श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! हे सखे ! नही सुननी तेरी कथा – “गोपिकागीतम्” !!
भाग 1
क्यों रिसाय रही हो प्यारी ! मैं तुम लोगों से बहुत प्रेम करता हूँ ……तुम्हारे प्रेम की स्वर्णमयी ज़ंजीर नें ही तो मुझे बांध रखा है…..तुम लोग जो कहोगी मैं वहीं करूँगा ।……..गोपियों को स्पष्ट लग रहा है कि श्याम सुन्दर ही बोल रहे हैं……और हा हा खा रहे हैं ।
प्रेम में ऐसी स्थिति बन जाती है ………प्रेमी का जुड़ाव इतना गहरा होता है अपनें प्रियतम से कि ….. वो बातें भी करते हैं और उन्हें उत्तर भी मिलता रहता है ………तात ! ये स्थिति साधारण प्रेमी की भी देखी गयी है फिर ये तो परमसिद्धा गोपियाँ हैं ।
तुम तो रहनें ही दो ! हमसे बातें मत करो ……….मुँह फेर लिया उस गोपी नें ।
क्यों ? क्यों न बातें करें ?
श्यामसुन्दर मानों गोपी के हृदय में बैठे बैठे पूछ रहे हैं ।
इसलिये कि ……हमें अब तुम्हारी बातों पर कोई विश्वास न रहा ……गोपी बोली ।
क्यों नही रहा प्यारी ? मुस्कुराते हुये मानों श्याम बोले ।
ये “प्यारी प्यारी” कहकर ही तो तुमनें हमें अपना बना लिया है …….ये सब बातें हैं ……..और हम समझ गयीं कि – तुम्हारी बातें ऐसी ही हैं ………कुछ भी ! ………तुम्हारी बातें ही विष हैं …………दूसरी गोपी बोल उठी ………..और हाँ ……जो कहते हैं तुम्हारी बातें अमृत हैं …….अजी छोडो …..कहाँ अमृत……शुद्ध विष है …..ज़हर ।
गोपी का प्रेमोन्माद फिर बढ़नें लगा था ।
बाँसुरी से फूँक मारमार कर ………..सुननें में लगता है कि आहा ! अमृत है……अपनें चितवन की चासनी डालकर ……..फिर उसमें अपनी मुस्कुराहट का घी डालकर ……..हमारे हृदय में जो आग भड़काई है तुमनें ओह ! जल रही हैं अंदर ही अंदर……ये सब काम तुम्हारी बातों नें ही किया है…….और ये कथा क्या है ? तेरी बातें ही तो हैं ।
हा हा हा हा ……….तुम क्या जानों गूजरी ! ये बड़े बड़े विद्वान ज्ञानी लोग मेरी कथा ऐसे ही नही सुनते , सुनाते । श्याम सुन्दर उस गोपी के हृदय में बैठे बैठे मानों हँसते हुये उस गोपी से बोले ।
*क्रमशः …


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