!! उद्धव प्रसंग !!
{ जब ते बृज तजि गए कन्हाई }
भाग-6
प्राण मीन दिन दीन दूबरे, दसा दुसह अब आई…
(कृष्ण गीतावली)
ये क्या !
वृन्दावन की सीमा में पाँव रखते ही मुझे ये कैसा अनुभव हो रहा है !
उद्धव स्तब्ध से हो गए थे ।
कृष्ण के आदेशानुसार… रथ से उतरे थे उद्धव ।
और वृन्दावन की भूमि में अपना सिर रखकर प्रणाम किया ही था कि…
“कृष्ण”…ये ध्वनि वृन्दावन के रज कण से आरही थी ।
चौंके उद्धव !…
ऐसा लग रहा था ये सम्पूर्ण भूमि ही कृष्ण विरह से तापित है ।
कृष्ण नही आये ?
उद्धव को अब ये शब्द सुनाई दिए… ।
कौन ? मुड़कर देख रहे हैं उद्धव !
हम वृन्दावन के वृक्ष… बताओ ना ! कृष्ण नही आये ?
इधर आओ उद्धव !… हम हैं इस वन के प्रमुख वृक्ष… कदम्ब !
आओ ना ! हमारे पास… बताओ ना ! क्यों नही आया हमारा कृष्ण !
हम हैं तमाल… हमारी ही लताओं पर कृष्ण झूलता रहता था ।
मेरे अंगों से जो लिपटी है ना… ये है कनक वेल…
कृष्ण अपने आपको तमाल बताते थे… और इस कनक वेल को अपनी प्रिया श्री राधा ।
उद्धव ! ये कनक वेल कबकी सूख जाती… पर मैं इसे सम्भाले हुए हूँ… ये कहकर कि… कृष्ण आएगा… इस वृन्दावन में कृष्ण की बाँसुरी फिर गूंजेगी… हम वृक्षों से फिर लिपटेंगे – वो कन्हैया ।
सावन में मेरी ही डाली पर घण्टों झूलते रहते थे… वो कृष्ण ।
अब तो हम समस्त वृन्दावन के लता वृक्ष… मथुरा की ओर ही देखते रहते हैं… कि शायद आज आये ! बस इसी इन्तजार में ।
हम तो कबके सूख जाते… पर उद्धव ! कृष्ण कब आजाये… क्या पता… और हम सूख जाएँ… कृष्ण हमें सूखा हुआ देखे तो उसे अच्छा नही लगेगा ना !
इसलिए हम तो सदैव उसके स्वागत के लिए खड़े हैं… कभी तो आएगा ।
उद्धव चकित हो गए थे… पूरी प्रकृति ही कृष्ण विरह में डूबी हुयी है !
वृन्दावन का रज कण… “कृष्ण कृष्ण” कहकर रो रहा है !
जो वृन्दावन में फूल खिले हैं… वो फूल भी मुड़ मुड़ कर उद्धव से पूछते हैं… “नही आया कृष्ण”
रथ में बैठने जा रहे हैं उद्धव… तभी…
एक करील के काँटों में… उद्धव का चादर उलझ गया ।
जब अपने चादर को निकालने लगे… तब करील के काँटें ने इतना ही पूछा…कृष्ण क्यों नही आया ?
वो सर्वत्र है… वो कहाँ नही है ?
ये सब रोना धोना अज्ञानता है… ये कहते हुए उद्धव ने अपना चादर निकाल लिया… ।
सुनो ! कृष्ण सखे !…सम्भल कर चलना आगे… नही तो ये ज्ञान का परदा हम सब मिल कर फाड़ देंगे ।
उद्धव देखते रहे… वहाँ के वृक्षों के विरह को… ओह ! यहाँ के वृक्ष भी प्रेम की ही भाषा बोल रहे हैं ।
मैं कई बार गया था अपने गुरुदेव बृहस्पति के साथ स्वर्ग का “नन्दन कानन” देखने के लिए…पर इस वृन्दावन के आगे “नन्दन कानन” कुछ भी तो नही है । उद्धव जी यही सब सोचते हुए अपने रथ को आगे बढ़ाते हैं ।
मनसुख ! देख ! मथुरा के मार्ग में धूल उड़ रही है… कोई रथ आरहा है ।… समस्त सखा नाचने लगे थे ।
वृक्षों पर बन्दर आगये थे… और वो भी कृष्ण के ही आने की सूचना देने लगे थे ।
श्रीदामा ने कहा… मनसुख ! देखा… आगया ना मेरा कृष्ण !
मैंने तो कहा ही था… कि वो आएगा ।
चल… चल ना ! मनसुख ! चल !
मनसुख देख रहा है… रथ आगया… पास में आगया रथ ।
और पास में आकर रुक गया था ।
सब ग्वाल बाल देख रहे हैं… रथ से कोई उतरता क्यों नही है ?
कुछ देर तक जब कोई नही उतरा रथ से… तब मनसुख के नेत्र फिर बरस पड़े ।… नही आया है कृष्ण ! मनसुख बोला ।
शुभ शुभ बोल मनसुख ! श्रीदामा ने कहा ।
हाँ… नही है इस रथ में कृष्ण… मैं कह रहा हूँ ।
मनसुख ने स्पष्ट कहा ।
पर तू कह कैसे रहा है… तू कैसे कह सकता है कि कृष्ण नही आया ?
मनसुख रो गया… रथ को रुके हुए… 5 मिनट से भी ज्यादा हो गए… अगर अपना कृष्ण इस रथ में होता… तो क्या इतनी देर तक वो बैठा रहता ? अरे ! वो चलती रथ से कूद कर हम मित्रों के गले से लिपट जाता… नही है कृष्ण इस रथ में… दो टूक कह कर मनसुख अपने आँसू पोंछने लगा था ।
सच कह रहा है मनसुख… देखो ! उस रथ से कोई अपने कृष्ण के जैसा ही आदमी उतर रहा है… पर कृष्ण नही है वो ।
सब लोग देखने लगे थे… उद्धव को ।
नमस्कार ! मैं कृष्ण सखा ! उद्धव ! क्या आप बता सकते हैं यशोदा और नन्द महाराज का महल कहाँ है ?
नही आया ना ! कृष्ण ? मनसुख ने आगे बढ़कर पूछा ।
नही आये… वे… उद्धव ने इतना ही कहा ।
क्यों ? क्यों नही आया ?
मनसुख ने फिर पूछा ।
बहुत व्यस्तता है उनको… सब देखना है… प्रजा को देखना है !
उद्धव ने कहा ।
ओह ! अब हमारे लिए भी समय नही है उसके पास ?
हमें नही देखना उसे ? अपनी मैया और बाबा को भी नही देखना उसे ?
वो लोग कैसे हो गए हैं पता है ?
उसकी मैया यशोदा ने रो रोकर अपनी आँखें खराब कर ली हैं ।
उसके पिता नन्द तो बस… किसी से बातें ही नही करते… शून्य में तांकते रहते हैं… ।
अच्छा ! तुमको हम ज्यादा परेशान नही करेंगे मथुरा वासी !
जाओ… तुमको मैया यशोदा और पिता नन्द के पास जाना है ना !
जाओ… सुनो ! ये जो पानी का नाला बह रहा है ना… इसी के सहारे सहारे निकल जाओ… जहाँ से ये पानी आरहा होगा… बस वही है नन्द और यशोदा का महल । मनसुख ने स्पष्ट कहा ।
ये क्या मजाक कर रहे हो ? ये पानी क्या है ?
उद्धव ने पूछा ।
मथुरावासी ! ये पानी आँसू हैं… नन्द बाबा और यशोदा मैया के आँसू !
बहते बहते ये नाला बन गए हैं… नित्य बहते रहते हैं उनके आँसू ।
ये मजाक करने के लिए मैं ही मिला हूँ… उद्धव ने कहा ।
मजाक ? कैसा मजाक उद्धव ! रो गया मनसुख ।
मजाक तो तेरे मथुराधीश ने हमारे साथ किया है !
मजाक तो तेरे मथुरा बिहारी ने किया है… हमसे प्रेम किया… हमको अपनी मीठी चिकनी चुपड़ी बातों में फंसा लिया… हमारे जीवन को ही मजाक बना दिया तेरे मथुराधीश ने… उद्धव ।
हमतो बेचारे लोग हैं… हम तो वृन्दावन के गरीब लोग हैं… तुम लोग हो… कृष्ण को अपने पास रखे हुए हो… मजाक हम करेंगे ?
हम गरीब… वनवासी लोग क्या जानें मजाक… जो बात है कह देते हैं ।
चाहे अच्छा लगे या बुरा… हम लोग बातें बनाना… ये सब कहाँ जानते हैं… ये सब तो तुम्हारा मथुराधीश अच्छे से जानता है ।
इतना कहते हुए… रो पड़े थे सब सखा, सब कृष्ण के सखा ।
उद्धव… कृष्ण सखाओं के पास आये…
उन्हें छुआ… ओह ! प्रेम की दिव्य ऊर्जा प्रवाहित हो रही थीं इनके भाव देह से… ।
उद्धव नाम है मेरा… देवगुरु बृहस्पति का शिष्य हूँ !
अच्छा !… सब ग्वाल बाल उद्धव को देखते रहे ।
उद्धव जी ! तुम्हें देखकर हम तो सोच रहे थे… शायद फिर से अक्रूर आगया… फिर मेरे मन ने कहा… अक्रूर क्यों आएगा अब ? कंस को मरवाना था ..कृष्ण के हाथों… वो काम तो हो गया… फिर हमारी बुद्धि में ये बात भी आई कि… कंस तो मर गया… पर उसका श्राद्ध तो करना पड़ेगा ना… इसलिये हम लोगों को अब लेने आया होगा… कंस के श्राद्ध कर्म के लिए ।
उद्धव हँसे… मनसुख की बातें सुनकर ।
जब से कृष्ण गया है… इस वृन्दावन ने हँसी नही सुनी थी… आज पहली बार तुम हँस रहे हो… उद्धव !
श्रीदामा ने कहा ।
कृष्णसखाओं के साथ उद्धव नन्द महल की ओर चल पड़े थे ।
साधकों ! इन वृन्दावन के विरह से सन्तप्त प्रेमियों की प्रीति- सरिता को कौन बाँध कर रोक सकता है ?
लोक परलोक के बड़े बड़े पर्वतों को तोड़ती फोड़ती हुयी ये तो कृष्ण रूपी प्रेम महासमुद्र में ही गिर कर दम लेगी ।
कितना ऊँचा आत्मोत्सर्ग है इन वृन्दावन वासियों का… धन्य हैं ।
बृहस्पति के इस चेले को… इन वृन्दावन वासियों से प्रेम की दीक्षा दिलाने के लिये ही तो भेजा है… कृष्ण ने ।
पर इस प्रेम की लीला को इस तरह कहाँ समझा जा सकता है ?
जहाँ आज का वातावरण समाज सुधार के नाम पर.. महत्वाकांक्षा की आग में झुलस रहा हो… पाश्चात्य की छूछी नैतिकता के मापदण्ड पर हम लोगों को नापा जा रहा हो !
वहाँ इस तरह के प्रेमपूर्ण गाथा को गाना…आपको व्यर्थ लगता होगा !
पर नही… साधकों ! प्रेम आवश्यक है… अति आवश्यक है ।
प्रेम भले ही विरह में हो… या मिलन में… पर प्रेम आवश्यक है ।
हृदय किसी के लिए तो तड़पे… रोये… कराहे !
पर फिर कहूँ… 21वीं सदी का प्रेम नही…
प्रेम हो सच्चा प्रेम ! सच्चा मतलब – कामना रहित प्रेम ।
शेष चर्चा कल…
मुहब्बत में ये लाज़िम है कि, जो कुछ हो फ़िदा कर दे ।
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877