श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! जब कृष्णाकार हुईँ गोपियाँ – “रासपञ्चाध्यायी” !!
भाग 1
“ब्रह्म का चिन्तन करनें वाला ब्रह्ममय हो जाता है”
तात ! वेद यही कहते हैं ।
ऐसे ही यहाँ गोपियों की बड़ी अद्भुत और अपूर्व स्थिति हो गयी है ।
विरह वेदना नें गोपियों के अन्तःकरण को कृष्णाकार बना दिया ।
उद्धव बोले – प्रेमोन्मत्त सी गोपियों …….वृक्षों से पूछती हैं कि – कहाँ हैं प्रियतम ! लताओं से पूछती हैं ……..पुष्पों से पूछती हैं …….फिर उन खिले हुए पुष्पों को देखकर चौंक जाती हैं ……….आहा ! ये पुष्प खिले कैसे हैं ? तब दूसरी गोपी तुरन्त कह देती हैं ……अवश्य हमारे प्रियतम नें इन पुष्पों का स्पर्श किया होगा ………तभी तो इतनी प्रफुल्लता आयी हैं इन में ………….
एक गोपी रोते रोते बैठ जाती है…….पृथ्वी में अपनें हाथों को मारती है ……..पर कुछ देर बाद वो भी चौंक उठती है ……….
ये पृथ्वी आनन्दित कैसे है ? दूसरी गोपी फिर उत्तर देती है …….अरी ! श्रीकृष्ण के चरण का स्पर्श जिसे मिले वो आनन्दित नही होगी ! अरी देख तो ! रोमांच हो रहा है पृथ्वी को …..ये हरे हरे घाँस कोमल कोमल दूब क्या हैं ! ये पृथ्वी के रोम ही तो हैं…….जो अति आनन्द के कारण खड़े हो गए हैं …….भाग्यशाली है ये अवनि सखी ।
तात !
उद्धव कहते हैं विदुर जी से – गोपियाँ तन्मय हो गयीं …….श्रीकृष्ण में तन्मय हो गयीं …..उनका अन्तःकरण कृष्णमय होनें लगा ……..
अभी तक रो रही थीं बिलख रही थीं …………पर ये अब एकाएक हँसनें लगीं ………………
मत जाओ ! मत जाओ यमुना में …………एक गोपी चिल्लाती दौड़ी ।
क्यों की इस में कालीय नाग है ……..जो तुम सबको खा जाएगा …….
मैं जाता हूँ और कालीय नाग को नथ कर लाता हूँ …………उद्धव कहते हैं ………बड़ी विचित्र स्थिति हो गयी वहाँ तो ………सब गोपियाँ अपनें आपको भूलनें लगीं …….और उनको लगनें लगा “हम कृष्ण हैं”…..ये प्रेम की उच्चतम् अवस्था थी ………..अद्वैत घटित हो गया था ।
एक गोपी नें अपनी चूनरी फैला दी, और चिल्लाकर बोली –
इन्द्र वर्षा कर रहा है ……आओ मेरे गिरिराज गोवर्धन के नीचे ….मैं तुम सब को बचा लूँगा ……………..
*क्रमशः…


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