श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! ज्ञान गुदड़ी – “उद्धव प्रसंग 24” !!
भाग 1
द्वैत में अद्वैत मुझे दिखाई देनें लगा था वृन्दावन में……हाँ तात ! श्रीराधारानी जब “श्याम श्याम” कहते हुये आह भरती थीं……..तब मैने देखा एकाएक वो – “राधे राधे’ हे श्यामा हे मेरी प्यारी …..ये कहते हुये वो अद्वैत स्थिति में पहुँच जाती थीं…..वो श्याम ही बन जातीं …..उस समय मेरे साथ थी ललिता …..वो मेरे कान में कहती…..उद्धव ! ये क्या अद्वैत नही है……हमारी स्वामिनी भूल गयीं हैं कि वो श्री राधा हैं……वो अपनें आपको श्याम माननें लगी हैं….यही है ना अद्वैत !
उद्धव ! श्याम श्याम रटते रटते श्यामा श्याम हो गयी ।
पर तात ! विचित्रावस्था तो वो थी ……जब वो सर्वेश्वरी श्रीजी उठकर कुञ्जों की ओर दौड़नें लगीं ……..और कुञ्ज की लताओं से वृक्षों से पूछ रही थीं कि – मेरी राधा कहाँ है ? बताओ ना ! मेरी राधा कहाँ गयी ?
मेरे देह में कम्पन होनें लगा था………मैं ये क्या देख रहा हूँ ।
उद्धव विदुर जी को “श्रीकृष्णचरितामृतम्” सुनाते हुए बोल रहे हैं …….
तात ! मैने सूक्ष्म शरीर में एक चादर ओढ़ लिया था ………वो चादर ज्ञान का था ……….चादर के चार कोनें होते हैं …..ऐसे ही इस मेरे ओढ़ें हुए ज्ञान चादर के भी चार कोनें थे ……मैने उसमें चार महावाक्य लिखवा दिए थे ।
…..अहं ब्रह्मास्मि, तत्वं असि, प्रज्ञानं ब्रह्म, अयं आत्मा ब्रह्म ………ये चार महावाक्य जिसे मैने ओढा था ……और तात ! उस ज्ञान चादर के मध्य में लिखा था – “सोहम्” ।
मैं वाल्यावस्था से ही ब्रह्म ज्ञानी बन गया था ……मुझे उपनिषदों के सूत्रों में बड़ा रस आता ……अद्वैत में मेरी पूर्ण निष्ठा थी …….पर यहाँ वृन्दावन आनें के पश्चात्…….मेरी वो सूक्ष्म देह में ओढ़ी गयी ज्ञान की चादर अब खिसकनें लगी थी ….शिथिल हो रहा था मेरा ज्ञान का अहं ।
श्रीदामा सुबल इत्यादि आगये थे ……अपनी बहन श्रीराधारानी को बरसानें ले जाना था …….मैने नभ में देखा सूर्यास्त होनें वाला है ।
ओह ! मैं अरुणोदय में आया था और अब सूर्यास्त होनें वाला है !
इतना समय बीत गया था यमुना किनारे !
सुबल श्रीदामा अपनी बहन श्रीराधारानी को ले गए थे बरसानें …….साथ में ललितादि सखियाँ भी चली गयीं थीं ।
अन्य गोपियाँ उद्धव से विदा ले ……और अश्रु बहाते हुए वो सब भी गयीं अपनें घर……..पर ललिता सखी नें बरसाना जाते जाते कहा था ……सत्संग अच्छा दिया तुमनें हे श्याम सखा ! कल फिर मिलेगें !
ललिता सखी अपनी स्वामिनी को लेकर चली गयीं थीं …….
सच कहा है ललिता नें ………….हमारे प्यारे के बारे में सुनाकर तुमनें हम सब पर बहुत उपकार किया है उद्धव ! कल फिर आना !
मैं भी नन्दभवन की ओर चल पड़ा था …………हाँ मार्ग में मुझे श्रीकृष्ण के सखा मिले ……..मनसुख, मधुमंगल, तोक अर्जुन …….ये सब सखा मुझे देखते ही आगये थे मेरे पास …………..
क्या तुम्हे गैया चराना आता है ?
मधुमंगल ये विचित्र प्रश्न कर रहा था मुझ से ………….
मैने “नही” कहा …………तो कहनें लगा ….फिर कैसे मित्र हो तुम श्याम के ……..श्याम के मित्र को तो गैया चराना आना ही चाहिये ………..
मनसुख बोला ……….कन्हैया वहाँ गैया चरानें जाता है ?
पर वहाँ मथुरा में कहाँ जाता होगा ? वो तो नगर है ….बड़ा नगर …..
कन्हैया के साथ खेलनें में, मथुरा के लोगों को संकोच होता होगा…है ना ?
बस यही बातें करते हुये नन्दभवन में हम लोग पहुँच गए थे ……….
मैया यशोदा तो मेरी प्रतीक्षा में ही बैठी थी ……….गौशाला से बाबा अभी आये नही थे ……….मुझे देखते ही वो प्रसन्न हुयीं ।
तू भी कन्हैया जैसा ही है ……….वो भी खानें के लिये आता नही था …..मैं बारबार बुलाती ………..पर आता नही था ……….बड़ी मुश्किल से आता था और दो चार कौर मुँह में लेकर भाग जाता था खेलनें ।
ये कहते हुये मैया नें मेरे हाथ धुलवाए ……..फिर मुझे साग रोटी माखन गुड़ ये सब दिया ……..दूध देती हुयीं बोलीं थीं ……..दूध पीना ……..ये पद्मगन्धा गाय का दूध है……..आज ही उसनें दूध दिया है ……उद्धव ! तुझे देखकर दिया होगा ……नही तो इस पद्म गन्धा नें जो मेरे लाला की प्रिय गाय है……….लाला के मथुरा जानें के बाद इसनें दूध ही नही दिया था …….दूध देना ही बन्द कर दिया था…..आज ही इसनें दूध दिया है ……..तू दूध पीले और सो जा ।
मैने भोजन करनें के बाद …..दूध पीया …..अद्भुत स्वाद था उस दूध में ………फिर बाबा आये ……..बाबा के साथ बैठा , बहुत शान्त हैं बाबा उनके साथ बैठता हूँ तो लगता है किसी महान महर्षि के साथ बैठा हूँ ……..रात हो गयी थी तो ……. सोनें के लिये चला गया ।
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –
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