अधिकता पारौं ।॥
सप्तमि प्रेम हिये विरधावैं। अष्टमि रूप ध्यान गुन गावैं ॥
नवमी दृढ़ता निश्चैं गहिबैं। दसमी रसकी सरिता बहिवैं ॥
या अनुक्रम करि जे अनुसरहीं। सनै-सनै जगतें निरबरहीं ।
परमधाम परिकर मधि बसहीं। श्रीहरिप्रिया हितू सँग लसहीं ॥ ३१ ॥
कृपा से ही युगल मिलेंगे , कृपा से ही प्रियालाल मिलेंगे ..कृपा से ही निकुँज में प्रवेश मिलेगा तो फिर साधना करने की आवश्यकता क्या है ? क्यों करें साधना ? मेरा ये प्रश्न था …मेरा प्रश्न सुनकर हरिप्रिया जी हंसीं ….बोलीं….और सब तो करते हो ना ! फिर साधना क्यों नहीं ? ये फिर अटपटी बात कह दी थी । वो कृपा से मिलेंगे कहकर नाम जाप छोड़ दोगे ….तो फिर कहीं के नही रहोगे ! वो कृपा से मिलेंगे कहकर तुम गुरु सेवा छोड़ दोगे , सत्संग छोड़ दोगे तो फिर तुम करोगे क्या ? क्यों कि बिना कुछ किए मनुष्य रह नही सकता …इसलिए मिलेंगे तो वो कृपा से ही …किन्तु साधना तुम्हें छोड़नी नही हैं …साधना से क्रिया शुद्धि तो होगी ही ना , सांसारिक क्रिया से मन बिगड़ चुका है …अब भगवत् सम्बन्धी क्रिया से मन को शुद्ध रखो …..बुद्धि को शुद्ध करो …चित्त को ख़ाली करो …अपने अहंकार को गलाओ ……ये सब साधना से ही तो होंगे …इसके बाद तुम कृपा के अधिकारी बनोगे । कृपा को प्राप्त करने के लिए अधिकार तो प्राप्त कर लो । हरिप्रिया जी अपनत्व से , अपनेपन से मुझे समझा रहीं थीं ।
दस सीढ़ियाँ हैं उस निकुँज में पहुँचने के ….किन्तु उस सीढ़ी तक पहुँचने के लिए साधना चाहिए …..मन अशुद्ध है ….शुद्ध करो ….बुद्धि शुद्ध करो ….इसके लिए ही सब साधनाएँ हैं ।
हरिप्रिया जी मुझे देखने लगीं ….उनके नेत्रों में स्नेह था …स्नेह बरस रहा था ।
फिर वो सीढ़ी कहाँ से मिलेगी ? निकुँज में जाने के लिए सीढ़ी कहाँ से चढ़ें ?
मैंने जब पूछा तो हरिप्रिया जी बोलीं ….नाम जाप करो , गुरु आज्ञा का पालन करो …और भगवत् भक्ति में अपने को रमाओ । यही जब दृढ़ होगा ….फिर आगे बढ़ो ……हरिप्रिया जी बोलीं …सबसे पहले विधि निषेध का पूर्ण त्याग करो । विधि यानि ये करना , और निषेध यानि ये नही करना । हरिप्रिया जी कहती हैं ….जब तुम प्रिया लाल के आश्रित हो गये …..फिर विधि निषेध क्यों ? अब तो प्रिया लाल को जो रुचिकर हो वो विधि और जो रुचिकर न हो उसका निषेध । इसलिए ये शास्त्र के विधिनिषेध त्याग दो ….अब तुम कहोगी …..ये वेद के विधि निषेध हैं ….आदि हैं ….आज कल के नही हैं ….अनादि काल के बनाये हुए विधि हैं …उनका त्याग ? हरिप्रिया जी बोलीं ….हाँ , क्यों की तुम जिस मार्ग में चलना चाह रहे हो …या चल रहे हो …ये वैदिक मार्ग से परे का मार्ग है ….श्रुतियों की यहाँ तक गति नही हैं ….शास्त्र इस प्रेम को समझ नही पाते ….उन्हें अपनी व्यवस्था देखनी है …..उनकी मजबूरी है …जो सही भी है ….किन्तु इस मार्ग के पथिक को ये सब त्यागना ही पड़ता है …निज दास बनना है ….दास तो हम हैं हीं …जीव ही दास है भगवान का , नित्य दास है । हरिप्रिया जी समझाती हैं ….जैसे – राजा के लिए सम्पूर्ण प्रजा ही उसकी सेवक है ….किन्तु “निज सेवक” बनना सबका सौभाग्य तो नही होगा …उसके लिए राजा के प्रति निष्ठा चाहिए …अन्य कर्मों को त्याग कर बस राजा को ही भजना पड़ेगा ….कहीं भीड़ में जाकर हाथ हिलाकर राजा का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना पड़ेगा । जब राजा का ध्यान तुम्हारी ओर पड़ेगा ….तब तुम निहाल हो जाओगे ….फिर राज महल का सेवक तुम्हें बनाया जाएगा ….और विश्वासपात्र बनोगे तो निजसेवक राजा तुम्हें रख लेगा । ऐसे ही हरिप्रिया जी कहती हैं …दास तो सब जीव हैं किन्तु अनन्यता भगवान के प्रति जिनकी है वही “निज दास” बन सकते हैं …बनते हैं । इस तरह ठाकुर जी के निज दास बनकर ….कर्म धर्म सब त्यागकर ….एक मात्र अपने आराध्य को हृदय में बसा कर प्रेम सिंधु में डूबा रहे । प्रेम सिंधु में कैसे डूबें ? हरिप्रिया जी कहती हैं …उनकी लीला का चिन्तन करें , उनके गुण गायें …उनके नाम का सुमिरन करके खो जायें ..रसिक जनों की सेवा करें , सेवा यानि उनका संग , उनकी बातें मानना , फिर देखना तुम निर्मल हो जाओगे । हरिप्रिया जी इतना ही बोलीं ।
शेष चर्चा अब कल –
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (134)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
प्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रम
लोकतंत्र में तो सार्वजनिक वोट पड़ता है और गणतंत्र में वर्ग-विशेष का ही वोट पड़ता है। तो राजनीति, कामनीति, अर्थनीति, धर्मनीति र मोक्षनीति में निपुण हैं भगवान् श्रीकृष्ण। तो उनकी निपुणता देखो- ‘प्रहस्य’। पहले गोपियों के दिल में जो बात छिपी हुई थी वह सबकी सब उन्होंने उगलवा ली और उगलवाने के बाद हँसने लग गये कि रोज-रोज तो गोपियों तुम करती थीं ‘वामता’ (उलटी चाल) ! हमने कहा- अरी गोपी! सुन-सुन, हमसे बात कर। बोलती- जाओ-जाओ-हम भला तुम्हारे सामने खड़ी हो सकती हैं? तुम पर-पुरुष हो, हटो। तो बोले- गोपियों! हट जाओ, परपुरुष के सामने आकर क्यों खड़ी हुई हो? उन्हीं की बात दुहरायी, तो रोने लग गयी। अब बोले कि आज के बाद वामता नहीं करना।
अच्छा, दूसरी हँसी की बात क्या है- प्रहस्य। यह हाथ जो भगवान् ने दिया है इसे संस्कृत में ‘हस्त’ बोलते हैं। और हस्त माने जो दूसरों को हँसा दे उसका नाम हस्त है। ‘हस्यते अनेन’। हाथ से ऐसा ईशारा कर दें, ऐसा काम कर दें आदमी हँस जाय। यह हाथ भगवान् ने हँसाने के लिए दिया है, रुलाने के लिए नहीं दिया है। हाथ से हमेशा ऐसा काम करना चाहिए जिससे लोगों को सुख मिले और हँसी आवे। तो भगवान् ने कहा- हाय-हाय! गोपियो, आज तो बड़ा अनर्थ हो गया। क्या अनर्थ हुआ भाई? कहा- अनर्थ यह हुआ कि हम तो बालब्रह्मचारी, असंग, विभु और तटस्थ पर तुम लोगों ने रो-रोकर सब नष्ट कर दिया; लो, हमारी असंगता भी तुम्हारे लिए आज छूटी, अब परस्त्री का स्पर्श करना पड़ेगा, नाचना पड़ेगा तुम्हारे साथ, गाना पड़ेगा तुम्हारे साथ, बजाना पड़ेगा, हमारी तो सब विशेषता आज तुम लोगों ने चौपट कर दी। यह हंसी की एक बहुत बड़ी विशेषता है; उसको सब लोग नहीं समझते हैं।
यह क्या है कि हँसी का जो आलम्बन होता है वह हमेशा मूर्ख बनाया जाता है। किसी को मूर्ख बनाये बिना हँसी कैसे करोगे? हास्यरस में बड़ा दोष है कि उसमें एक आदमी बेवकूफ सिद्ध हो जाता है। तो सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता की बात हास्यरस में क्या है कि सामने वाले को यह अनुभव न होने पावे कि हमको ये बेवकूफ बना रहे हैं। फिर हास्यरस की सृष्टि कैसे होगी? तो यह काव्य की बात है, साहित्य की रीति है कि हास्यरस का आलम्बन जब बनाओ तो अपने को ही बनाओ। ऐसे मत कहो कि तुम बड़े मोटे हो- यह देखो- क्या हाथी आ रहा है- ऐसे मत बोलो। यह बोलो कि हम कैसे- हाथी सरीखे हैं।+
ऐसे हँसाओ। माने हास्यरस का आलम्बन स्वयं अपने को बनाकर जब हँसाओगे तब वह निर्देष हास्यरस होगा और जहाँ दूसरे की हँसी उड़ाओगे, वहाँ वह हास्यरस आगे चलकर झगड़े का कारण भी बन जायेगा। हँसी उड़ाओ तो सबसे पहले अपनी उड़ाओ, हजार बातें अपने में ही हँसने की है और दूसरे की हँसी उड़ाने में झगड़ा होने का डर रहता है। झगड़े की जड़ हाँसी, ज्वर की जड़ खाँसी। तो भगवान ने गोपियों की हँसी नहीं उड़ायी अपनी हँसी उड़ायी कहा- देखो, मैं तुम लोगों के चक्कर में पड़ गया बाबा! हमारी असंगता गयी, हमारा ब्रह्मचर्य, हमारा वैराग्य गया, कला की साधना, जो बाँसुरी बजा रहा था एकान्त में खड़े होकर, वह अलग गयी, तुम लोग तो बाबा छा गयी हमारे ऊपर, बस, अब तुम्हीं तुम हो गोपियों!
प्रहस्य सदयं गोपीरात्मारामोऽप्यरीरमत् ।
बोले- भला भगवान ने ऐसा क्यों किया? अपने को ही उपहास का पात्र बना दिया? स्वयं भगवान, सारी सृष्टि का निर्माता और स्थापयिता, संहर्ता, कर्ता, हर्ता, धर्ता, भगवान। तो कहते हैं- ‘सदयं’ ! गोपियों की दशा देखकर उनके हृदय में दया आ गयी इसलिए उन्होंने ऐसा किया। संस्कृत के जो पंडित लोग हैं वे ‘सदयं’ शब्द को एक दूसरी तरह से भी बनाते हैं- सदयं-सद्+अयम्; अयः स्वभावगो विधिः यत्र माने अब रासलीला का प्रारंभ करने के लिए उन्होंने हँसी से मंगलाचरण किया- अब रास-रस के वर्णन का प्रथम चरण प्रारम्भ हुआ।
अब आपको सुनाते हैं- आत्मारामोऽप्यरीरमत्। भगवान कैसे? बोले-
आत्माराम! आत्मनि रमते इति अथवा आत्मनि आरमते इति- अपने आत्मा में जो रमण करे अथवा पूर्णरूप से रमण करे, उसका नाम आत्माराम। तो अब देखो- आदमी कहाँ रमता है? अपने भीतर रमता है कि अपने से बाहर रमता है? तुम्हारा आराम कहाँ? किसी-किसी का आराम होता है, साथ में लेकर बाजार घूमने में! बाजार शब्द भी संस्कृत का है, यह बहुत अश्लील शब्द है। ‘वर्तते जारो यत्र तद् बजारम्।’ जहाँ ‘जार’ के साथ वर्तन हो वह बजार। ‘ब’ बुद्धिं जारयति- जो बुद्धि को जीर्ण कर दे वह बजार।++
बुद्धेर्जारणं यत्र- जहाँ बुद्धि जल जाती है वह बजार। किसी-किसी का तो सारा आराम बजार में ही होता है। अपने घर में तकलीफ होती है तब दूसरे के घर में बैठता है, नहीं तो अपने घर में क्यों न बैठे? किसी का मजा मिठाई में है, गुलाब-जामुन खा रहे हैं, भाई, बड़ा मजा आया; नमकीन में है, भाई, बड़ा मजा आया। यह देखो कि तुम्हारा मजा कहाँ है? खाने में है कि पीने में है कि पहनने में है कि सोसाइटी में है कि दुकान में है? तुम्हारा मजा है कहाँ?
महात्मा लोगों को ‘आत्माराम’ बोलते हैं अपने में आरमण है- जिसका; आत्मनि आरामो आरमणं यस्य। किस में रमता है? बोले-अपने-आपमें-
यस्त्वात्मग्तिरेव स्यात् आत्मतृप्तश्च मानवः ।
मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ।।
अब श्रीकृष्ण कैसे हैं? बोले- आत्माराम अपने आपमें रमते हैं।
सबसे मिलिये सबसे जुलिए सबका लीजिए नाम ।
हाँजी-हाँजी करते रहिये बैठिये अपने ठाम ।।
तो कृष्ण असंगपुरुष हैं, आत्माराम हैं। तो अब दूसरा अभिप्राय फिर आपको सुनाते हैं। आत्माराम का अभिप्राय देखो- आत्मारामोऽपि अरीरमत् श्रीकृष्ण आत्माराम हैं, फिर भी गोपियों को रमण कराते हैं- गोपियों से रमण करते हैं यह इसका अर्थ नहीं है। आत्मारामो गोपीषु रमते- ऐसा नहीं है, आत्मारामोऽपि अरीरमत्- अरीरमत् माने रमयामास; गोपियों को आनन्द दिया, गोपियों को रमण कराया, उनके सुख के लिए रमण करते हैं। और रमते भी हों तो रहने दो। अब यहाँ भाव क्या है? भाव यह है कि पहले यह वर्णन आया है कि-
आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्थाप्युरुक्रमे ।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिं इत्थम्भूतगुणो हरिः ।।
आत्माराम महात्मा है, मननशील, ध्यानी, निर्ग्रन्थ-पोथी-पन्ना फेंककर, ग्रन्थिरहित, चोटी की गाँठ नहीं, जनेऊ की गाँठ नहीं, नीबिकी गाँठ नहीं, काम, क्रोध, लोभ की गाँठ नहीं, अहं की गाँठ नहीं, अविद्या की गाँठ नहीं; अठारह अर्थ चैतन्य महाप्रभु ने निर्ग्रन्थ पद के किए हैं। निर्ग्रन्थ का अर्थ जैनों ने भी किया हुआ है।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 7 : भगवद्ज्ञान
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श्लोक 7 . 18
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उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् |
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् || १८ ||
उदाराः – विशाल हृदय वाले; सर्वे – सभी; एव – निश्चय ही; एते – ये; ज्ञानी – ज्ञानवाला; तु – लेकिन; आत्मा एव – मेरे सामान ही; मे – मेरे; मतम् – मत में; आस्थितः – स्थित; सः – वह; हि – निश्चय ही; युक्त-आत्मा – भक्ति में तत्पर; माम् – मुझ; एव – निश्चय ही; अनुत्तमाम् – परम, सर्वोच्च; गतिम् – लक्ष्य को |
भावार्थ
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निस्सन्देह ये सब उदारचेता व्यक्ति हैं, किन्तु जो मेरे ज्ञान को प्राप्त है, उसे मैं अपने ही समान मानता हूँ | वह मेरी दिव्यसेवा में तत्पर रहकर मुझ सर्वोच्च उद्देश्य को निश्चित रूप से प्राप्त करता है |
तात्पर्य
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ऐसा नहीं है कि जो कम ज्ञानी भक्त है वे भगवान् को प्रिय नहीं हैं | भगवान् कहते हैं कि सभी उदारचेता हैं क्योंकि चाहे जो भी भगवान् के पास किसी भी उद्देश्य से आये वह महात्मा कहलाता है | जो भक्त भक्ति के बदले कुछ लाभ चाहते हैं उन्हें भगवान् स्वीकार करते हैं क्योंकि इससे स्नेह का विनिमय होता है | वे स्नेहवश भगवान् से लाभ की याचना करते हैं और जब उन्हें वह प्राप्त हो जाता है तो वे इतने प्रसन्न होते हैं कि वे भगवद्भक्ति करने लगते हैं | किन्तु ज्ञानी भक्त भगवान् को इसलिए प्रिय है कि उसका उद्देश्य प्रेम तथा भक्ति से परमेश्र्वर की सेवा करना होता है | ऐसा भक्त भगवान् की सेवा किये बिना क्षण भर भी नहीं रह सकता | इसी प्रकार परमेश्र्वर अपने भक्त को बहुत चाहते हैं और वे उससे विलग नहीं हो पाते |
श्रीमद्भागवत में (१.४.६८) भगवान् कहते हैं-
साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम् |
मदन्यत्ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि ||
”भक्तगण सदैव मेरे हृदय में वास करते हैं और मैं भक्तों के हृदयों में वास करता हूँ | भक्त मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं जानता और मैं भी भक्त को कभी नहीं भूलता | मेरे तथा शुद्ध भक्तों के बीच घनिष्ट सम्बन्ध रहता है | ज्ञानी शुद्धभक्त कभी भी अध्यात्मिक सम्पर्क से दूर नहीं होते, अतः वे मुझे अत्यन्त प्रिय हैं |”
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